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Updated: 11 अप्रिल, 2016 03:31 PM
पीयूष द्विवेदी
पीयूष द्विवेदी
  @piyush.dwiwedi
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विगत दिनों कानून व्यवस्था और विकास की दृष्टि में अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ा माने जाने वाले राज्य बिहार में जहां आधिकारिक रूप से शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया, वहीं उसी से सटे राज्य उत्तर प्रदेश में सबको चौंकाते हुए अखिलेश सरकार ने शराब के दाम लगभग एक चौथाई कम करने का फरमान सुनाया.

शराब के दामों में हुई इस कमी पर प्रदेश के लखनऊ शराब संघ के महामंत्री द्वारा कहा गया है कि राज्य के इतिहास में पहली बार हुआ है कि शराब के दाम कम हो रहे हों. नहीं तो हमेशा सरकारी अधिसूचना शराब के दाम बढ़ने की ही आती है. कहा जा रहा है कि इसकी वजह हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों से बड़े पैमाने पर हो रही अंग्रेजी शराब की तस्करी है. इसको रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने उत्पाद शुल्क में कमी की है, जिससे शराब के दामों में ये कमी आई है. यह पूरी तरह से एक अमान्य और अस्वीकार्य तर्क है.

अगर हरियाणा से शराब की तश्करी बढ़ रही है तो ये कानून व्यवस्था की नाकामी है, जिसपर अंकुश के लिए पुलिस को मुस्तैद करने जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए. न कि शराब के दाम कम कम किए जाने चाहिए. दरअसल वास्तविकता यह है भी नहीं. शराब के दामों में कमी के पीछे की असल बात यह है कि यूपी की सपा सरकार का चुनावी वादा रहा है कि शराब के दाम कम होंगे और अब अगले वर्ष फिर उसे चुनाव में जाना हैं तो जाते-जाते वो अपना यह वादा पूरा करके शराब के लतियों का भी तुष्टिकरण करने की कोशिश कर रही है. लेकिन तुष्टिकरण के अंधे उत्साह में यूपी सरकार यह भूल रही है कि शराब के दामों में हुई इस कमी से यूपी के कितने ऐसे लोग जो दाम अधिक होने की वजह से इच्छा होते हुए भी शराब से बचे हुए होंगे, अब उसकी गिरफ्त में चले जाएंगे.

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हम यह नहीं कह रहे कि शराब के दाम अधिक होने पर शराबी शराब पीना छोड़ देते हैं, लेकिन पैसे के अभाव की मजबूरी में ही सही उन्हें शराब में कमी जरूर करनी पड़ती है. इसीलिए अक्सर शराब के दाम बढ़ाए जाते रहते हैं. लेकिन दाम कम होने पर शराबी उसमे पूरी तरह से डूब ही जाएंगे. इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि एक ताजा वैश्विक अध्ययन के मुताबिक विगत दो दशकों में भारत में शराब की खपत में 55 फीसदी का इजाफा हुआ है. यह आंकड़ा भयावह इसलिए है क्योंकि इस इजाफे में सर्वाधिक भागीदारी देश के युवाओं की है. इस अध्ययन के अंतर्गत विश्व के 40 देशों को रखा गया था, जिनमे कि भारत का तीसरा स्थान रहा.

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इस अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में अधिकाधिक युवक-युवतियां शराब के नशे की तरफ उन्मुख हो रही हैं. अब जब देश में ऐसी स्थिति पैदा हो रही है, ऐसे में देश के यूपी जैसे बड़े राज्य में इस तरह शराब के दाम कम किया जाना अत्यंत चिंताजनक है. गौरतलब है कि शराब का चाहें कम सेवन किया जाय या अधिक, प्रत्येक स्थिति में वो व्यक्ति को सिर्फ और सिर्फ चौतरफा हानि ही पहुंचाती है. वह न केवल व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करती है, वरन उसके सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक ढांचे को भी तहस-नहस कर देती है.

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जो लोग शराब के कम सेवन की बात कहकर बचने की कोशिश करते हैं, उन्हें भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कम सेवन भी कुछ नहीं तो कम से कम उनके स्वास्थ्य को धीमे जहर की तरह तो प्रभावित करता ही है. साथ ही इस कम सेवन से ही कहीं न कहीं अधिक सेवन की लत की शुरुआत होती है. और अब तो शराब के कई और दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं, जैसे कि देश में दिनों दिन बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के लिए भी शराब को एक महत्वपूर्ण कारक माना जा रहा है. स्पष्ट है कि शराब हर तरह से केवल हानिकारक ही है और इसके सेवन को किसी भी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता.

ऐसे में समय की मांग तो यही है कि यूपी सरकार भी बिहार की ही तरह शराब पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाए और सिर्फ यूपी ही क्यों, अन्य राज्यों को भी ऐसे ही कदम उठाने चाहिए. जब बिहार जैसा आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कम संपन्न राज्य शराब से मिलने वाले राजस्व की चिंता छोड़कर उसपर प्रतिबन्ध लगाने की हिम्मत दिखा सकता है तो अन्य संपन्न राज्य क्यों नहीं? सिर्फ बिहार ही क्यों गुजरात, मिजोरम, नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्यों में भी तो आखिर शराब प्रतिबंधित ही है. इन राज्यों की ही तरह देश के अन्य राज्यों को भी शराब पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाना चाहिए. इस मामले में यूपी जैसे राज्यों को सबसे आगे आकर कदम उठाने चाहिए. आखिर उस राजस्व का क्या लाभ जो न केवल जनता की सेहत बल्कि अन्य तमाम नुकसानों की कीमत पर मिलता हो.

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आज जरूरत ये है कि देश को शराब के नशे से मुक्त करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाएं. इस समस्या का एकमात्र ठोस समाधान यही है कि राज्य सरकारें कमाई के लिए शराब की जगह अन्य विकल्पों का सृजन करें. राज्यों की सरकारें चाहें तो एक अध्ययन करवा सकती हैं जिसके तहत यह पता लगाया जाय कि शराब से प्राप्त होने वाले राजस्व और उससे पैदा बिमारियों व अन्य सामजिक समस्याओं से होने वाले नुकसान तथा शराब के नशे की लत से मुक्ति के लिए संचालित जागरूकता अभियानों आदि पर आने वाले व्यय के बीच कितना अंतर है.

इस अध्ययन के बाद संभवतः यह स्पष्ट हो जाएगा कि सरकारें शराब से जितना राजस्व अर्जित करती हैं, उतना या उससे अधिक ही उससे उपजी समस्याओं आदि पर व्यय भी कर देती हैं. इसके बाद इन राज्य सरकारों के लिए शराब पर प्रतिबन्ध लगाना कठिन नहीं रह जाएगा. अब जो भी हो, कुछ न कुछ कदम तो उठाने ही होंगे क्योंकि, समय रहते इस मामले में अगर कुछ नहीं किया गया तो देश की आबादी, खासकर युवा आबादी को शराब का ये नशा ले डूबेगा.

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लेखक

पीयूष द्विवेदी पीयूष द्विवेदी @piyush.dwiwedi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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