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Updated: 13 सितम्बर, 2021 12:56 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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11 सितंबर ऐसी तारीख है जो दुनिया भर में कई लोग नही भूल पाते. बीस साल बाद गुजरात के मुख्यमंत्री (Gujarat CM) रहे विजय रूपानी की जिंदगी में ये तारीख ऐसे आयी कि वो भी ताउम्र शायद ही भूल पायें - ये भी करीब करीब वैसा ही रहा जैसे 7 जुलाई 2021 को मोदी कैबिनेट के कई सदस्यों को अचानक ही बहुत बड़ा शॉक लगा. दरअसल, सुबह ही सुबह बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कॉल कर सक्षम अथॉरिटी के पास इस्तीफा भेज देने को बोला था.

विजय रूपानी को किसने फोन किया ये तो अभी सामने नहीं आया है, लेकिन अब ये तो साफ हो ही गया है कि ऐसे फोन आने वाले दिनों में बारी बारी सबके पास आने हैं - हां, अभी कुछ दिन तक यूपी के मुख्यमयंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने दम पर ये खतरा टाल दिया है. आगे की बात और है. फिर तो जैसे जनता योगी आदित्यनाथ कि किस्मत का फैसला करेगी - बाकियों के भी होंगे ही. चाहे वे फोन करने या कराने वाले ही क्यों न हों!

बीजेपी नेतृत्व बदलाव का मन तो पहले से ही बना चुका था. हाल फिलहाल शुरुआत तो बिहार से ही हुई होती, अगर चिराग पासवान ने थोड़ा और चमत्कार दिखा दिया होता तो पहला शिकार नीतीश कुमार ही हुए होते, लेकिन सुशील कुमार मोदी पर भी फैसला लेने में बीजेपी नेतृत्व ने थोड़ी देर कर दी.

बदलाव की बयार को हवा दी है बंगाल में बीजेपी की शिकस्त ने - क्योंकि उसके बाद ही विपक्ष के पंख भी फड़फड़ाने लगे हैं. कहां मोदी-शाह (Modi-Shah Mission 2024) ने ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करने का एक्शन प्लान तैयार किया था और कहां कोलकाता की जीत के साथ ही वो दिल्ली में भी दस्तक देने लगीं. भला हो राहुल गांधी की सक्रियता का जो ममता बनर्जी के दिल्ली में कदम रखने के साथ ही एक्टिव हो गये - और शरद पवार ने लालू यादव से मिलने के बाद ममता की रणनीति में रूकावट डाल दी. बीजेपी के लिए ये बहुत बड़ी राहत वाली बात थी.

लेकिन ऐसा भी नहीं कि ममता बनर्जी दिल्ली से लौट गयीं तो अब भवानीपुर में ही उलझी रहेंगी. अगर बीजेपी भवानीपुर उपचुनाव भी पश्चिम बंगाल विधानसभा की तरह ही लड़ने का मन बना चुकी है तो वो 2024 के लिए रिहर्सल मान कर चल रही होंगी.

अव्वल तो बीजेपी को प्रियंका टिबरेवाल से भी शुभेंदु अधिकारी जैसी ही विशालकाय अपेक्षा होगी, लेकिन सच तो ये भी है कि नंदीग्राम और भवानीपुर में बहुत बड़ा फर्क है - और उससे भी बड़ा फर्क पूरे बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव और अब सिर्फ तीन सीटों पर होने जा रहे चुनाव में हैं.

अभी तो बीजेपी का सबसे ज्यादा फोकस उत्तर प्रदेश पर है. उत्तराखंड में भूल सुधार के साथ दोबारा मोर्चेबंदी हो चुकी है. गुजरात मॉडल में हो रही हलचल से तो हर कोई वाकिफ है ही.

क्या अजीब नहीं लगता कि पंजाब में पूरा स्कोप होने के बावजूद बीजेपी सत्ता पर काबिज होने की जगह सिर्फ कुछ हिंदू बहुल आबादी वाली सीटों तक ही सीमित क्यों रहना चाहती है. ऐसा इसलिए ताकि पहले पंजाब में वो पांव जमाने की जगह हासिल कर सके जो अब तक अकाली दल के साथ रहते संभव नहीं हो पा रहा था. ऊपर से बादलों की राजनीति की कीमत भी बीजेपी को अलग से चुकानी पड़ रही थी. ये काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस के बाद सर्वे में चमकने वाली आम आदमी पार्टी में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर मची कलह के बाद बीजेपी का रास्ता आसान हो गया है - लेकिन चंडीगढ़ अभी बहुत दूर है.

बीजेपी को लोक सभा जिताने वाले मुख्यमंत्री चाहिये!

उत्तर प्रदेश का मामला बीजेपी नेतृत्व के लिए लगभग आउट ऑफ कंट्रोल भले ही हो गया लगता हो - और ये कोई अभी अभी की बात नहीं है. पूरे पांच साल से यही चल रहा है, लेकिन बेफिक्री इस बात को लेकर तो मोदी-शाह को होगी ही कि कुछ भी हो जाये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ताकत कायम रहते मजाल नहीं कि यूपी में सत्ता से बीजेपी को कोई बेदखल कर दे.

