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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 04 अगस्त, 2021 09:48 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कमजोरी भी कभी न कभी ताकत बनती ही है, लेकिन तभी जब तकलीफें बर्दाश्त के बाहर होने लगें - और तब कमजोरी ही क्रांति के बीज की भूमिका भी निभाती है.

कांग्रेस (Congress) की कमजोरियां भी ऐसी ही तकलीफें देने लगीं हैं जो बर्दाश्त के बाहर हो चली हैं, लेकिन संसद तक ट्रैक्टर से लेकर साइकिल तक की सवारी के बीच आया राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का एक बयान, ऐसे इशारे कर रहा है जैसे कांग्रेस नेतृत्व कमजोरी को ताकत बनाने का मन बनाने लगा हो. बयान महज संकेत भर हो सकता है, लेकिन विपक्षी दलों को मिलता सपोर्ट सबूत जैसा भी लग रहा है.

सही तस्वीर तो तभी मालूम होगी जब कांग्रेस के मुखपत्र संदेश में भी सामना या पांचजन्य की तरह ये सब बताया जाने लगे, लेकिन फिलहाल ये तो लग ही रहा है कि राहुल नाम के साथ साथ अब चेहरे को लेकर भी बैकफुट पर जाने की मन ही मन तैयारी कर चुके हैं - "ना हमारे चेहरे जरूरी हैं, ना हमारे नाम..."

राहुल गांधी ने भाषण दिया और उसी को लेकर जो ट्वीट किया है, उसमें दो शब्दों पर खासा जोर दिखता है - 'चेहरा' और 'नाम'. अगर चेहरे का मतलब राहुल से है और नाम का गांधी हुआ, तो क्या समझा जाये?

क्या ये राहुल गांधी के गैर-गांधी नाम वाले कांग्रेस अध्यक्ष पद की पेशकश भरी डिमांड से आगे की बात है? क्या ये PM उम्मीदवार के लिए गैर-गांधी परिवार के चेहरे को सामने लाने के लिए गांधी परिवार के चेहरे को बैकफुट पर ले जाने की तरफ इशारा है?

क्या ये प्रधानमंत्री (Prime Minister) पद पर राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस की दावेदारी वापस लिये जाने की मंशा की तरफ वास्तव में कोई मजबूत इशारा है?

और क्या राहुल गांधी को सामने आते देख रास्ता बदलने की भावना रखने वाले विपक्षी नेताओं के मधुमक्खी जैसा व्यवहार दिखाने का बड़ा कारण ये भी है?

राहुल गांधी को मिलते विपक्षी सपोर्ट के पीछे कौन?

विपक्षी दलों के जमावड़े से मायावती के साथ साथ अरविंद केजरीवाल के परहेज से जितनी चिंता कांग्रेस को हो रही होगी, केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के लिए उससे कहीं ज्यादा फिक्र की बात होनी चाहिये विपक्षी दलों के कई नेताओं का राहुल गांधी के पीछे पीछे चलने को तैयार हो जाना.

ये ठीक है कि राहुल गांधी के साथ खड़े नेताओं की तस्वीरों में न तो ममता बनर्जी हैं, न शरद पवार या अखिलेश यादव या उद्धव ठाकरे ही हैं - लेकिन महुआ मोइत्रा, सुप्रिया सुले, प्रीति चतुर्वेदी, संजय राउत, कनीमोझी जैसे चेहरे तो नजर आते ही हैं - और आरजेडी नेता मनोज झा और तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी साइकिल की सवारी करते करते संसद तक साथ पहुंचते हैं.

विपक्ष की जो गर्मजोशी अभी राहुल गांधी के साथ नजर आ रही है. ऐसी पहले कभी नहीं नजर आयी है. आयी भी है तो लगातार इतनी टिकाऊ कभी नहीं दिखी है. ये तो ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी ने मंच संभाल लिया है और ममता बनर्जी नेपथ्य में चली गयी हैं. कम से कम उनके फिर से मंच पर आने तक तो ऐसा ही लग रहा है.

लेकिन महुआ मोइत्रा और कल्याण बनर्जी की नुमाइंदगी ये भी बताती है कि ममता बनर्जी ने भी पहली बैठकों के बाद तृणमूल कांग्रेस नेताओं को राहुल गांधी के साथ हो रही विपक्ष की बैठकों में भेजने लगी हैं. शरद पवार भी मुलाकात तो नहीं किये, लेकिन सुप्रिया सुले को तो एनसीपी की तरफ से भेजा ही गया. वैसे भी शरद पवार के लिए केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह से मिलना ज्यादा जरूरी रहा होगा. खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद तो और भी जरूरी हो जाता है.

rahul gandhi, opposition leadersक्या राहुल गांधी विपक्ष के तेवर को देखते हुए प्रधानमंत्री पद को लेकर 'फकीर' बनने की कोशिश कर रहे हैं?

