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Updated: 02 दिसम्बर, 2021 05:04 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) हिसाब से तो दो पैरों से दिल्ली जीतने निकल पड़ी हैं. हड़बड़ी भी काफी है, लिहाजा गड़बड़ी भी हो जा रही है. शरद पवार दिल्ली में रह कर भी नहीं मिलते तो मुंबई का प्रोग्राम बना लेती हैं. राजनीतिक क्षत्रपों का सपोर्ट हासिल करने के साथ साथ बंगाल से बाहर सिविल सोसायटी से भी कनेक्ट होने की कोशिश कर रही हैं - जैसा की जल्दबाजी वाले काम में होता ही है, गलतियां भी हो जाती हैं.

राष्ट्रगान को लेकर ममता बनर्जी घिरने लगी हैं. मुंबई में प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ममता बनर्जी ने बैठे बैठे राष्ट्रगान शुरू किया. दो लाइन गाने के बाद उठ कर खड़ी भी हुईं और आगे की दो लाइनें भी गाया, लेकिन फिर बीच में ही छोड़ कर मुद्दे पर आ गयीं, जिसके लिए प्रेस कांफ्रेंस बुलायी थी.

चुनावों के दौरान ममता बनर्जी के चंडी पाठ को लेकर बीजेपी ने घेर लिया था और अब एक बीजेपी नेता की ही तरफ से पुलिस में शिकायत भी दर्ज करायी गयी है - आरोप है कि ममता बनर्जी ने राष्ट्रगान का अपमान किया है.

बेशक ममता बनर्जी ने बैठ कर राष्ट्रगान शुरू कर दिया था और जैसे ही एहसास हुआ उठ कर खड़ी भी हो गयीं, गलती से मिस्टेक वाले दायरे में रख कर इसे इग्नोर भी किया जा सकता था, लेकिन जब चार लाइने गा चुकीं तो बीच में ही क्यों छोड़ दिया - सवाल ये है और यही पूछा भी जा रहा है.

हमेशा की ही तरह बीजेपी के आईटी सेल चीफ अमित मालवीय ने ममता बनर्जी का वीडियो शेयर कर ट्विटर पर घेरने की कोशिश की है, लिखते हैं - 'हमारा राष्ट्रगान हमारी राष्ट्रीय पहचान की सबसे शक्तिशाली अभिव्यक्तियों में से एक है... क्या भारत के विपक्ष के लिए देशभक्ति और गौरव मायने नहीं रखता?

राष्ट्रगान और जय श्रीराम के नारे में थोड़ा फर्क है - बीजेपी के विरोध में ममता बनर्जी भले ही जय श्रीराम को पॉलिटिकल स्लोगन बता कर कितना ही विरोध क्यों न करें, लेकिन राष्ट्रगान का मामला पूरी तरह अलग हो जाता है.

विपक्ष का नेता (Opposition Leader) बनने की होड़ में ममता बनर्जी कांग्रेस को तो भला बुरा कह ही रही हैं, यूपीए का तो अस्तित्व ही खत्म होने का दावा करने लगी हैं - और राहुल गांधी पर तो बीजेपी नेताओं की तरह ही टूट पड़ी हैं.

क्या ये सब करके ममता बनर्जी विपक्षी खेमे में कांग्रेस (Congress) को किनारे कर एक सर्वमान्य लीडर बन सकती हैं?

ये सवाल इसलिए भी बनता है कि ये लड़ाई विपक्ष का नेता बनने की नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की हो रही है. राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस का रिजर्वेशन ममता बनर्जी की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन रहा है - तभी तो ममता बनर्जी ने कांग्रेस मुक्त विपक्ष को अपना मिशन बना लिया है.

1. गठबंधन के लिए मिसफिट

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पहले ममता बनर्जी देश में बनी दो गठबंधन सरकारों में कैबिनेट का हिस्सा रह चुकी हैं - पहले अटल बिहारी वाजपेयी और फिर मनमोहन सिंह सरकार में. खास बात ये रही कि दोनों ही सरकारों में रहने से लेकर हटने तक, ममता बनर्जी का व्यवहार करीब करीब एक जैसा ही रहा.

वाजपेयी शासन के दौरान ममता बनर्जी भी तीन देवियों में से एक रहीं जो सरकार की नाक में दम किये रहती रहीं. ममता बनर्जी की ही तरह तब बीएसपी नेता मायावती और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जे. जयललिता का नाम लिया जाता रहा.

mamata banerjee, sonia gandhi, rahul gandhiकांग्रेस को पीछे छोड़ने के लिए ममता बनर्जी को अभी मीलों आगे चलना होगा!

गठबंधन सरकारों में ममता बनर्जी जितने भी दिन रहीं उनकी तुनकमिजाजी हर किसी के लिए मुसीबत बनी रही, तभी तो वाजपेयी के साथ साथ मनमोहन सिंह भी गठबंधन की सरकार चलाने को बेहद मुश्किल काम बता चुके हैं.