वैसे भी यूपी की राजनीति फिलहाल जिस मोड में चल रही है वो तो पूरी तरह बीजेपी को ही सूट करती है. अयोध्या में राम मंदिर बन ही रहा है. बाकी लव जिहाद से लेकर जनसंख्या नियंत्रण और एनकाउंटर स्टाइल में लॉ एंड ऑर्डर कंट्रोल में होने का दावा किया ही जा रहा है, स्थिति तनावपूर्ण भले ही हो. दावा करने वाला भी कोई मामूली आदमी नहीं है, देश के गृह मंत्री अमित शाह है - और कोरोना काल में जिस तरह से योगी आदित्यनाथ ने काम किया उसके तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक कायल हो गये हैं. ऐसे कायल कि अब तो बीजेपी उपाध्यक्ष अरविंद शर्मा का वाराणसी मॉडल कहीं दिखायी तक नहीं देता.

narendra modi, amit shahकोई ये न समझे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथी बीजेपी नेता राज्यों में धड़ाधड़ मुख्यमंत्री बदलते जा रहे हैं - असल बात तो ये है कि वो 2024 के आम चुनाव के हिसाब से नौजवान और ऊर्जावान टीम तैयार कर रहे हैं.

योगी आदित्यनाथ वैसे भी लखनऊ से गोरखपुर की बजाय मन ही मन दिल्ली की तैयारी कर रहे हैं. अब इससे अच्छी बात क्या होगी कि लोगों को दिल्ली जाने के लिए बाहर से लखनऊ आना पड़ता है - और योगी आदित्यनाथ तो पहले से ही जमे हुए हैं.

भले ही विपक्षी खेमे के नेता राहुल गांधी, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की नजर 2024 के आम चुनाव के रास्ते प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी हो, लेकिन अब तक जो भी सर्वे आये हैं, ये सारे नेता नरेंद्र मोदी के बहुत बाद भी योगी आदित्यनाथ से पिछड़े हुए ही नजर आते हैं.

बहुत भारी मन से ही सही लेकिन अब तो सबको समझ आ जाना चाहिये कि मोदी-शाह बीजेपी के शासन वाले हर राज्य में चीफ मिनिस्टर के लिए जो अनिवार्य अर्हताएं सुनिश्चित करते जा रहे हैं वो करीब करीब योगी मॉडल ही है.

अब बीजेपी को मिले बहुमत वाले देश के किसी भी सूबे में वैसा ही नेता चाहिये जो योगी मॉडल के पैमाने पर खरा उतरता हो. हाव-भाव और चाल-ढाल से हिंदुत्व, राष्ट्रवाद कदम कदम पर छलकता और झलकता नजर आता हो. न खाता, न बही जो वो कही वही सही - जैसी आम धारणा आस पास बना कर रखे हुए हो.

अगर जातिवादी राजनीति करने का भी आरोप लगता हो तो लगे, चलेगा - लेकिन विजय रूपानी जैसा तो नहीं चलने वाला जिसने कास्ट न्यूट्रल छवि बना रखी हो. वोट बैंक तक कनेक्शन तो जातीय समीकरणों के जरिये ही बन पाते हैं. अगर ऐसा न होता तो जातीय जनगणना को लेकर इतना शोर क्यों मचता?

कुल मिलाकर राज्यों के भी बीजेपी नेताओं के लिए नेतृत्व का मैसेज ये है कि उसे विधानसभा चुनाव जिताने वाला नहीं, बल्कि लोक सभा चुनाव में जीत सुनिश्चित कराने वाला मुख्यमंत्री ही चाहिये.

अब ये विजय रूपानी की बदकिस्मती कहें या कुछ और, लेकिन बात एक ये भी है कि ये सब पश्चिम बंगाल की चुनावी हार का ही नतीजा है. बीजेपी अलर्ट मोड में आ गयी है, लिहाजा पूरे घर को चुस्त-दुरूस्त कर रही है. हर तरफ नौजवानों का बोलबाला और जलवा कायम करने की तैयारी है - कम से कम ऐसे नेता जो 2024 में बूढ़े न लगें, मोर्चा तो वही संभालेंगे.

दरअसल, बंगाल की हार 2015 के बिहार की हार से भी बड़ा जख्म है. बिहार का बदला तो मोदी-शाह ने महागठबंधन तोड़ कर नीतीश कुमार को एनडीए में लाते ही ले लिया था, लेकिन बंगाल की ताजा हार का असर ये है कि वो मुसीबत बन कर दिल्ली तक दस्तक देने लगी है.

बीजेपी को असली चिंता अब 2024 के आम चुनाव की सताने लगी है. जहां तक विधानसभा चुनावों का सवाल है वो तो मोदी-शाह मिल कर ही जीत लेंगे. अब हर राज्य पश्चिम बंगाल जैसा और हर जगह ममता बनर्जी जैसी नेता भी तो नहीं हैं.

