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Updated: 03 नवम्बर, 2016 03:05 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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दिवाली हो और पटाखे न फोड़े जाएं, ऐसा कभी नहीं होता. लेकिन ये कहने में अब अफसोस होता है कि हम लोग दीवाली नहीं प्रदूषण मनाते हैं. 'त्योहार तो त्योहार की तरह ही मनाएंगे न' ऐसा कहने वाले लोग शायद ये खबर पढ़कर शर्मिंदगी महसूस करें.

शर्मिंदगी महसूस होनी भी चाहिए क्योंकि इसी भारतवर्ष के 8 गांव ऐसे भी हैं जहां के लोगों ने पिछले 14 सालों से दिवाली पर एक भी पटाखा नहीं फोड़ा. क्यों नहीं फोड़ा, उसकी वजह भी कम हैरान करने वाली नहीं है, ये वजह शहर और गांव में रहने वाले लोगों के दिलों का फर्क भी समझा रही है.

तमिलनाडु के इरोड में 1996 में वेल्लोड बर्ड सेंचुरी बनाई गई थी, जो 200 एकड़ में फैली है. इसके चारों ओर 8 गांव हैं जिनमें करीब 750 परिवार रहते हैं. ये गांववाले वहां रहने वाले हजारों पक्षियों के लिए इतने फिक्रमंद हैं कि 14 सालों से एक भी पटाखा नहीं फोड़ा.

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 करीब 6 हजार पक्षी हैं वेल्लोड बर्ड सैंक्चुरी में

गांववालों का कहना है कि 'अक्टूबर से जनवरी के बीच इस सेंचुरी में हजारों पक्षी आते हैं. हालांकि हम सेंचुरी से दो किलोमीटर दूर रहते हैं फिरभी गांववालों को लगता है कि पटाखों की तेज आवाज से पक्षियों को नुकसान पहुंच सकता है, वो डर जाएंगे और वहां से चले जाएंगे.'

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 इरोड में हर साल बड़ी संख्या में पेलिकन पक्षी ऑस्ट्रेलिया से करीब 6,000 किलोमीटर की यात्रा कर यहां आते हैं और करीब चार महीने तक रहती हैं

दिवाली के त्योहार पर ये लोग नए कपड़े पहनते हैं, अपने परिवार के साथ सेंचुरी घूमने जाते हैं, और पक्षियों और मछलियों को अनाज के दाने खिलाते हैं. दिवाली पर पटाखे नहीं सिर्फ दीये जलाते हैं. एक दो सालों से बच्चे फुलझड़ी और अनार जलाने लगे हैं.

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 रौशनी के त्योहार पर शोर नहीं सिर्फ रौशनी करते हैं ये गांववाले

इन गांवों के लोग पक्षियों के लिए इतने संवेदनशील हैं, एक तरफ हम शहरवाले, जो ऐसी अपीलों को ताक पर रखकर इंसानों तक के बारे में नहीं सोचते. पटाखों की तेज आवाज से जानवर डरें या फिर धुंए से मरीजों को परेशानी हो, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. पर्यावरण के लिए फिक्रमंद कुछ लोग जो दिवाली के पहले से ही पटाखे न जालाने की अपील करते हैं वो कुछ लोगों को संस्कृति के दुशमन नजर आते हैं, सोशल मीडिया पर तो जंग भी छिड़ जाती है कि भई हिंदुओं के त्योहारों पर ही बंदिशें क्यों, वगैरह वगैरह...नतीजा दिवाली के बाद आता है, जब अखबार प्रदूषण लेवल और सांस के मरीजों की परेशानी की खबरों से पटे होते हैं. लेकिन इन्हें क्या?  

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हम ये तो नहीं जानते कि इस सेंचुरी से गांवों की अर्थव्यवस्था पर क्या फर्क पड़ता है, लेकिन पड़ता भी हो, तो भी ये गांववालों तारीफ के काबिल हैं. ये लोग संवेदनशीलता की मिसाल हैं, जिनसे पूरे देश को सबक लेने की जरूरत है. खासकर उन लोगों को भी इनसे प्रेरित होने की जरूरत है जो देश की सांस्कृतिक धरोहरों के आस-पास रहते हैं.

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प्रदूषण की वजह से ताजमहल का सफेद संगमरमर पीला पड़ गया है

ताजमहल जो सिर्फ प्रदूषण की वजह से अपना रंग खो रहा है. आगरा के बाशिंदो को सोचना चाहिए कि ताजमहल जिसे हर साल लाखों पर्यटक देखने आते हैं, वो इनकी कमाई का जरिया हैं, लोगों के आर्थिक विकास का माध्यम हैं, और अगर यही खत्म हो गया तो ? दिल्‍ली की हालत तो और खराब है. हर सांस के साथ धुआं ही भीतर जा रहा है. पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में प्रदूषण स्तर मानक से 544 सूचकांक ऊपर रहा. पर यहां के लोग जो इंसानों और जानवारों तक के बारे में नहीं सोचते, वो इन बेजान इमारतों के बारे में कैसे संवेदशील होंगे.

मामला संवेदनशीलता का नहीं, अब तो जीने-मरने का है. जिंदा रहेंगे तब तो त्‍योहार मनाएंगे.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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