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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 31 जुलाई, 2021 07:43 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का दौरा वास्तव में सफल रहता तो वो हर महीने दिल्ली में दस्तक देने की बात जरूर कहतीं, न कि हर दूसरे महीने में. लगता है ममता बनर्जी ने जानबूझ कर थोड़ा वक्त लिया है. सोचने-समझने और उसके आधार पर ही आगे बढ़ने या पहल को सही वक्त आने तक होल्ड कर लेने के लिए भी.

अगर दो महीने बाद भी हालात नहीं बदले तो ममता बनर्जी क्या करेंगी? क्या वो भी बाकियों की तरह थक हार कर बैठ जाएंगी?

बाकियों और ममता बनर्जी में एक फर्क तो है ही. ममता बनर्जी ने अब तक कुछ छोटे-मोटे वाकयों को छोड़ दें तो हार नहीं मानी है. वो खुद को फाइटर बताती हैं और वैसा प्रदर्शन भी करती हैं - एक ऐसा फाइटर जो अपनी पार्टी को सत्ता से बेदखल होने से बचाने के लिए खुद की ही सीट दांव पर लगा देता है. ममता बनर्जी नंदीग्राम जरूर हार गयीं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल चुनाव जीत लिया. हालांकि, जरूरी नहीं कि हर लड़ाई का अंजाम एक जैसा ही हो. वैसे भी अगर कोई वास्तव में फाइटर है तो वो हार जीत के लिए थोड़े ही लड़ता है.

ममता बनर्जी के दिल्ली आने के साथ ही बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी खेमे में जो जोश नजर आने लगा था, उनके जाते ही पुरानी स्थिति में वापस पहुंच गया लगता है.

देखना होगा क्या राहुल गांधी (Rahul Gandhi) आगे भी वैसे ही सुपर एक्टिव रहते हैं जैसे कि उन पांच दिनों में देखे गये. संसद से लेकर सड़क तक. पेगासस पर ट्वीट और बयान तो राफेल डील जैसे ही जैसे रूटीन के काम रहे, राहुल गांधी की असली सक्रियता तो विपक्षी दलों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश में दिखी.

कहां ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों के साथ मीटिंग करने का प्रोग्राम बनाया और कहां राहुल गांधी ने वो काम पहले ही करके दिखा दिया. और ममता बनर्जी को खाली हाथ लौटना पड़ा - भारी मन से ही सही ये कहते हुए कि दौरा सफल रहा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से तो मिलीं ही, सोनिया गांधी और विपक्षी दलों के कई नेताओं से भी मिलीं, लेकिन जाते जाते ये भी बता गयीं कि शरद पवार से फोन पर ही बात हो पायी - बहुत बड़ा सवाल छोड़ गयीं कि आखिर शरद पवार से मुलाकात क्यों नहीं हुई? शरद पवार के साथ विपक्षी दलों की जिस मीटिंग की कोलकाता से ही बात हुई थी, वो दिल्ली में पांच दिन तक डेरा डाले रहने के बाद भी क्यों नहीं हो पायी?

ममता बनर्जी ने वैसे तो बीजेपी के 'अच्छे दिन' की जगह 'सच्चे दिन' की बात भी कही थी, लेकिन जाते जाते वो एक स्लोगन भी दे गयीं, 'लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ.'

निश्चित रूप से लोकतंत्र देश की राजनीति और हर नागरिक के लिए जरूरी होता है - और महज लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक मजबूत लोकतंत्र. लोकतंत्र बचाने जैसी अपील या सत्ता पक्ष पर लोकतंत्र की हत्या जैसे इल्जाम विपक्ष की फितरत होती है, लेकिन एक बात तो सही है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश की राजनीति में एक मजबूत विपक्ष का होना जरूरी होता है.

देश में सबसे बड़े राजनीतिक दल के नाम पर कांग्रेस जरूर है, लेकिन आपसी झगड़े और करीब करीब नेतृत्वविहीन जैसी स्थिति हो जाने के कारण, केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. फर्क जरूर पड़ता अगर कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल अलग अलग रास्ते पर नहीं चल रहे होते.

