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Updated: 29 फरवरी, 2020 11:52 AM
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US-Taliban peace deal: 29 फरवरी को दुनिया की एक बड़ी ताकत, दुनिया के दरोगा की हैसियत रखने वाला अमेरिका (America), दुनिया के एक छोटे से भूभाग कंधार (Kandhar) के आगे घुटने टेकने जा रहा है. दहशतगर्दी की नर्सरी अफगानिस्तान (Afghanistan) में ऑपरेशन इंड्यूरिंग पीस (Operation Induring Peace) शुरू करने वाला अमेरिका शांति समझौते (US-Taliban Peace Deal) की पहल से पनाह मांग रहा है. यहां से निकल कर जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहता है. 18वीं और 19वीं शताब्दी में दुनिया का सबसे मजबूत ब्रिटिश (British) साम्राज्य कई दफा विशाल सेना लेकर अफगानिस्तान गया मगर टिक नहीं पाया. साम्यवादी शासन के दौरान सोवियत संघ रूस (Russia) को अपनी ताकत पर बहुत गुरूर था मगर अफगानिस्तान में वह चूर चूर हो गया. मौजूदा वक्त में दुनिया का सबसे मजबूत देश अमेरिका है और वहां के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (President Of USA Donald Trump) का दावा हैं कि वह अमेरिका के इतिहास के अब तक के सबसे मजबूत राष्ट्रपति हैं, मगर जब दुनिया का इतिहास लिखा जाएगा तो ट्रंप का नाम अमेरिका के एक कमजोर राष्ट्रपति के रूप में लिखा जाएगा जिसने हिंसक तालिबानियों (Talibans) के आगे घुटने टेके. अफगानिस्तान मूलतः कबायली जनजातियों से बना हुआ देश है जहां पश्तून, ताजिक, उज्बेक ,हाजरा और तुर्क जनजातियां रहती हैं. इनमें से सबसे ज्यादा पश्तून हैं जो कंधार के इलाके में रहते हैं. तालिबान भी मस्जिदों और मदरसों से निकले पश्तून लड़ाकों का संगठन है. ऐसे समय में जब पूरी दुनिया धर्म के हिंसक स्वरूप के खिलाफ और खासकर इस्लाम के रेडिकलाइजेशन के खिलाफ इकट्ठा होने की बात कर रही है तब अमेरिका यहां से अपने अधूरे मिशन को छोड़कर भाग रहा है. भारत जैसे शांतिप्रिय देशों के लिए यह एक बड़ी परेशानी का सबब है. तालिबान घड़ी की सूईयों को अरब के खलीफा काल में ले जाना चाहते हैं.

Taliban, USA, Donald Trump, Afghanistan, India, PM Modi अमेरिका का युद्ध ख़त्म करने के लिए तालिबान से डील करना खुद ट्रम्प को कमजोर बना रहा है

आखिर ट्रंप किसके साथ समझौता करने जा रहे हैं. कंधार की मस्जिद में पला बढ़ा तालिबान का मुखिया एक मौलवी, हबीतुल्ला अखुंदजादा जो दिन में सपने देखता है कि कंधार का राज और इस्लाम का खलीफा शासन पूरी दुनिया पर दोबारा स्थापित होगा. पश्तून बहुल तालिबानी काबुल को पसंद नहीं करते. तालिबान का संस्थापक मुल्लाह उमर अपने पूरे शासनकाल में मात्र दो बार काबुल गया था.

मगर जब यह तय हो गया है कि तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच अमेरिका और पाकिस्तान की दखल पर कतर और सऊदी अरब की बदौलत समझौता होने जा रहा है तो इस समझौते को लेकर अरण्यरोदन के बजाय मौके के रूप में देखने का वक्त है. क्या यह संभव है कि भारत जैसे देश आगे आकर अफगानिस्तान के जख्मों पर मरहम लगाए और कंधार को दुनिया के साथ चलने के लिए राजी करें.

