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Updated: 02 अक्टूबर, 2020 04:53 PM
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2 अक्टूबर, वो दिन जब सिर्फ हमारा देश ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देश राष्ट्र पिता 'गांधीजी' का जन्मदिन (Gandhi Jayanti) मना रहे हैं. साल के सबसे बड़े दिनों में से एक दिन यह भी है और हमारे देश में इसके लिए एक और वजह है. और वह है देश के दूसरे प्रधानमंत्री (Prime Minister) और शायद अब तक के सबसे साधारण और ईमानदार प्रधानमंत्री 'लाल बहादुर शास्त्री' (Lal Bahadur Shastri Birthday) जी का भी जन्मदिन इसी दिन आता है. हर साल इस दिन हम बापू और शास्त्री जी को याद करते हैं और उनकी मूर्तियों पर माला फूल चढ़ाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. इन दोनों महापुरुषों का सबसे बड़ा सन्देश जो कि सच्चाई, ईमानदारी और अहिंसा है, उस पर अमल करना शायद हमारी प्राथमिकता में नहीं आता.

खैर मैं बात करने जा रहा हूं दक्षिण अफ्रीका की जहां बापू एक युवा वकील के तौर पर एक मुक़दमे की पैरवी के लिए गए थे और फिर उन्होंने वहां लगभग 17 वर्ष बिताये. और जब वह हिन्दुस्तान वापस आये तो वह एक वकील के बदले एक सत्याग्रही व्यक्ति बन चुके थे जिन्होंने हिन्दुस्तान को लम्बे संघर्ष के बाद अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराया. अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान मैंने बापू से जुड़ी लगभग हर जगह देखी, जो भी वहां आता था मैं उनको इन जगहों पर जरूर लेकर जाता था.

इनमें से दो जगहें तो जोहानसबर्ग में ही थीं, 'सत्याग्रह भवन' और 'कॉन्सीट्यूशन हिल'. ये दोनों जगहें अलग अलग वजह से मशहूर थीं, सत्याग्रह भवन में गांधीजी कई वर्ष रहे थे और आज भी वहां गेस्ट हाउस बने हुए हैं जहां पूरी दुनिया से गांधीवादी आकर रहते हैं. कॉन्सीट्यूशन हिल वह जेल थी जहां गांधीजी को कैद रखा गया था और बाद में दक्षिण अफ्रीका के गांधी 'नेल्सन मंडेला' को भी कैद रखा गया. इसके अलावा 'टॉलस्टॉय फॉर्म' जो वहां से लगभग 50 किमी दूर था, पीटर मैरिट्सबर्ग स्टेशन और डरबन का फ़ीनिक्स आश्रम.

Gandhi, Lal Bahadur Shastri, Prime /minister, South Africa, Britisherदक्षिण अफ्रीका का फीनिक्स आश्रम

जब मैं पहली बार डरबन गया तो मेरी इच्छा थी कि मैं फ़ीनिक्स आश्रम भी देखूं. लेकिन समय कम था इसलिए जाना संभव नहीं हुआ. अगली बार जब डरबन गया तो शुक्रवार शाम को लगभग 4 बजे मैंने एक टैक्सी ड्राइवर से फ़ीनिक्स आश्रम चलने के लिए कहा. ड्राइवर ने न सिर्फ जाने से मन कर दिया बल्कि मुझे वहां न जाने की सलाह भी दे डाली. मैंने जब वजह पूछा तो उसने बताया कि एक तो शुक्रवार है, मतलब वीकेंड शुरू हो गया है. दूसरे वह जगह सुरक्षित नहीं है शाम को जाने के लिए, अगर आपको जाना ही हो तो आप दिन में जाईये और फिर वापस आ जाईये.

मुझे बड़ा झटका लगा कि बापू के आश्रम में जाने में खतरा है, वहां लूटपाट हो सकती है. शायद बापू ये सुनते तो उनकी आत्मा भी रो पड़ती. मैंने कुछ और लोगों से बात की और सबने उस टैक्सी ड्राइवर की बात का समर्थन ही किया. मैं मन मसोसकर वापस आ गया क्योंकि रात की वापसी की फ्लाइट थी. लेकिन अगली बार जरूर जाना है, मेरा यह निश्चय दृढ़ हो गया.

