समाज | 2-मिनट में पढ़ें

आपबीती: दिल्ली मेट्रो की इस 'नाइंसाफी' से पुरुष समाज आहत है!
हम इस बात को नकार नहीं सकते कि उत्पीड़न का सबसे ज़्यादा शिकार इस समाज में महिलाएं होती हैं, और यह सच है, लेकिन यह भी गलत नहीं है कि महिलाएं अपनी आवाज समय-समय पर उठाती रहती हैं. उनके साथ लोग जुड़ भी जाते है, लेकिन पुरुषों के साथ ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है जब कोई पुरुष अपने लिए आवाज उठाता है या लोग उसका साथ देते हैं.
सियासत | 5-मिनट में पढ़ें

सुप्रीम कोर्ट के बदले रुख से स्पष्ट है, गे कपल की विवाह की चाहत अधूरी ही रहेगी...
हां, सामाजिक संरचना में समलैंगिकों को वे सहूलियतें ज़रूर मिल जायेंगी जिनसे वे वंचित हैं. ऑन ए लाइटर नोट कहें, अन्यथा न लीजिएगा, साजन बिना सुहागन ही सुहाग के फायदे मिल जाएंगे. बिलकुल 'ना' से तो थोड़ा 'हां' हो रहा है तो फ़िलहाल संतोष करें.
ह्यूमर | 5-मिनट में पढ़ें

कान पर रीछ जैसे बाल और फिर धोखे से 27 औरतों से शादी... सच बात है, पैसे में दम तो बहुत है!
ओडिशा के फर्जी डॉक्टर ने क्या किया, क्या नहीं वो एक अलग बात है. मगर उन 27 औरतों के जज्बे को जरूर सलाम रहेगा जिन्होंने इससे शादी की. कमाल की बात ये है कि इन औरतों को रुपए तो दिखे लेकिन डॉक्टर साहब के कान पर रीछ की तरह लगे बाल नहीं. क्लियर हो गया पैसा ही बोलता है. पैसे में ही दम है.
समाज | एक अलग नज़रिया | 4-मिनट में पढ़ें

मां की ममता सबको दिखती है पिता का दर्द किसी को महसूस क्यों नहीं होता?
वे लोग झूठे हैं जो यह कहते हैं कि पुरुष रो नहीं सकते, उन्हें दर्द नहीं होता. जबकि सच यह है कि एक पिता का दिल पत्थर का नहीं होता है, वह अपने बच्चों के लिए वह सब करता है जो कर सकता है. वह अपने परिवार को हर खुशी देना चाहता है. इसलिए दिन-रात मेहनत करता है.
समाज | एक अलग नज़रिया | 2-मिनट में पढ़ें

इस लड़ाई में गलती महिला और पुरुष दोनों की है, तो फिर एक बेचारी और दूसरा पापी कैसे हो गया?
लड़ाई की शुरुआत महिला ही कर रही है. वही पहले झाड़ू से शख्स को मारती है. इसके बाद उस शख्स को गुस्सा आ जाता है और वह भी उसे मारने लगता है. यहां दोनों बराबर के दोषी हैं. दोनों ने गलती की है तो महिला भला बेचारी और पुरुष पापी कैसे हो गया?
समाज | 4-मिनट में पढ़ें

क्यों समाज महिलाओं को हर समय बेहद खास बनाने पर तुला है?
समाज आज यह बताने में व्यस्त है कि महिलाएं बहुत ख़ास हैं और हमारी लड़ाई ही इसी बात की है कि हमें ख़ास नहीं बनना, सामान्य बनना है. इतना सामान्य कि हम कुछ हासिल कर लें तो मोटिवेशन के नाम पर तालियां न पीटी जाएं. इतना सामान्य कि आप हमारे लिये कुछ करके यह न गाते फिरें कि हमने अपनी बेटी के लिये ऐसा किया. इतना सामान्य कि हम अपने निर्णयों को आख़िरी मानना सीख लें और समाज का मुंह न ताकें जो हमें ट्युटोरियल दे.
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