ममता बनर्जी की कोशिश बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की लगती है. हो सकता है बीजेपी नेतृत्व के साथ ममता बनर्जी की अलग राजनीतिक दुश्मनी भी हो. हो सकता है ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी भी दिखायी दे रही हो - ममता बनर्जी जो चाहती हों, जब तक देश की जनता न चाहे, कोई मतलब नहीं है. फिर भी एक हद से ज्यादा मजबूत सत्ता पक्ष पर नजर रखने उस पर मजबूती से सवाल उठाने और बीच बीच में जरूरत पड़ने पर उसे टोकने के लिए एक प्रभावी विपक्ष तो होना ही चाहिये.

यही वजह है कि लगता है, लोकतंत्र की मजबूती के लिए 'कांग्रेस मुक्त भारत' वक्त की जरूरत है - और ऐसा हुए बगैर ममता बनर्जी का 'लोकतंत्र बचाओ...' स्लोगन एक और नारा बन कर रह जाएगा.

कांग्रेस के होते बीजेपी को फिक्र क्योें हो?

कभी कभी तो लगता है जैसे बीजेपी ने 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा ऊपरी मन से दिया है. अंदर से खुद बीजेपी भी नहीं चाहती कि देश की राजनीति से कांग्रेस का सफाया हो जाये.

एक अधूरे कांग्रेस मुक्त भारत में ही बीजेपी का सबसे ज्यादा फायदा है. अगर वास्तव में देश की राजनीति कांग्रेस मुक्त हो गयी तो, सबसे ज्यादा मुसीबत बीजेपी की ही बढ़ेगी. भला कौन बीजेपी के लिए विपक्ष को एकजुट होने से रोकेगा?

पश्चिम बंगाल की हार के बाद से बीजेपी काफी सहमी सी लगती है. अभी तो ऐसा लगता है सारा जोर यूपी चुनाव पर है. चाहे जो भी हो जाये, बीजेपी को लगता है कि हर हाल में यूपी चुनाव जीतना जरूरी है, वरना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह की बात की योगी आदित्यनाथ अवहेलना कर पाते. आखिर अरविंद शर्मा को सरकार की जगह संगठन में शिफ्ट करने जरूरत क्यों पड़ती?

mamata banerjee, rahul gandhiन खेलेंगे, न खेलने देंगे - अब जरा खेल कर दिखाओ तो जानें!

अब बीजेपी नेतृत्व कोई कांग्रेस जैसा तो है नहीं कि किसी को नवजोत सिंह सिद्धू पसंद आ गये तो कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगली पारी ही दांव पर लगा दी. बगैर ये सोचे कि कहीं पंजाब भी मध्य प्रदेश की तरह कांग्रेस मुक्त न हो जाये या फिर राजस्थान की तरह उसी मोड़ पर न पहुंच जाये. पंजाब की सत्ता तो कांग्रेस के लिए ज्यादा अहमियत रखती है, बनिस्बत बीजेपी के यूपी में दिलचस्पी के.

जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी जब एक सूबे की सरकार पसंद नापसंद को लेकर दांव पर लगा सकते हैं, तो उनसे विपक्ष के एकजुट होने में रोड़ा न बन जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है. ममता बनर्जी के खिलाफ राहुल गांधी का असली रूप तो तभी दिख गया था जब वो पश्चिम पंगाल में एकमात्र रैली के लिए पहुंचे थे - चौथे चरण की वोटिंग के बाद रैली करने पहुंचे राहुल गांधी के भाषण में बेरोजगारी जैसे कई मुद्दों पर ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी को एक ही तराजू में तौलते सुना गया था. साफ साफ समझ में आ रहा था कि वो बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज करने के मामले में ममता बनर्जी को खुला मैदान छोड़ने के पक्ष में तो कतई नहीं हैं.