ममता बनर्जी जिस रास्ते पर चल रही हैं उसमें भी एक गठबंधन सरकार का ही स्केच नजर आता है, लेकिन ममता बनर्जी की गठबंधन सरकार वाजपेयी और मनमोहन के मुकाबले जनता पार्टी सरकार के ज्यादा करीब समझ में आती है - और देश उसका भी हाल देख ही चुका है.

ममता बनर्जी के बाकी बयान भले ही राजनीतिक हुआ करते हों, लेकिन जब वो खुद को फाइटर बताती हैं तो लगता है जैसे मन की बात कह रही हों, लेकिन गठबंधन की सरकार चलाने के लिए फाइटर नहीं बल्कि एक लीडर की जरूरत होती है - और जैसे ऐसे मामलों में वाजपेयी के बड़े दिल दिखाने की बात होती है, मनमोहन सिंह की मजबूरी भी मिसाल बन कर सामने आ जाती है.

गठबंधन सरकार चलाने के लिए जो खूबियां होनी चाहिये, ममता बनर्जी में अब तक तो नहीं देखने को मिला है - क्या ममता बनर्जी कभी वाजपेयी जैसा लार्जर हार्ट और मनमोहन जैसी खामोशी का प्रदर्शन कर पाएंगी?

ममता बनर्जी के पास गठबंधन सरकार में काम करने का अनुभव भी टीम मेंबर जैसा ही रहा है. ऐसा टीम मेंबर जो सिर्फ शोर मचाता है, नखरे दिखाता है - और हर वक्त साथ छोड़ने के लिए धमकाता रहता है.

क्या ममता बनर्जी नेतृत्व की भूमिका में आने पर ऐसी चीजों से निबट सकेंगी भी - क्योंकि उनके सामने तो जो भी होगा उनके ही पुराने तेवर में पेश आएगा. हो सकता है कोई ऐसा भी हो जो बीस पड़ता हो.

क्या ममता बनर्जी मुस्लिम तुष्टिकरण का इल्जाम झेलने वाली कांग्रेस के शिवसेना के साथ सरकार चलाने के लिए राजी होने जैसा लचीलापन कभी दिखा पाएंगी?

2. सॉफ्ट-सेक्युलर छवि

हिंदुत्व पर बहस के बीच देश में जो मौजूदा राजनीतिक माहौल है उसमें तो कांग्रेस के लिए भी खड़ा होना मुश्किल हो गया है. मुस्लिम तुष्टिकरण, पाकिस्तान परस्त होने के साथ साथ बीजेपी कांग्रेस के अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में भी रोड़े लगाने के आरोप लगाती रही है - और ये देखना भी दिलचस्प है कि लोग मान भी जाते हैं. कांग्रेस का अस्तित्व के लिए संघर्ष सबसे बड़ा सबूत है.

ममता बनर्जी की छवि अब तक एंटी-हिंदू ही रही है - और रही सही कसर तृणमूल कांग्रेस नेता ने 'जय श्रीराम' के नारे लगातार विरोध करके पूरी कर दी है.

कांग्रेस तो अब तक मुस्लिम पार्टी के ठप्पे से जूझ ही रही है और उबर पाने का कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा है - ममता बनर्जी को तो बीजेपी आसानी से निशाना बना लेगी, फिर ममता बनर्जी क्या करेंगी?

पश्चिम बंगाल की हार की समीक्षा के दौरान बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को भी मानना पड़ा था कि मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के चलते ही बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. लेकिन, ममता को ये एडवांटेज बंगाल तक ही सीमित है. तब क्या होगा जब बीजेपी नेतृत्व ममता बनर्जी को श्मशान और कब्रिस्तान की बहस में राष्ट्रीय स्तर पर फंसा देगा?

3. गैर-हिंदीभाषी होना

2016 से पहले ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी ही सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी, लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी से खुद की तुलना करने लगीं. 2019 के चुनाव में मोदी को एक्सपाइरी डेट पीएम बताने की कोई और वजह तो नहीं लगती - तभी तो हिंदी सीखने की भी कोशिश शुरू कर दी थी. पास में डिक्शनरी रखने का मकसद भी तो वही था.

ममता के लिए 2021 का बंगाल विधानसभा चुनाव काफी मुश्किल हो चुका था क्योंकि भरोसेमंद साथी भी साथ छोड़ चुके थे. जीत तो जोश बढ़ा ही देती है, ममता बनर्जी के साथ भी ऐसा ही है - लेकिन गैर-हिंदीभाषी होना ममता के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है.

ममता बनर्जी यूपी चुनाव में अखिलेश यादव के कहने पर मदद की पेशकश की है - अब अखिलेश यादव के लिए बांग्ला बोल कर तो वो वोट मांग नहीं पाएंगी? संसद के भीतर या अन्य प्लेटफॉर्म पर सब चल जाता है, लेकिन चुनावी रैलियों में लोगों से कनेक्ट होने के लिए उनकी समझ के हिसाब से संवाद स्थापित करना जरूरी होता है.