अगर बसपा और आप की तरह टीएमसी नेता भी राहुल गांधी की ब्रेकफास्ट मीटिंग से नदारद होते तो बीजेपी को विपक्ष में दरार नजर आ जाता, लेकिन बड़ी चालाकी से ये मैनेज कर लिया गया लगता है.

क्या ऐसे भी समझ सकते हैं कि पहले ममता बनर्जी के राष्ट्रीय फलक पर तेजी से उभार से परेशान राहुल गांधी अचानक एक्टिव हो गये - और जब देखा कि ममता बनर्जी ने खुद को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी से दूर खड़े होने जैसा प्रोजेक्ट किया तो वो एक बार फिर से ममता बनर्जी को फॉलो करने लगे हैं. क्या इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ममता बनर्जी दिल्ली से दूर जाकर भी विपक्षी बैठकों में दबाव कायम रखे हुए हैं?

ममता बनर्जी की तरफ से राहुल गांधी की बैठकों से दूरी बनाने का काम जारी रहता तो उनका हाल भी वैसा हो सकता है, जैसा कुछ दिन पहले विपक्षी बैठकों को लेकर कांग्रेस नेतृत्व महसूस करने लगा था.

दिल्ली में शरद पवार से ममता बनर्जी की मुलाकात न होना. शरद पवार का लालू यादव के पास जाकर मिलना. ममता बनर्जी का दोनों ही नेताओं से एक ही शहर में रहने के बावजूद सिर्फ फोन पर बात होना - एक खास राजनीतिक हलचल का ट्रेलर तो दिखा ही रहा है, पिक्चर आने भी ज्यादा देर तो लगेगी नहीं.

क्या राहुल गांधी के विपक्षी एकता की कोशिशों के पीछे जमानत पर जेल से छूट कर आये लालू यादव का भी कोई खेल है?

और क्या अब तक ममता बनर्जी के नाम पर विपक्षी दलों को एकजुट करते एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार भी साथ हो गये हैं?

राष्ट्रीय जनता दल के स्थापना दिवस समारोह में लालू प्रसाद यादव को पटना पहुंच कर हिस्सा लेना था, लेकिन सेहत ने इजाजत नहीं दी और दिल्ली से ही वो कार्यकर्ताओं को संबोधित किये. लालू यादव ने अपने भाषण से कार्यकर्ताओं में जोश भरने की कोशिश तो बहुत की, लेकिन खुद उनमें ही जोश नजर नहीं आ रहा था - लेकिन अब लालू यादव का एनर्जी लेवल बढ़ा हुआ लग रहा है. पॉलिटिक्स ऐसा टॉनिक है कि बगैर ड्रिप लगाये भी रगों में तेजी से ऑक्सीजन पहुंचाने लगता है. ऐसा चमत्कार पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव में देखा जा चुका है.

लालू यादव की हाल फिलहाल शरद पवार के अलावा भी कई नेताओं से मुलाकात हुई है और ये दो महत्वपूर्ण नाम हैं - मुलायम सिंह यादव और शरद यादव. समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के साथ चाय पर चर्चा के दौरान यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी मौजूद रहे.

मुलाकात के बाद लालू यादव ने ट्विटर पर लिखा, 'आज देश को पूंजीवाद और सम्प्रदायवाद नहीं बल्कि लोक समता एवं समाजवाद की अत्यंत आवश्यकता है.'

ये चर्चा तो ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे के वक्त ही शुरू हो चुकी थी कि विपक्षी एकजुटता को मजबूत करने के लिए बीजेपी को 2022 के विधानसभा चुनावों में घेरने की कोशिश होगी - और अब सुनने में आया है कि 2024 से पहले लालू प्रसाद यादव बीजेपी के खिलाफ यूपी चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश में लगे हैं - और ऐसा लगता है कि राहुल गांधी की मीटिंग से बीएसपी नेता मायावती इसीलिए दूरी बनाने की कोशिश कर रही हों. आम आदमी पार्टी के अलग रहने की अपनी वजह हो सकती है. हो सकता है लगातार ठुकराये जाने के बाद अरविंद केजरीवाल राहुल गांधी की तरफ से कोई विनम्र-इनविटेशन का इंतजार कर रहे हों. वैसे आप नेता संजय सिंह ने सफाई दी है कि मीटिंग अटेंड करना या न करना महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन जब भी संसद में किसानों या जासूसी का मुद्दा उठेगा वो साथ रहेंगे. ये भी एक राजनीतिक बयान ही है.

मायावती की तरह ही अखिलेश भी बोल चुके हैं कि किसी भी बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे - जबकि प्रियंका गांधी वाड्रा गठबंधन की जरूरत पर जोर दे रही हैं. बिहार चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन को लेकर कुछ आरजेडी नेता भले ही बयानबाजी करते रहे हों और हार के लिए राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का नाम लेकर कोस रहे हों, लेकिन ये तो माना ही गया कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर कांग्रेस की तरफ से मान्यता दिलाने का असर तो हुआ ही.

