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Updated: 12 दिसम्बर, 2019 09:35 PM
नवेद शिकोह
नवेद शिकोह
  @naved.shikoh
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सियासत में इंसानियत नहीं होती और इंसानियत में सियासत नहीं होती. इंसानियत में धर्म के कोई मायने नहीं और सियासत की गाड़ी धार्मिक कटुता के पहियों से चलायी जाती है. देश के दो वाक़ियों ने ये बात साबित कर दी है. दिल्ली की एक फैक्ट्री में लगी आग के हादसे से एक कहानी निकल के आती है जिसपर चर्चा भीनहीं होती और दूसरा मामला भोलेनाथ की नगरी वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़ा है. प्रोफेसर फिरोज खान ने कुछ लोगों के विरोध के चलते संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय से इस्तीफा देकर कला संकाय के संस्कृत विभाग में ज्वाइन कर लिया है. ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं सामान्य बात थी, जिसपर हल्ला मचाकर जबरदस्ती इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की गई. लेकिन जो क़ाबिले ज़िक्र बात होती है, उसका ज्यादा जिक्र भी नहीं होता.

बात शुरु करते हैं दिल्ली की फैक्ट्री में लगी भीषण आग की घटना से. 43 लोगों की तरह आग की लपटों में जान गवाने वाला एक था मुशर्रफ़. जिस वक्त उसके सामने मौत खड़ी थी उस वक्त अपने बचपन के दोस्त मोनू अग्रवाल से मोबाइल फोन पर बात करते मुशर्रफ की आवाज का आडियो वायरल हुआ. सुन कर सबका कलेजा कांप गया. इस कंपन ने तमाम छुपे हुए सच के अहसासों को जगा दिया.

मुशर्रफ का अर्थ सुअवसर प्राप्त होना भी है.दर्शन से फलिभूत होना भी है. जिस वक्त फैक्ट्री में खौफनाक मौत की आग से घिरा मुशर्रफ अपने मित्र मोनू अग्रवाल से मोबाइल फोन से बात कर रहा था उस वक्त उनकी वाणी ने वास्तविक भारत के दर्शन पेश कर दिए. फोन आडियो में वो कहता है- अब बचने का कोई रास्ता नहीं, मौत सामने खड़ी है. खत्म होने वाला हूं.

फिरोज खान को छोड़िये, मोनू अग्रवाल पर मुशर्रफ के भरोसे को देखिये जो लोग बीएचयू के फिरोज खान पर हो हल्ला मचा रहे हैं उन्हें मोनू और मुशर्रफ से कुछ प्रेरणा ज़रूर लेनी चाहिए

मुशर्रफ ने साबित कर दिया कि भारत का आम नागरिक मौत से नहीं डरता बल्कि ऐसे वक्त में भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाता है. जब मौत सामने खड़ी थी उस वक्त भी मुशर्रफ मौत से नहीं डरा, डरा तो बस इस बात से कि अब उसके घर की जिम्मेदारियां कौन संभालेगा? उसके बच्चों का क्या होगा?

उसी वक्त उसने अपने परिवार का ख़्याल रखने के आग्रह के लिए एक शख्स को भी चुन लिया. वो शख्स उसके ख़ानदान का नहीं था. उसके मजहब का भी नहीं था. मरने से चंद मिनट पहले मुशर्रफ को अपनी दुनिया जहान में एक मित्र सबसे विश्वसनीय नज़र आया. ये था मुशर्रफ का हिंदू मित्र मोनू अग्रवाल. दोस्त को फोन करने के कुछ ही क्षणों में मेहनतकश मुशर्रफ की मौत हो गई.और फिर मोनू ने अपने दोस्त मुशर्रफ के परिवार का जीवनभर ख्याल रखने का प्रण लिया. हिन्दू का मुसलमान पर और मुसलमान का हिंदू पर भरोसा ही भारत का दर्शन है.

धर्मनिरपेक्षता, अनेकता में एकता, साम्प्रदायिक सौहार्द, गंगा जमुनि तहज़ीब, अखंडता, समरसता जैसे सतरंगों से सजी भारतीयता का ऐसा सौंदर्य अतीत मे था, वर्तमान मे है. और भविष्य मे भी बना रहेगा.लेकिन हर हक़ीक़त की दलीलों को झुठलाने के लिए एक अपवाद सामने खड़ा रहता है. मुशर्रफ और मोनू अग्रवाल की दोस्ती की मिसाल का किस्सा फिरोज खान पर विवाद से बहुत ज्यादा बड़ा है.

प्रोफेसर फिरोज ख़ान का धर्म विज्ञान संकाय से कला संकाय के संस्कृत विभाग में ज्वाइन करना सामान्य बात है. लेकिन चंद सियासी लोगों ने फिरोज खान प्रकरण को एजेंडा बनाकर इस्तेमाल किया. लेकिन जहां चर्चा होनी चाहिये है वहां सन्नाटा है. मुशर्रफ और मोनू अग्रवाल के बीच भरोसे का जो रिश्ता भारत की अस्ली तस्वीर पेश कर रहा है, इसपर कीजिए और इसपर चर्चा भी खूब कीजिए. भरोसे के रिश्ते के मर्म को समझये.

मुशर्रफ को मरते वक्त तक ये भरोसा रहा कि एक हिंदू उसके परिवार का ख्याल रख सकता है. ये भरोसा सच भी निकला। मोनू अग्रवाल ने कसम खायी है कि वो जीवनभर अपने मित्र मुशर्रफ के परिवार का ख्याल रखेगा.

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लेखक

नवेद शिकोह नवेद शिकोह @naved.shikoh

लेखक पत्रकार हैं

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