समाज | बड़ा आर्टिकल
प्रिये प्रियतमा, आज एकबार फिर तुम्हारी नगरी में हूं...
किसी बस स्टॉप पर बस के रूकने पर जब वो परचून वाला चढ़ता तो हमदोनों के ही जीभ लपलपा उठते थे और हमदोनों जी भरकर फिर अपना बचपन जीते. अबकी भी अभी उसी बस में बैठा हूं, पर अकेला. तुम नहीं हो साथ मेरे. पिछली सीट पर ही हूं और बस की उछल-कूद जारी है. पर इसबार बचपन नहीं, तुम्हारे साथ बिताए वो सारे पल जी रहा हूं.
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'मंटो इस्मत हाजिर है' का जब भी मंचन होता है, हिट ही रहता है
अठारह साल बाद भी मंटो और चुगताई सरीखे अच्छे लेखकों की कृतियों पर आधारित हाउसफुल शो हो रहे हैं. हालांकि पृथ्वी थियेटर के मंच की भी अपनी यूएसपी है नाटक प्रेमियों को खींचने की. 'मोटले' नाम की सार्थकता के अनुरूप ही थोड़ा प्रहसन है, चुटीलापन है, विविध साज सज्जा है और लिबरल होने तथा दिखने का मकसद भी है.
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प्रेरक कहानी: सुशीला की सेवानिवृत्ति
सुशीला मात्र 8ठवीं तक पढ़ी थी. एक सरकारी दफ्तर में चपरासी के पद पर कार्यरत थी. नौकरी के 30 साल बाद रिटायर हो रही थी. फेयरवेल के दिन सुशीला के बारे में जो खुलासा हुआ, वो हर किसी को हैरान कर देने वाला था. सभी को पानी-चाय पिलाने वाली सुशीला का राज ऐसा होगा किसी ने सोचा तक नहीं था. एक दिलचस्प कहानी, जो हर किसी को पढ़नी चाहिए.
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क्यों एक महिला चपरासी की सेवानिवृत्ति दफ्तर में सभी के बीच कौतूहल का विषय थी?
फिर थोड़ी देर में विदाई समारोह समाप्त हुआ. ऑफिस के सभी लोगों ने भींगी आंखों से सुशीला को विदा किया. सुशीला को साथ लिए उसके तीनों बच्चे वापस घर की ओर रवाना हो गए. उनके पीछे-पीछे पुलिस का कारवां भी चल पड़ा, जिसे ऑफिस के सभी स्टाफ अपनी खिड़की से देख रहे थे.
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