गुलामी से बदतर आजादी

अफगानिस्तान जैसा छोटा देश 1919 में आजाद हो गया मगर भारत को आजादी लेने में 1947 तक का इंतजार करना पड़ा. यहीं हमें गांधी याद आते हैं ,जब कहा जाता है कि देश 1919 में असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ही आजाद हो जाता अगर गांधी देशभर में फैली हिंसा को नहीं रोकते और आंदोलन को वापस नहीं लेते. मगर सोचिए दुनिया के महानतम संत गांधी ने तब क्या कहा था. 'अगर इस तरह की हिंसा पर में आजादी लेनी हो तो हमें गुलामी पसंद है.' इसी दौरान अफगानिस्तान ने अंग्रेजों से लड़ कर आजादी ले ली. पर हिंसा पर आधारित आजादी ने देश में कभी अहिंसक माहौल बनने ही नहीं दिया.

इसके अलावा यह भी कह सकते हैं कि अफगानिस्तान वक्त से पहले आजाद हो गया. दुनिया युद्ध के उन्माद में पागल हुए जा रही थी. हर तरफ साजिशों का माहौल था और इसी युद्ध और साजिश के धुए में अफगानिस्तान की आजादी ने दम तोड़ दिया. हो सकता है कि तालिबान पाकिस्तान की उपज हो मगर दुनिया को यह भी सोचना चाहिए कि तालिबान किन हालातों में अफगानिस्तान में आया और हम उसे क्यों नहीं बदल पाए.

बुजुर्गों ने कहा है कि अपने बच्चों के अलावा अपने पड़ोसियों के बच्चों को भी पढ़ाएं- लिखाएं कि अगर झगड़ा हुआ तो आपका सिर न फोड़े बल्कि थाने जाए. ऐसा नहीं हो सकता कि पड़ोस जलता रहे और हम चैन की नींद सो जाएं. अगर भारत सुकून से जीना चाहता है तो उसे अफगानिस्तान के संस्कार को बदलना होगा.

पश्तून राष्ट्रवाद का उभार

अफगानिस्तान का इतिहास जितना पुराना है समस्या भी उतनी ही पुरानी है. अफगानिस्तान का इतिहास पश्तूनों की अपनी पहचान की छटपटाहट की कहानी है. लंबी लड़ाई के बाद पश्तूनों ने कंधार में अपनी जिंदगी जीना शुरू कर दिया था. 1709 में मिखाईल होतक ने ईरान से आए पर्शिया के सफाविदों को खत्म कर कंधार पर स्थानीय पश्तूनों का राज स्थापित किया. मगर 1747 में एक बार फिर से इरान से आए नादिरशाह ने कंधार पर कब्जा कर लिया.

नादिर शाह की मौत के बाद उसका पश्तून सेनापति अहमद शाह अब्दाली पर्शिया छोड़कर अपने घर कंधार आ गया और यहां पर एक बार फिर से कंधार में पश्तुनों का राज स्थापित किया. दुर्रानी वंश के संस्थापक अहमद शाह अब्दाली को प्यार से अफगानी बाबा कहते हैं. कंधार का बाबा अहमद शाह अब्दाली ने अपने देश के मोहब्बत नाम एक कविता लिखी है जिसमें लिखा है कि मुझे दिल्ली का ताज नहीं भाया, मुझे तो कंधार के ये पत्थर अच्छे लगते हैं.

यह सही भी है जो भी पश्तून राजा हुआ या अमीर बना या हमलावर था उसे कंधार के पहाड़ों की चोटियां और वहां के गलियों के गर्द के गुब्बार ही अच्छे लगे. अफगानिस्तान अपनी जिंदगी जी रहा था और अहमद शाह अब्दाली का वंशज शूजा का अफगानिस्तान पर राज था. तभी हिंद में अंग्रेजों का दखल शुरू हुआ.

ब्रितानियों को चुनौती

शूजा शाह की दोस्ती अंग्रेजों से बढ़ती गई और वह अफगानिस्तान की राजधानी कंधार से काबुल ले आया. अफगानिस्तानियों के साथ समस्या यह है कि वह आपस में कुछ भी करें मगर कोई तीसरा उनके बीच दखल देता है तो वह विद्रोह कर बैठते हैं और यहां भी यही हुआ. शूजा के खिलाफ कंधार में दोस्त मोहम्मद खान ने बगावत कर दी और काबुल की गद्दी पर कब्जा कर लिया. 