हो सकता है ये भी एक बड़ी वजह हो कि ममता बनर्जी की तरफ से विपक्ष को एकजुट करने की पहल किये जाने के बाद ऐसी गतिविधियों से शुरू में कांग्रेस को दूर रखने का फैसला किया गया. प्रशांत किशोर की शरद पवार से ताबड़तोड़ तीन मुलाकातों के बाद कांग्रेस खेमे में खलबली मची हो और नये नये संकटमोचक के तौर पर उभर रहे कमलनाथ को मुलाकात के लिए शरद पवार के पास भेजा गया हो - और उसी क्रम में प्रशांत किशोर के साथ भी मीटिंग का इरादा हुआ हो.

लेकिन ममता बनर्जी के दिल्ली पहुंचते ही राहुल गांधी की कोशिश विपक्ष को हाईजैक कर लेने जैसी ही दिखी. राहुल गांधी को ये नहीं भूलना चाहिये कि ये सब संभव भी हो पाया ममता बनर्जी की चुनाव जीतने के बाद निखरी हुई छवि के चलते ही. हो सकता है ममता बनर्जी का दिल्ली दौरा राहुल गांधी को प्रेरित और मोटिवेट भी किया हो, लेकिन विपक्ष के साथ इस कदर रणनीति तैयार करते राहुल गांधी को पिछली बार कब देखा गया था.

किसान आंदोलन के बीच वो शरद पवार सहित कुछ विपक्षी नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मिल कर दो बार ज्ञापन देने जरूर गये थे. लेकिन चीन के मुद्दे पर तो मोदी सरकार के खिलाफ उनको शरद पवार का भी साथ नहीं मिला था, उलटे सलाहियत भी मिली. शरद पवार की सलाह भी ऐसी ही रही जैसे बीजेपी नेता राहुल गांधी के बारे में तरह तरह की टिप्पणियां करते रहते हैं.

वैसे विपक्षी एकजुटता की बदौलत सत्ता की राजनीति में राहुल गांधी की कितनी दिलचस्पी है, महाराष्ट्र के केस से ही समझा जा सकता है. महाराष्ट्र में राहुल गांधी ने अपने पसंदीदा नाना पटोले को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया है. नाना पटोले की बातों और हरकतों से तो यही लगता है कि वो चाहते हैं कि कब गठबंधन सरकार गिर जाये और राज्य में मध्यावधि चुनाव हों - नाना पटोले को भरोसा है कि अगर अभी महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव हुए तो कांग्रेस की सरकार बन सकती है. हाल फिलहाल नाना पटोले को लेकर जैसी खबरें आयी हैं और उनके बयानों से तो यही लगता है कि चुनाव होने की स्थिति में बहुमत की बात तो नहीं सोचते, लेकिन इतना जरूर मानते हैं कि कांग्रेस की बारगेन करने की ताकत बढ़ जाएगी और वो खुद मुख्यमंत्री बन जाएंगे.

महाराष्ट्र में अभी सरकार गिर भी जाये तो कोई भी चुनाव में जाना नहीं चाहेगा. शिवसेना भी चुनाव के पक्ष में नहीं होगी - और अगर ऐसा नहीं हो पाया तो बीजेपी किसी के भी साथ सरकार बना लेगी - अब भला बीजेपी कांग्रेस मुक्त महाराष्ट्र भी क्यों चाहेगी?

जो काम ऑपरेशन लोटस के वश का नहीं, उसे तो महाराष्ट्र में राहुल गांधी का एक करीबी नेता करने में जुट गया है - बीजेपी नेतृत्व को भला और क्या चाहिये?

राहुल गांधी की राजनीति को बीजेपी नेता पार्ट टाइम पॉलिटिक्स करार देते हैं, लेकिन ये तो सियासी तफरीह जैसा लगता है. जैसे मन होने पर मनोरंजन के लिए कोई मूवी देखने चला जाता हो. राहुल गांधी को सियासत में भी लगता है दूसरों की बनायी फिल्में देखने में ही ज्यादा मजा आता है. तभी तो मध्य प्रदेश के बाद पंजाब, राजस्थान और थोड़ी थोड़ी छत्तीसगढ़ में भी तैयारी शुरू कर दी गयी है.

न खेलेंगे और न खेलने देंगे!