अगली बार संयोग से जोहानसबर्ग से कार से ही डरबन जाने का कार्यक्रम बन गया और इस बार दो दिन रुकना भी था. इस बार मैं किसी भी हालत में फ़ीनिक्स आश्रम जाना चाहता था क्योंकि मेरे साथ एक स्थानीय महिला भी थीं और हिन्दुस्तान से आये मेरे बड़े भाई भी थे जिन्हे वहां की हर महत्वपूर्ण जगह देखनी थी. डरबन पहुँच कर हम लोगों ने समुद्र तट का आनंद लिया और नाहा धोकर हम फ़ीनिक्स आश्रम की तरफ निकल पड़े.

चूंकि हम सब उस जगह के लिए नए थे इसलिए गूगल मैप का सहारा लेकर हम निकल गए. लगभग एक घंटे में हम आश्रम के पास तो पहुंच गए लेकिन वहां पहुंचने का कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था. विदेशों में कहीं भी रास्ता पूछने वाला रिवाज नहीं होता और न लोग इसतरह बताते भी हैं इसलिए हमने पहले तो खुद ही खोजने का प्रयास किया लेकिन गूगल मैप भी हमें आश्रम पहुंचा नहीं पा रहा था.

वह पूरा क्षेत्र थोड़ा अविकसित था और वहां पर सारी आबादी अश्वेतों की ही थी. मैंने एक दूकान के सामने गाड़ी रोकी और वहां बैठी एक महिला से आश्रम के बारे में पूछा. थोड़ी देर में उसे समझ में आ गया कि गांधीजी से जुड़ी जगह के बारे में पूछ रहा हूं तो उसने बताया कि उसे जगह पता है. अब उससे रास्ता पूछकर पहुंचना मुझे कठिन लग रहा था इसलिए मैंने उससे विनती की कि क्या वह हमें उस जगह तक पहुंचा देगी तो वह तुरंत तैयार हो गयी.

मेरी इस बातचीत के दौरान बाकी लोग कार में ही बैठे थे इसलिए उनको यह पता नहीं चला कि वह महिला हमारे साथ आश्रम तक चलेगी. मैंने जैसे ही उसे अपनी कार की अगली सीट में बैठने के लिए कहा, मेरे साथ की दूसरी स्थानीय महिला (जो मूलतः भारतीय ही थीं लेकिन दक्षिण अफ्रीका में बस गयी थीं) एकदम चौंक गयीं. उनका इरादा मुझे मना करने का था लेकिन मैंने उस अश्वेत महिला को कार में बैठाया और आश्रम की तरफ चल पड़ा.

कुछ ही मिनट में हम आश्रम के सामने खड़े थे, मैंने उस अश्वेत महिला को बतौर धन्यवाद कुछ जार (वहां की मुद्रा) दिए और हम लोग आश्रम के अंदर आ गए. सामने ही 'इंडियन ओपिनियन' का पुराना बोर्ड दिखाई पड़ा और फिर उस प्रेस के साथ साथ वहां पर मौजूद हर चीज का हमने घंटों मुआयना किया. जब हम बाहर निकले तो ठीक बगल में 'कस्तूरबा स्कूल' दिखा जहां स्थानीय अश्वेत बच्चे पढ़ते थे. उस स्कूल में भी हमने कुछ समय बिताया और फिर वापस डरबन की तरफ एक बेहद खूबसूरत और सुकूनदायी याद लेकर चल पड़े.

रास्ते में हमारे साथ की महिला, जो कि जोहानसबर्ग में शिक्षक थीं, ने कहा कि आपको उस अश्वेत महिला को अपनी गाडी में नहीं बैठाना था, कोई भी दिक्कत हो सकती थी.

मैंने जवाब में यही कहा कि जब हम बापू से जुड़ी जगह जा रहे हैं तो मन में कोई भी भय या अनुचित भावना नहीं रखनी है. आखिर जिस जगह से सत्याग्रह का जन्म हुआ और जहाँ अहिंसा के पुजारी ने वहां के लोगों को सत्य और अहिंसा का पहला पाठ पढ़ाया, वहां जाने में आखिर हिंसा का भय अपने दिमाग में हम कैसे आने दे सकते थे. शायद बापू को भी यह सुनकर अच्छा नहीं लगता, हमें भी नहीं लगा था.

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