अगर राहुल गांधी का ट्रैक्टर खुद ड्राइव कर संसद पहुंचना किसानों के सपोर्ट में है, तो क्या साइकिल यात्रा को यूपी में अखिलेश यादव के साथ फिर से गठबंधन के सिंबल के तौर पर भी समझा जा सकता है क्या?

और 2024 को ध्यान में रखते हुए विपक्ष यूपी को विपक्षी एकता के प्रोटोटाइप के तौर आजमाने की कोशिश कर रहा है क्या?

क्या ये कमजोरी को ताकत में तब्दील करने की कवायद है?

ये तो जगजाहिर है कि राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद पर दावा ही विपक्षी खेमे में कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है - और क्या राहुल गांधी उसी कमजोरी को अपनी ताकत बनाने में जुट गये हैं?

और राहुल गांधी जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें ममता बनर्जी की ही तरह खुद को एक साधारण कार्यकर्ता के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश भी कर रहे हैं. राहुल गांधी के हालिया बयान में नाम और चेहरे का जिस तरह से जिक्र है, उसमें तो ऐसी ही समझाइश लगती है. वैसे भी बीजेपी ने चेहरे को युवराज बताकर नामदार बनाम कामदार की राजनीतिक जंग की बहस के साथ ही कांग्रेस मुक्त भारत अभियान को आगे बढ़ाया था.

ये तो बीजेपी के खिलाफ उसी की चाल से काउंटर करने और ताकत बढ़ाने के लिए राहुल गांधी के बैकफुट पर पहुंच कर पलटवार करने की कोशिश लगती है. थोड़ा गौर करने पर ये भी लगता है जैसे बच्चे अगर किसी चीज को चाहते हैं तो रूठ जाते हैं, "जाओ नहीं लेंगे...", फिर आस पास के सारे लोग मिल कर उसे मनाने की कोशिश करते हैं, खूब सिफारिश करते हैं - "मान जाओ - तु्म्ही सब ले लेना."

राहुल गांधी का नाम और चेहरे को लेकर आया बयान बच्चों की हरकतों जैसा इसलिए भी लगता है क्योंकि विपक्षी नेता राहुल गांधी की पुकार सुनते ही दौड़ पड़ रहे हैं - और ऐसा सिर्फ एक बार नहीं हुआ है, बल्कि बार बार हो रहा है.

राहुल गांधी ने नाम और चेहरे को लेकर जो इशारा किया है, लगता है राहुल गांधी के हाव-भाव और बात-व्यवहार से सतुष्ट हो चुका है. विपक्षी खेमे में ऐसा संदेश जाने लगा है कि कांग्रेस नेतृत्व प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी से पीछे हट भी सकता है.

कांग्रेस नेता जिन नाम की बात कर रहे हैं वो बीजेपी का टारगेट प्वाइंट नामदार ही है. राहुल गांधी का अब भी स्टैंड बदला नहीं है कि वो कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर वो नेता चाहते हैं जिसके नाम में गांधी न हो. हालांकि, राहुल गांधी के इस आइडिया से सोनिया गांधी जरा भी इत्तफाक नहीं रखतीं. वरना, सोनिया गांधी को सबसे लंबे समय तक कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष रहने के बाद अंतरिम अध्यक्ष बनने की जरूरत नहीं होती.

चेहरे से आशय बीजेपी के ही टारगेट 'युवराज' से लगता है. चाहे वो राष्ट्रीय राजनीति के युवराज हों या फिर जंगलराज के युवराज. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव को इसी नाम से संबोधित किया था.

राहुल गांधी ने भी अपने बयान में जनता को चेहरा बनाने का संकेत देकर ममता बनर्जी की पहल को भी आगे बढ़ाने की कोशिश की है - अगला चुनाव प्रधानमंत्री मोदी और देश की जनता के बीच होगा.

जनता को चेहरा बनाओ की ये सियासी चाल भी बीजेपी के कैंपेन पर हमला ही है. जैसे प्रधानमंत्री मोदी हर बात पर जनता को क्रेडिट देते रहे हैं - पहले सवा सौ करोड़ और अब 1.32 करोड़ भारतीयों की ताकत अक्सर ही मोदी के भाषणों में सुनने को मिलता है. प्रधानसेवक भी उसी क्रेडिट देने की विनम्र कोशिश होती है - और अब उसी विनम्रता को विपक्ष अपना हथियार बनाने की कोशिश कर रहा है.

राहुल गांधी ने घोषित रूप से प्रधानमंत्री पद पर दावा तो नहीं छोड़ा है, लेकिन अगर बीजेपी के विरोधी राजनीतिक दलों के बीच ऐसा संदेश चला गया है तो विपक्ष की ये अब तक की सबसे बड़ी विजय है - और बीजेपी के लिए हाई अलर्ट!

निश्चित तौर पर ये राहुल गांधी की कमजोरी को ताकत में तब्दील करने की बड़ी कोशिश है - निश्चित तौर पर राहुल गांधी बैकफुट पर जाकर पहले मैन ऑफ द मैच और भी आगे चल कर मैन ऑफ द टूर्नामेंट बनने की कोशिश कर रहे हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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