गुस्साए अंग्रेजों ने काबुल पर हमला बोल दिया मगर पहले ऐंग्लो- अफगान युद्ध में सेना लेकर गए अंग्रेजों में सिर्फ एक ही अंग्रेज बचकर वापस लौट सका विलियम एलफिंस्टाईन. अंग्रेजों ने इतनी बड़ा नरसंहार पहली बार देखा था. बौखलाए अंग्रेजों ने दोबारा बड़ी फौज भेजी और दोस्त मोहम्मद को कैद कर पहले कोलकाता और मसूरी ले आए.

अंग्रेजों ने वापस शूजा शाह को काबुल की गद्दी सौंप दी. मगर मैंने पहले ही कहा है कि पश्तून कभी गुलाम राजा बर्दाश्त नहीं करते हैं और उन्होंने बाबा अब्दाली के नाम का परवाह किए बिना उनके वारिस वंशज शूजा के खिलाफ जन आंदोलन छेड़ दिया.परेशान अंग्रेजों ने शूजा को हटाकर वापस दोस्त मोहम्मद खान को काबुल की गद्दी सौंप दी.

तब एक बार फिर से अफगानिस्तान का अमीर बना दोस्त मोहम्मद खान ने अंग्रेजों से कहा था तुम हमारे पास क्यों आए हो, हमारे पास तो इन पत्थर की चोटियों और इंसानों के अलावा कुछ भी नहीं है. इस बीच अफगानिस्तान और अंग्रेजों ने 3 एंग्लो -अफगान युद्ध लड़े और कहा जा सकता है कि एक तरह से तीनों ही अनिर्णीत रहे.

ताकतवर देशों का ग्रेट गेम

20 वीं सदी की शुरुआत में अफगानिस्तान का अमीर हबीबुल्लाह खान था. मगर हबीबुल्लाह खान प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की तरफ से शामिल होने के लिए तैयार नहीं था. अंग्रेजों को शक हुआ कि हबीबुल्ला दुश्मन देशों के साथ और खासकर रूस के साथ दोस्ती कर रहा है. तब 1919 में एक ब्रिटिश जासूस मुस्तफा सेंगेर ने शिकार खेलने गए हबीबुल्ला को उसके टेंट में ही मौत के घाट उतार दिया. कई बार मुंह के खाने के बाद अंग्रेज अफ़गानों से सीधी लड़ाई में डरते थे लिहाजा हबीबुल्ला खान के बेटे अमानुल्लाह खान को काबुल की गद्दी पर बैठने में कोई परेशानी पैदा नहीं की.

अमानुल्लाह खान और अंग्रेजो के बीच काफी अच्छे मित्रता हो गई थी. सत्ता में रहने के बाद 7 साल बाद अमानुल्लाह खान ने अफगानिस्तान के अमीर का पद छोड़कर राजा घोषित कर दिया. अमानुल्लाह खान अफगानिस्तान को पूरी तरह से बदलने में लग गया. महिलाओं की बराबरी का अधिकार, आधुनिक शिक्षा और यहां तक की बुर्के पर पाबंदी जैसे फैसले भी लेने शुरू कर दिए. मगर तभी रूस और ब्रिटेन के बीच अफगानिस्तान में चल रहे ग्रेट गेम में हिटलर और मुसोलिनी की भी एंट्री हो गई.

अमानुल्लाह खान की नज़दीकियां इंग्लैंड के अलावा यूरोप के दूसरे देशों से भी बढ़ने लगी थी इसे देखते हुए अंग्रेजों ने उसके निर्वासित प्रधानमंत्री नादिर खान के जरिए अफगानिस्तान में यह अफवाह फैलाना शुरू किया कि अमानुल्लाह खान भारत का दौरा कर बहाई धर्म अपनाने जा रहा है और इस्लाम खतरे में है. 1929 में ताजिक सरदार हबीबुल्लाह कालकानी ने अंग्रेजों की मदद से काबुल पर कब्जा कर लिया और अमानुल्लाह खान को हमेशा के लिए अफगानिस्तान छोड़कर इटली में शरण लेनी पड़ गई. वह कभी लौटकर नहीं आया.