ये तो राहुल गांधी भी मानते हैं की भाषण देने के मामले वो मोदी से मुकाबला नहीं कर सकते, जबकि राहुल गांधी आराम से हिंदी में बात करते हैं. ये बात अलग है कि दक्षिण भारत में वो अंग्रेजी की वजह से ज्यादा सहज लगते हैं और शायद इसी वजह से उत्तर और दक्षिण के लोगों की राजनीति समझ की तुलना कर विवादों में फंस भी जाते हैं.

अगर बंगाल में बीजेपी नेतृत्व को गुजरात के लोग बता कर शोर मचाएंगी और बाहरी बोल कर भगाने की बात करेंगी - फिर तो बाहर भी बीजेपी के लोग ममता बनर्जी को बंगाली बता कर हमला करेंगे ही.

अगर हिंदी सीखने को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा कोई मिसाल हैं - और हालात के भरोसे ही प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल सकती है तो क्या पता कल ममता बनर्जी की जगह बाबुल सुप्रियो या मुकुल रॉय ही विपक्ष की एक्सीडेंटल पसंद बन जायें!

4. कांग्रेस जैसा संगठन न होना

ये तो पहले भी था, लेकिन अब तो चुनाव बूथ लेवल मैनेजमेंट से जीते जाने लगे हैं. बीजेपी इसीलिए ज्यादातर चुनावों में जीत हासिल करती है. पन्ना प्रमुख के पास भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है. - बीजेपी के बूथ मैनेजमेंट के आगे जब कांग्रेस नहीं टिक पा रही हो, फिर टीएमसी कैसे खड़ी हो पाएगी?

ये ठीक है कि ममता बनर्जी ने अलग अलग राज्यों में स्थानीय नेताओं को हायर करना शुरू कर दिया है. मेघालय अपवाद है, लेकिन जो नेता टीएमसी से जुड़ रहे हैं उनका कद भले ठीक ठाक हो या वे किसी पहचान के मोहताज न हों, लेकिन कोई भी जनाधार वाला नेता नहीं है - तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन करने वाले नेता अगर वास्तव में सक्षम होते तो सत्ताधारी पार्टी के साथ डील करते ममता बनर्जी के साथ नहीं.

कांग्रेस की तरह राष्ट्रीय स्तर पर खड़े होने के लिए ममता बनर्जी को बंगाल जैसा ही संगठन हर राज्य में खड़ा करना होगा - वैसे तो बंगाल में भी ममता बनर्जी ने दूसरे दलों से ही शिकार करके ही संगठन खड़ा किया है, लेकिन देश भर में ऐसा करना संभव नहीं लगता. अगर कोई संभावना भी बनती है तो वो 2024 तक तो असंभव ही है.

5. क्षेत्रीयता से नहीं उबर पायीं

लगातार तीन बार पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी भी मोदी की तरह दिल्ली के लिए क्वालिफाइंग लेवल पार कर चुकी हैं - और राहुल गांधी को इस मामले में तो पछाड़ ही सकती हैं कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव नहीं है.

अगर विपक्षी खेमे में कांग्रेस से प्रतियोगिता में ममता बनर्जी की ऐसी कोई दलील है कि मोदी भी तो 2014 से पहले मुख्यमंत्री ही रहे - लेकिन ध्यान रहे मोदी शुरू से ही एक राष्ट्रीय पार्टी के नेता रहे हैं - निश्चित रूप से ममता बनर्जी ने कांग्रेस से ही राजनीति शुरू की, लेकिन बाद में वो सिर्फ तृणमूल कांग्रेस की नेता बन कर रह गयीं.

राहुल गांधी कम से कम इस मामले में ममता बनर्जी से बीस समझे जाएंगे कि वो एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं और इसे परिवारवाद की राजनीति की तोहमत लगा कर झुठलाया भी नहीं जा सकता है. बीजेपी भले ही ऐसा कर ले, लेकिन अभिषेक बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में दखल देखने के बाद तो ममता बनर्जी को अपनी बातों पर यकीन दिलाने के लिए कोई और ही नुस्खा खोजना पड़ेगा - ममता बनर्जी के चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर के लिए भी ये अग्नि परीक्षा से कम नहीं है.

बेशक मोदी अहमदाबाद से 2014 में दिल्ली पहली बार पहुंचे और नये भी थे, उनकी क्षेत्रीय एडमिनिस्ट्रेटर की छवि थी - लेकिन ममता बनर्जी तो राष्ट्रीय राजनीति में होते हुए भी क्षेत्रीय नेता ही बनी रहीं. ममता बनर्जी पर तो क्षेत्रीयता ऐसे हावी रही है जैसे वो बंगाल की ही रेल मंत्री भी रही हों.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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