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Updated: 30 अगस्त, 2017 09:37 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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पिछले ढाई-तीन महीने से भारत-चीन के बीच युद्ध जैसे हालात बने हुए थे. चीन बार-बार बंदरभभकी दे रहा था. लेकिन इस बार भारत के आत्म विश्वास और हौसलों के आगे धूर्त चीन पस्त हो गया. उसने अपनी रेड आर्मी को वापस बैरक में भेजने का फैसला कर लिया. ये सुखद है. युद्ध के विचार को बौद्ध और गांधी का देश आगे नहीं बढ़ा सकता. लेकिन इस बार भारत आक्रामक मुद्रा में आ गया था. जैसा कि गोस्वामी तुलसी दास कहते हैं, 'समरथ को नहीं दोष गोंसाई. यानी अगर आप बलशाली हैं तो आपके दोष भी नेपथ्य में चले जाते हैं.

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विस्तारवादी चीन

इस ताजा विवाद ने कुछ बिन्दुओं को साफ कर दिया. पहला, चीन घनघोर विस्तारवादी देश है. विश्व समुदाय को चीन की इस हरकत का नोटिस लेना होगा. दूसरा, चीन के बारे में संसार को मालूम चल गया है कि वो अजेय नहीं है. उससे भी लोहा लेने के लिए कम से कम भारत तैयार है. ये नेहरु जी के प्रधानमंत्रित्व काल का भारत नहीं है. नेहरु जी के नेतृत्व में चीन ने भारत को युद्ध में भारी क्षति पहुंचाई थी. भारत के बड़े भू-भाग को कब्जा लिया था. और इस सबके बीच नेहरु जी तीसरी दुनिया के नेता बनने व्यस्त थे. ताजा डोकलम विवाद के दौरान भारत सरकार का रुख साफ था कि वो चीन के दबाव में नहीं आएगा. हां आपसी सहयोग और सीमा पर जारी तनाव को दूर करने के लिए भारत तैयार था.

बराबरी के संबंध

अब साफ है कि भारत चीन से बराबरी के संबंध चाहता है. भारत की ख्वाहिश है कि भारत-चीन आपसी व्यापारिक संबंध और बढ़े. लेकिन अब भारत को चीन की धौंस नामंजूर है. धौंस का जवाब तो वो इस बार चीन के गले में अंगूठा डालकर देने के लिए तैयार था. उसने लद्दाख में घुसपैठ की चेष्टा की थी. जिसे भारतीय फौज के वीर जवानों ने विफल कर दिया. चीन को संदेश मिल गया है कि इस बार उसकी टक्कर 1962 के कमजोर भारत से नहीं थी. अबकी बार उसके दांत खट्टे करके खदेड़ दिया जाता.

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कम हो आयात

चीन में कहावत है कि पड़ोसी कभी प्रेम से नहीं रह सकते. अब इस बात को भारत को भी समझ लेना चाहिए. अब भारत को चीन को उसी औकात कायदे से बता देनी चाहिए. चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, लेकिन उसके साथ भारत का 29 अरब डॉलर का विशाल व्यापार घाटा भी है. अब इस व्यापार घाटे को संतुलित करने की जरूरत है. भारत जिस भी चीज का निर्यात कर सकता है, उसको उसे अपने लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद जगह पर अच्छी से अच्छी कीमत लेकर बेचना चाहिए. साथ ही उसे अपनी जरूरत की चीजें ऐसी हर संभव जगह से मंगानी चाहिए, जहां वे कम से कम कीमत पर उपलब्ध हों. तात्पर्य यह कि भारत को अपेक्षाकृत कम होड़ वाले देशों से व्यापार मुनाफे की स्थिति में रहना चाहिए जबकि अधिक होड़ वाले देशों के साथ व्यापार घाटे को कम करना चाहिए. भारत को बिजली के सामान से लेकर कपड़ों वगैरह का चीन से आयात कम करना होगा.

सरकार भी भारतीय बाजार में गैर जरूरी चीनी सामान की बढ़ती खपत को लेकर गंभीर है. द्विपक्षीय व्यापार नियमों से हटकर घरेलू उत्पादों की बिक्री को प्रभावित करने वाली वस्तुओं का आयात रोकने के कदम सरकार ने उठाने शुरू कर दिए हैं. कुछ समय पहले सरकार ने एक अधिसूचना के तहत विदेशी पटाखों की बाजार में बिक्री को अवैध करार दिया था. भारतीय बाजार में चीनी उत्पादों की बढ़ती घुसपैठ को लेकर कई मंचों से आवाज उठायी जा रही है. इसके साथ ही चीन की ओर से स्टील, केमिकल उत्पादों की डंपिंग को लेकर भी चिंता जताई जा रही है.

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दे पटकनी

ताजा स्थिति यह है कि दोनों देशों के बीच करीब 70 अरब डॉलर से अधिक का द्विपक्षीय व्यापार होता है. इसमें चीन से भारत में आयात की हिस्सेदारी करीब 61 अरब डॉलर की है. इसके विपरीत भारत से चीन को निर्यात महज नौ अरब डॉलर का है. यानी चीन से भारत होने वाला आयात इसके भारत से निर्यात के मुकाबले छह गुना से अधिक है. यह भारत में होने वाले कुल आयात का 15 फीसद है. अब सरकार को इस मोर्चे पर चीन को पटकनी देनी होगी. चीन से होने वाले आयात में कमी करने के उपाय तलाश करने होंगे ताकि उसे चोट पहुंचे. एक बार चीन से आयात घटना चालू हुआ तो वहां पर हड़कंप मच जाएगा. तब चीनी नेतृत्व की आंखें खुलेगी कि मित्र देशों से मित्र धर्म का निर्वाह करना चाहिए.