ममता बनर्जी की कोशिश कोई तीसरा मोर्चा खड़ा करने की तो लगती नहीं. ममता बनर्जी की बातों से तो ऐसा ही लगता है जैसे वो विपक्ष को एकजुट देखना चाहती हों - और अगर उसके बाद उनके मन में भी प्रधानमंत्री बनने की कोई ख्वाहिश है तो बुरा क्या है?

पश्चिम बंगाल में भी कई साल तक विपक्ष की राजनीति के बाद ही तो ममता बनर्जी सत्ता हासिल कर पायी हैं. चुनावों में तो एक बार फिर उनकी राजनीति उसी मोड़ पर पहुंच चुकी थी. सूबे की सत्ता बचा लेने के बाद अब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की राजनीति की तरफ कदम बढ़ा रही हैं.

तीसरे मोर्चे के कभी खड़ा न हो पाने की असली वजह आपसी टकराव ही हुआ करती थी और वही तकरार अब सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ बाकी विपक्षी पार्टियों के एकजुट होने में आड़े आ रही है. तीसरा मोर्चा तो तब समझा जाएगा जब कुछ गठबंधन साथियों के साथ दो बड़े राजनीतिक दलों के अलावा बाकी विपक्षी पार्टियां मिल कर कोई नया गठबंधन बनाने का प्रयास करतीं.

अब तो ऐसा लगता है जैसे विपक्षी दलों की तकरार भी अब नेक्स्ट लेवल पर जा पहुंची हो. पहले की बात करें तो तीसरे मोर्चे में हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता था - और वही विपक्षी दलों की बैठकें बुलाया करता था. एक दो मीटिंग होने के बाद जिनको लगता कि उनका तो कोई फायदा होने से रहा, वे दिलचस्पी लेना छोड़ देते रहे. धीरे धीरे सभी का जोश ठंडा भी हो जाता था.

अब नयी बात ये देखने को मिल रही है कि भले ही कोई खुद प्रधानमंत्री बन पाने की स्थिति नहीं हो, लेकिन उसकी अपने लिए प्रयास करने की जगह इस बात की कोशिश ज्यादा लगती है कि उनके बीच का कोई और न बाजी मार ले. ऐसे में जिस किसी से भी और जैसे भी संभव हो रहा है, आगे कदम बढ़ाने वाले की टांग खींचने की कोशिश शुरू हो जा रही है - ममता बनर्जी भी विपक्षी दलों के इसी रवैये का शिकार हो रही हैं.

ये कहना तो ठीक नहीं हो सकता कि ऐसा करने वाला अकेला कांग्रेस नेतृत्व है क्योंकि बहुत सारे नेताओं के दिमाग में करीब करीब यही भावना घर कर गयी है - हां, बड़ी पार्टी होने के कारण कांग्रेस कम से कम इस मामले में तो नेतृत्व करने ही लगी है.

जो राहुल गांधी राज्यों के विधानसभा चुनावों में प्रचार के लिए आखिर वक्त समय निकाल पाते हैं. कई बार तो बीच में ही चुनाव प्रचार छोड़ कर और किसान आंदोलन के बीच कांग्रेस के स्थापना दिवस समारोह को छोड़ कर छुट्टी पर चले जाते हैं - उन्हीं राहुल गांधी में अचानक कहां से ऐसी जादुई शक्ति आ जाती है कि वो विपक्षी दलों के नेताओं को 24 घंटे के अंतराल पर ही दो बार बुलाकर दो दो बार मीटिंग कर लेते हैं - और ममता बनर्जी आखिर कहां चूक जाती हैं जो वो सबसे अकेले तो मिल लेती हैं, लेकिन उनके तय कार्यक्रम के अनुसार विपक्ष के वे नेता किसी मीटिंग के नाम पर नहीं जुट पाते.

ऐसा क्यों लगने लगा है जैसे इस बार राहुल गांधी ने ममता बनर्जी के साथ भी वैसी ही हरकत की है जैसा प्रधानमंत्री मोदी के साथ संसद में की थी - गले मिल कर आंख मार देने जैसी!

असल बात तो ये है कि बीजेपी के नजरिये से ही सही 'कांग्रेस मुक्त भारत' होने तक ममता बनर्जी का 'लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ' स्लोगन ही बेमतलब है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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