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Updated: 10 दिसम्बर, 2015 12:53 PM
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प्रदूषण नाम का एक खतरा पर्यावरण पर भारी पड़ रहा है. मामला गंभीर है, तभी तो 196 देशों के 40,000 लोग इस समय पैरिस में जुटे हुए हैं. वहां जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हो रहा है. लेकिन सभी देशों की कोई आम सहमति बन जाए, यह जरूरी नहीं. ऐसा होता तो 1995 से लेकर हर साल इस सम्मेलन के आयोजन का औचित्य ही नहीं होता. पर्यावरण जैसे अहम मुद्दे पर विभिन्न देशों के एकमत नहीं हो पाने की वजह है विकास.

विकास और पर्यावरण प्रदूषण
दुनिया भर के अलग-अलग देशों का विकास भी अलग-अलग हुआ. कुछ पहले विकसित हो गए, कुछ बाद में हुए और कुछ विकासशील ही रह गए. जिस पर्यावरण प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन पर आज बवाल है, दरअसल वह इसी विकास क्रम की देन है. इस संबंध में वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट देखने लायक है.

1850 से 2011 तक कार्बन उत्सर्जन आंकड़ा
- 1850 में यूनाइटेड किंग्डम सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक (अमेरिका से 6 गुना ज्यादा) था. दूसरे स्थान पर अमेरिका था.
- 1960 से 2005 तक अमेरिका सबसे बड़ा प्रदूषक देश रहा.
- 2011 में चीन पहले स्थान पर है, जबकि अमेरिका दूसरे पर.
- वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में हिस्सेदारी के तौर पर 1850 से 2011 तक अमेरिका का 21.2%, यूरोपीय यूनियन के देशों का 18.4% जबकि रूस, जापान और कनाडा का 12.9% रहा.
- इन 161 वर्षों में भारत की हिस्सेदारी मात्र 2.8% रही.

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के वैश्विक प्रयास में विकसित देशों को अपने हिस्से की कीमत ईमानदारी से चुकानी चाहिए. जिस सुख-सुविधा की प्राप्ति वे कर चुके हैं, उन चीजों को भोगने का हक अन्य विकासशील देशों को भी है. आपके द्वारा फैलाए गए पर्यावरण प्रदूषण की रट लगाकर सभी देशों पर एकसमान प्रतिबंध लगा देने से विकास का क्रम रुक जाएगा.

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लेखक

चंदन कुमार चंदन कुमार @chandank.journalist

लेखक iChowk.in में पत्रकार हैं.

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