अंग्रेज जानते थे कि पश्तून कभी भी ताजिक को अपना राजा नहीं मानेंगे इसलिए भारत में रह रहे नादिर खान को उन्हें उकसाया और हबीबुल्ला कालकानी का कत्ल करवा कर नादिर खान को काबुल का राजा बना दिया. नादिर खान अफगान के अमीर दोस्त मोहम्मद खान के भाई का बेटा था और अमानुल्लाह खान के सरकार में मंत्री था जिसे अमानुल्लाह खान ने अंग्रेजों का साथ देने के आरोप में अफगानिस्तान से निकाल दिया था और वह भारत में रह रहा था. नादिर खान ने अमानुल्लाह खान के अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने के फैसले को पलटना शुरू कर दिया. कुछ दिन बाद नादिर खान को लेकर भी अंग्रेजो में अविश्वास पैदा हो गया क्योंकि वह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किसी भी देश के साथ नहीं रहना चाहता था.

एक स्कूल के इंस्पेक्शन दौरान अंग्रेजों ने अपने एक एजेंट अब्दुल खालिक के जरिए उसकी हत्या करवा दी. बाद में वही एजेंट अब्दुल खालिक तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल अतातुर्क के हत्या के कोशिशों के दौरान पकड़ा गया. उसके बाद जाहिर शाह ने अफगानिस्तान की सत्ता संभाली तो लगा कि अब सब कुछ ठीक हो गया है. अफगानिस्तान का सबसे ज्यादा स्वर्णिम काल 1933 से 1973 के बीच मोहम्मद जाहिर शाह के समय आया. मोहम्मद जाहिर शाह को आधुनिक अफगानिस्तान का फादर आफ नेशन भी कहते हैं. जाहिर शाह अफगानिस्तान को बदलने के लिए 1964 में नया संविधान भी लाया. शायद अफगानिस्तान के भाग्य में सुकून लिखा ही नहीं था.

अंग्रेज तो चले गए मगर अफगानिस्तान में अब रूस की साम्राज्यवादी शक्तियां बढ़नी शुरू हो गई. अफगानिस्तान में पाकिस्तान के दखल को रोकने के लिए रूस के साथ भारत ने भी हाथ मिला लिए और भारत और रूस ने पश्तून स्वाभिमान के नाम पर अफगानिस्तान में एक नई राजनीतिक मुहिम शुरू कर दी. जाहिर शाह को अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ा. रूस और भारत की मदद से देहरादुन में पढ़ा लिखा दाऊद खान काबुल की गद्दी पर काबिज हो गया.

शुरू -शुरू में दाऊद  खान पाकिस्तान के पश्तून बहुल इलाकों को मिलाकर ग्रेटर अफगानिस्तान के एजेंडे पर काम करता रहा. दाऊद खान रूस की उंगलियों पर नाचता रहा मगर अफगानिस्तानियों की फितरत कभी भी लंबे समय तक गुलामी करने की नहीं रही. बांग्लादेश खोने के बाद पाकिस्तान के अंदर बलूचिस्तान खोने डर पैदा हो गया. इस खौफ की वजह से पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में साजिशों की बिसात बिछाने लगा. पाकिस्तान के पश्तून बाहुल इलाके को आजाद कराने के अपने एजेंडे को छोड़कर दाऊद खान ने रूस को आंखें दिखाना शुरू कर दिया.

इसकी वजह पाकिस्तान और अमेरिका की अफगानिस्तान में दखल अंदाजी भी थीं. जिसने दूसरे पश्तून नेताओं को दाऊद खान के सामने खड़ा करना शुरू कर दिया था. पाकिस्तान का प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अफगानिस्तान को अपने साजिशों का अड्डा बनाना शुरू कर दिया था. दाऊद खान ने अफगानिस्तान में राजा और मालिक की व्यवस्था खत्म कर रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान की स्थापना की थी.

इस बीच रूस ने वहां पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान स्थापना कर कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार प्रसार भी शुरू कर दिया था. साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दाऊद खान ने कम्युनिस्टों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. आखिर में अप्रैल से 1978 में दाऊद खान को हटाने के लिए रूस ने सौर रिवॉल्यूशन शुरू किया.

कम्युनिस्ट अफगानिस्तान

उस वक्त रूस की बनाई पीपुल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान के 3 बड़े साम्यवादी नेता नूर मोहम्मद, हफीजुल्लाह अमीन और बारबरा कारमाल थे. रूस ने अफगानिस्तान पर हमला कर दाऊद खान का कत्ल कर दिया और कम्युनिस्ट नूर मोहम्मद तारकी को काबुल की सत्ता सौंप दी .इस बीच कम्युनिस्ट आपस में झगड़ते रहे. कम्युनिस्टों का दूसरा खेमा हाफिजउल्ला अमीन का था जिसने खुद को अफगान का राष्ट्रपति बना दिया और नूर मोहम्मद तारकी का कत्ल करवा दिया.