बीजेपी नेतृत्व को राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने की चिंता बिलकुल नहीं लगती है. मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो किसी को भी बिठा दिया जाये तो संभाल ही लेगा. करना भी क्या है? चुनावों में टिकट देने और सरकार बनाने की सूरत में मंत्रियों तक के नामों पर मुहर भी दिल्ली में ही ही लगती है - और जब मंत्रियों के विभागों का बंटवारा भी मुख्यमंत्री को आलाकमान से पूछ कर ही करनी पड़े तो काम ही क्या है. मध्य प्रदेश और कर्नाटक से लेकर हर बीजेपी शासित राज्य में हाल तो एक जैसा ही है.

जो स्थिति है उसमें मुख्यमंत्री के पास रूटीन के कामों को लेकर कोई टेंशन नहीं होने वाली क्योंकि उसके जिम्मे अब एक ही काम बचता है - आने वाले आम चुनाव में अपने राज्य की सभी नहीं तो एक दो छोड़ कर बाकी सीटें बीजेपी की झोली में भर दे.

अब किसी भी राज्य में जहां बीजेपी का शासन होगा - मुख्यमंत्री पद के लिए पैरामीटर यही रहने वाला है. हां, ये बात योगी आदित्यनाथ पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी की बाकियों पर. वरना, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान मिसाल हैं. जब तक वसुंधरा राजे चुनाव जीतती रहीं, मोदी-शाह कौन होते हैं वाले अंदाज में किसी बात की परवाह तक नहीं करनी पड़ती रही, लेकिन एक चुनाव हारते ही दिल्ली आकर हर दरबार में हाजिरी लगानी पड़ती है और बारी बारी सबको सफाई भी देनी पड़ती है. अब तो ये भी सुनने में आया है कि छत्तीसगढ़ के लिए भी बीजेपी कोई ओबीसी चेहरा ढूंढ रही है. मतलब, साफ है - चावल वाले बाबा डॉक्टर रमन सिंह के भी अच्छे दिन हमेशा के लिए जाने वाले हैं.

नर्सरी भी तैयार हो रही है, लेकिन दिल्ली में

जैसे नये नये आइएएस और आइपीएस अफसरों को ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्कशॉप अटेंड करनी पड़ती है - बिलकुल वैसे ही बीजेपी के नये नेताओं की नर्सरी दिल्ली में तैयार की जा रही है.

विजय रूपानी भी तो यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि बीजेपी में हमेशा नये नेतृत्व को आगे बढ़ने का मौका दिया जाता है. और 2014 से ही साफ है कि मार्गदर्शक मंडल के लिए भी सूची पहले से ही तैयार कर ली जाती है.

अभी अभी जो मोदी कैबिनेट में फेरबदल हुई है वो भी तो ऐसी ही नजीर पेश कर रही है. रविशंकर प्रसाद के खिलाफ ट्विटर विवाद तो बस बहाना बना. जैसे कोरोना काल में मीडिया को हैंडल न कर पाना प्रकाश जावड़ेकर के लिए. या चुनावों में बेकार साबित होने वाले बाबुल सुप्रियो के लिए.

मोदी कैबिनेट में अब ऐसे नेताओं को काम दिया गया है जो कामकाज शुरू से सीखें. कामकाज की शैली वो सीखें - और जब राज्यों में जाकर अकेले काम करने का मौका मिले तो तब वे वही करें जो नेतृत्व चाहता है.

तब तो डबल इंजिन का मतलब भी समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी - जो भी नेतृत्व के साथ काम करके सीखेगा वो तो अकेले भी वैसा ही करेगा जैसा नेतृत्व चाहता है.

रोजाना और साथ में काम करने का एक फायदा ये भी होता है कि नेतृत्व को सभी के कमजोर नस का भी पता चल जाता है - और वो जीवन भर काम आता है. जब भी कोई इधर उधर देखे या करने की सोचे, तत्काल प्रभाव से नकेल कसने में आसानी हो.

उम्र का लिहाज तो सबसे ज्यादा मोदी-शाह को कर्नाटक में करना पड़ा. जो बीएस येदियुरप्पा अभी ही 75 पार चल रहे थे वो 2024 तक तो 80 भी पार कर जाते - सबसे बड़ी वजह यही है कि छंटनी की शुरुआत कर्नाटक से हुई है. उत्तराखंड में हुई डबल छंटनी को थोड़ा अलग रख कर देखना होगा, लेकिन वहां भी पुष्कर सिंह धामी को मौका मिलने की बड़ी वजह उनकी उम्र ही है. अभी वो 45 साल के हैं. योगी आदित्यनाथ से भी चार साल छोटे है.

मुद्दे की बात ये है कि मोदी-शाह को अब राज्यों में युवाओं के नेतृत्व की दरकार है जो लोक सभा की मैक्सिमम सीटें दिला सकें - ताकि मोदी के लिए 2024 में केंद्र की सत्ता में वापसी तो सुनिश्चित हो ही - शाह के लिए बीजेपी के गोल्डन पीरियड का सपना भी पूरा हो सके.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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