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Updated: 08 अक्टूबर, 2017 03:33 PM
अमित अरोड़ा
अमित अरोड़ा
  @amit.arora.986
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लगभग एक सप्ताह पहले चीन से एक खबर आई जिसने वहां के मुस्लिम समुदाय में हड़कंप मचा दिया. वहां के मुस्लिम समाज को अपनी धार्मिक पुस्तकें, क़ुरान, नमाज़ की चटाई, आदि प्रशासन को सौंपने के लिए आदेश दिया. पुलिस के हवाले से कहा गया की यदि आदेश का पालन नहीं किया गया तो उसके बड़े गंभीर परिणाम होंगे. हालांकि चीनी विदेश मंत्रालय की ओर से इस ख़बर का खंडन किया गया. और मंत्रालय ने ऐसे किसी आदेश की बात को सरासर खारिज़ कर दिया.

यह कोई पहला मामला नहीं है जब चीन से अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के ऊपर धार्मिक प्रतिबंधों की ख़बरें आई हो. इसी साल चीन सरकार ने मुस्लिम समाज पर रमज़ान का त्योहार मानने पर रोक लगा दी थी. मुसलमानों के उपवास पर रोक लगा दी गई और खाने पीने की दुकानों को खुला रखने के आदेश दिए गए. अप्रैल 2017 में चीनी प्रशासन ने लंबी दाढ़ी, सार्वजनिक स्थानों पर बुर्क़ा पहनने, घर में पढ़ाई करने पर रोक लगा थी. 2015 में भी रमज़ान पर इसी तरह के प्रतिबंधों का समाचार आया था. चीन की इन कारवाहियों के पीछे का तर्क शिंगजियांग प्रांत में धार्मिक कट्टरवाद को रोकना है.

chinaअल्पसंख्यकों पर प्रतिबंध चीन में कोई नई बात नहीं है

चीन में पत्रकारिता स्वतंत्र नहीं है. सारी ख़बरें सरकार के माध्यम से ही चीन से बाहर आती है. कौन सी ख़बर सच है और कौन सी झूठ इसका पता लगाना बहुत मुश्किल है. बिना आग के धुआं नज़र नहीं आता है. मुस्लिम समाज पर प्रतिबंध भले ही कम-ज़्यादा हो सकता है, परंतु कोई प्रतिबंध की बात खारिज़ नहीं कर सकता है. यह बड़ी हैरानी की बात है कि मध्य एशिया के इस्लामी देश जो इज़राइल पर मानवाधिकार हनन का आरोप लगाते नहीं थकते वह चीन में मुस्लिम समाज पर लगे प्रतिबंधों पर बिल्कुल चुप हैं. पाकिस्तान और इस्लामी देशों का इससे बड़ा दोहरा मापदंड नहीं हो सकता है. पाकिस्तान हमेशा कश्मीर के मुसलमानों के लिए आंसू बहाने के लिए तैयार रहता है लेकिन खुद अपने ही देश के शिंगजियांग प्रांत के मुसलमान उसके लिए पराए हैं.

इस प्रकरण से यह साफ़ नज़र आता है कि शक्ति और पैसे की ताक़त के सामने, मानवाधिकार और धर्म की आज़ादी की बातें छोटी पड़ जाती हैं.

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अमित अरोड़ा अमित अरोड़ा @amit.arora.986

लेखक पत्रकार हैं और राजनीति की खबरों पर पैनी नजर रखते हैं.

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