तारकी एक तो पश्तून नहीं बल्कि ताजिक था दूसरा और जनता में उसके खिलाफ भारी नाराजगी थी जिसका फायदा अमेरिका और पाकिस्तान ने हाफिजुल्लाह अमीन को आगे कर उठाया. मगर कामरेड हाफिजुल्ला अमीन के इस तरह से तख्तापलट करने से गुस्साए रूस ने एक बार फिर अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और ऑपरेशन स्टॉर्म 333 के नाम पर आमीन का कत्ल कर उसकी जगह दूसरे कम्युनिस्ट बाबराक कारमाल को अफगानिस्तान की सत्ता सौंप दी.

बाबराक के बाद अफगानिस्तान का राष्ट्रपति नजीबुल्लाह अहमदजाई बना. अफगानिस्तान के लोग इन्हें रूस का पिट्ठू मानते थे. इस बीच भारत और रूस से अफगानिस्तान को छीनने के लिए अमेरिका ने भी पाकिस्तान से मिलकर अपना साजिश को जारी रखा. गुलबुदिन हिकमतयार और अहमद शाह मसूद जैसे ताजिक लड़ाकों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग दिया जाने लगा. दूसरी तरफ रशीद दोस्तम को आगे कर उज्बेक लड़ाकों को तैयार किया जाने लगा. अमेरिका और पाकिस्तान बेहद गंदी चालें चल रहे थे .जहां पर अफगानिस्तान में पश्तूनों के खिलाफ तजिकों को और तजिकों के खिलाफ उज्बेक, हजारा को तैयार किया जा रहा था.

अफगान का गृह युद्ध

सोवियत संघ के विघटन के साथ ही इन मुजाहिदीनों ने पाकिस्तान की मदद से काबुल पर हमला बोल दिया. फिर आपस में इनमें काबुल की सत्ता पर काबिज होने के लिए संघर्ष शुरू हो गया. अहमद शाह मसूद के लड़ाकों की वजह से अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में ताजिक नेता बुरहुद्दीन रब्बानी काबुल की गद्दी पर बैठ गया. रूस के विघटन के बाद इस इलाके में अब नया खेल शुरू हो गया था. रब्बानी और हिकमतयार को ईरान के अलग-अलग खेमों से समर्थन मिलना शुरू हो गया और दोस्तम को उज्बेकिस्तान से समर्थन मिलना शुरू हो गया.

पश्तूनों के इसी बेचैनी का फायदा एक बार फिर से अमेरिका और पाकिस्तान ने उठाया और कंधार में ही पश्तूनों की सेना को ट्रेनिंग देकर तालिबान के रूप में इन्होंने लड़ाके पैदा किए जिसने 1994 मे कंधार से अपना संघर्ष शुरू किया और  1996 आते-आते काबुल की गद्दी पर पूरा कब्जा कर लिया. 5 सालों से युद्ध की विभीषिका झेल रहे अफगानिस्तान के लोगों ने परेशान होकर तालिबान का साथ दिया. मगर दुनिया ने तालिबान को रिफॉर्म करने के बजाए इसे मान्यता नहीं देकर अकेले छोड़ दिया.

पाकिस्तान इसे अपना जेबी संगठन के रूप में इस्तेमाल करते हुए इसे अपना गैर आधिकारिक जिहादी फोर्स बना दिया. अब वक्त की जरूरत है कि तालिबान के साथ मिलकर इसके अंदर के नफरत को खत्म कर आगे बढ़ा जाए. इतिहास गवाह है कि 100 सालों से ज्यादा समय से अफगानिस्तान को दुनियाभर ने अपने साजिशों का मोहरा बनाया है. इसलिए वक्त का तकाजा है इनके घाव पर मरहम लगाकर उनके साथ आगे बढ़ा जाए.