भारत-चीन व्यापार के स्वरूप को लेकर भी चिंताएं काफी वक्त से व्यक्त की जा रही हैं. भारत मुख्य रूप से लौह अयस्क और अन्य जिंसों का निर्यात करता है, जबकि चीन से वह बनी-बनाई चीजें, खासकर मशीनरी और टेलिकॉम उपकरण मंगाता है. चीन से आयात होने वाली पांच प्रमुख चीजें हैं इलेक्ट्रिकल मशीनरी व उपकरण, मैकेनिकल मशीनरी व उपकरण, प्रोजेक्ट गुड्स,आर्गेनिक केमिकल और लौह व इस्पात. कुछ सालों से बिजली व दूरसंचार उपकरणों के आयात में काफी तेजी आई है.

लगेगी चोट

अब डोकलाम पर विवाद ठंडा पड़ गया है. लेकिन चीन के ताजा रुख से भारत को सबक लेने होंगे. 1962 के युद्ध की कड़वी यादें अब भी भारतीय जनमानस के जेहन में थी कि चीन फिर से हमारे से पंगा ले रहा था. कुछ समय पहले तक लग रहा था कि भारत और चीन ने एक राष्ट्र के रूप में और द्विपक्षीय रिश्ते में लम्बी दूरी तय की है. लेकिन उस सोच को धक्का लगा है. एक बात और, लगता है कि चीनी नेतृत्व को अपने देश की निजी कंपनियों के हितों की कोई परवाह नहीं है. साल 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति भारत आए थे, तो उनके साथ उनके देश की करीब 80 शिखर कंपनियों के प्रतिनिधि भी आए थे, जिनमें विमानन से लेकर मत्स्यपालन क्षेत्र की कंपनियों के सीईओ थे. चीनी नेता की टोली में एयर चाइना, जेडटीई, हुआवेई टेक्नोलॉजी, शांगहाई इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन, चाइना डेवलपमेंट बैंक आदि के प्रतिनिधि शामिल थे. यानी चीन का प्राइवेट सेक्टर भारत से संबंध सुधारना चाहता है व्यापारिक संबंदों को गति देकर. पर वहां की सरकार विस्तारवादी नीति पर ही चल रही है.

क्या लाभ ब्रिक्स का?

दरअसल भारत-चीन सीमा पर जो कुछ हुआ, उस पृष्ठभूमि में ब्रिक्स को बहस में लाना अति आवश्यक है. ब्रिक्स पांच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समूह है. इसमें भारत-चीन दोनों भी हैं. इनके अलावा ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका भी हैं. माना जाता है कि ब्रिक्स देशों में विश्वभर की 43 फीसद आबादी रहती है, जहां विश्व का सकल घरेलू उत्पाद 30 फीसद है और विश्व व्यापार में इसकी 17 फीसद हिस्सेदारी है. ब्रिक्स देश वित्त, व्यापार, स्वास्थ्य, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, शिक्षा, कृषि, संचार, श्रम आदि मसलों पर परस्पर सहयोग का वादा करते हैं. यहां तक तो सब ठीक है. अब जब ब्रिक्स देशों का एक सदस्य कतई गुंडे के अंदाज में साथी ब्रिक्स समूह के देश (भारत) को ललकार रहा है, तो बाकी ब्रिक्स राष्ट्र चुप्पी क्यों साध गए हैं?

brics summitक्या फायदा ब्रिक्स का?

ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका खुलकर क्यों नहीं चीन की गुंडई पर बोले? क्यों इन्हें चीन से डर लगा? ये देश चीन को ब्रिक्स देशों के समूह से बाहर करने की कार्रवाई क्यों नहीं करते? क्या सीमा पर भारत घुसपैठ कर रहा है? सबको मालूम है कि वस्तुस्थिति क्या है? इसके बावजूद ब्रिक्स देश जुबान खोलने को तैयार नहीं हैं. तो फिर इस तरह के समूह का सदस्य बनने का क्या लाभ है? इस तरह के कथित मित्रों से संबंध बनाए रखने से क्या मिलेगा? भारत को इस संबंध में गंभीरता से विचार करना होगा.

रूस, भारत तथा चीन ने सेंट पीटर्सबर्ग में जुलाई 2006 में जी-8 शिखर सम्मेलन के अवसर पर ब्रिक को प्रारम्भ किया गया था. न्यूयॉर्क में सितम्बर 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अवसर पर ब्रिक समूह के विदेश मंत्रियों की प्रथम बैठक के दौरान ब्रिक को औपचारिक रूप प्रदान किया गया. ‘ब्रिक्स’ के प्रथम शिखर सम्मेलन का आयोजन रूस के येकातेरिनबर्ग शहर में 16 जून, 2009 को किया गया. सितम्बर 2010 में न्यूयॉर्क में ब्रिक विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिण अफ्रीका को शामिल करके ब्रिक को ब्रिक्स में विस्तार करने पर सहमति बनी थी. लेकिन अब लगा रहा है कि ब्रिक्स को भी अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना होगा. सिर्फ वार्षिक सम्मेलन में राष्ट्राध्यक्षों के मिलने का क्या लाभ है. उसमें कुछ भारी-भरकम घोषणाएं ही तो होती हैं.

अब भारत के सामने दो रास्ते हैं. पहला, उसे सोचना होगा कि क्या उसे ब्रिक्स समूह में रहना चाहिए? दूसरा, उसे चीन से अपना आयात घटाना ही होगा. तब चीन सीधा हो जाएगा.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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