तालिबान को भगाने के बाद पश्तूनों के राज के नाम पर हामिद करजई और अशरफ गनी अहमदजई को अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बना दिया गया. ताजिका और उज्बेकों को सत्ता में साझेदारी भी दे दी गई मगर अफगानिस्तान के लोग आज भी इस सरकार को अमेरिका की कठपुतली ही मानते हैं. हमें समझना होगा कि अफगानिस्तान के लोग कठपुतली राजाओं और सरकारों को कभी स्वीकार नहीं किया है.

आगे की राह

इस इलाके के लोगों के मिजाज को समझें तो कहा जा सकता है कि यह लोग अपने ऊपर किसी और का शासन बर्दाश्त नहीं करते हैं. मगर इनकी किस्मत ऐसी रही कि फारस साम्राज्यों से लेकर ऑटोमन साम्राज्य तक के हमलावर हिंद ,चीन और रूस की तरफ युद्ध के लिए निकले तो इनकी धरती से होकर ही गुजारना पड़ा. मगध ने भी जब अपनी जीत के लिए पर्शिया की तरफ कूच किया तो बीच में कंधार भी आया. आधुनिक दुनिया में भी ब्रिटेन और रूस इसी दहशत में जीते थे कि अफगानिस्तान के रास्ते एक दूसरे पर हमला कर सकते हैं. ईसा पूर्व से लेकर तालिबान के राज तक अफगानिस्तानियों को दुनिया ने अपना मोहरा बनाया है और इतिहास गवाह है कि अफगानिओं को सबसे ज्यादा नफरत इसी बात से है.

ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान की समस्या इस्लाम है. ईसा पूर्व जब इस्लाम नहीं था तब भी दुनिया के बड़े-बड़े सम्राज्यों के लिए कंधार बड़ी समस्या थी. इतिहास की उत्पत्ति के साथ ही जमीन का यह टुकड़ा दुनिया के लिए बड़ा सिरदर्द रहा है. इतिहासकार इसे मौत का कुआं भी कहते हैं. यानी जिसने भी कंधार के बारे में सोचा वह जान बचाकर ही भागा.

मगर दुनिया को अफगानिस्तान को जीतने के लिए मगध का रास्ता अपनाना चाहिए. मगध के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने जिस तरह से कंधार का दिल जीता था दुनिया को उसी तरह से कंधार का दिल जीतना होगा. ईसा पूर्व जब मगध पर मौर्यौ का शासन था तब सिकंदर दुनिया जीतने के बाद बहुत दिन तक जिंदा नहीं रहा और सेल्यूकस ने समझौते के तहत मौर्य साम्राज्य को अरब सागर तक का भूभाग दे दिया था. मगध जैसे मजबूत राज्य में भी कंधार आधिपत्य मानने के लिए तैयार नहीं था.

कहते हैं चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उनका बेटा बिंदुसार अपने पुत्र अशोक को मगध के राजगद्दी नहीं देना चाहता था इसलिए उसे कंधार में उठे विद्रोह को कुचलने के लिए भेज दिया. कई जगह यह भी लिखा हुआ है कि अशोक को बिंदुसार ने सेना और हाथी तो बहुत दिये है मगर हथियार नहीं दिए थे. अशोक ने कंधार पहुंचने के बाद वहां हमला करने के बजाए लोगों को अपने साथ लेना शुरू किया और यह समझाना शुरू किया कि वह उन लोगों के खिलाफ लड़ने नहीं आया है बल्कि भ्रष्ट सरदारों और मंत्रियों से उनको मुक्ति दिलाने आया है.

इसके पहले बिंदुसार का पुत्र सुशिमा जिसे बिंदुसार मगध का राजा बनाना चाहता था वह कंधार में पराजय झेलने की डर से मगध लौट चुका था. अशोक के शासन के बाद कंधार बहुत दिनों तक मगध साम्राज्य के अधीन रहा. वहां के लोगों के स्वभाव में इतना परिवर्तन आया कि शक और कुषाण साम्राज्य तक वहां बौद्ध धर्म का बोलबाला रहा. पश्तून एक स्वाभिमानी जाति है. दुनिया भर में एक कहावत मशहूर है कि अफगानियो की दोस्ती और दुश्मनी दोनों अच्छी नहीं होती. दोस्ती करते हैं तो दोस्त के लिए जान देते हैं और नाराज हो जाए तो तुरंत जान ले भी लेते हैं.

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