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Updated: 17 नवम्बर, 2017 11:34 AM
मनीष जैसल
मनीष जैसल
  @jaisal123
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बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड     बच्चों को लेकर फ़िल्में तो बहुत बनी पर उनमें वो नहीं दिखा जो दिखना चाहिए था

गौरतलब है कि देश में बच्चों के नाम पर ही सिनेमा में राजनीति को विस्तार दिया जाता रहा है. फिल्मों से बच्चो का नैतिक स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाने संबंधी बयान बाजी आम तौर पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा की जाती रहीं है. एक समय तो ऐसा था की सिनेमा को लेकर कलकत्ता के स्टीफ़ेंशन कॉलेज द्वारा कैम्पेनिंग तक की गयी. जिसमें 13000 के करीब महिलाओं ने फिल्म विधा पर रोक लगाने की मांग की थी. प्रधानमंत्री को भेजे गए ज्ञापन में इन महिलाओं ने फिल्मों की वजह से बच्चों के परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने की बात को उल्लिखित किया था. बहरहाल आज की स्थिति हम सभी के सामने है. आज फिल्में हमारी जरूरत का हिस्सा बन चुकी हैं.

आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिये कोशिश की जाती रही है कि समाज को कुछ नया दिया जा सके. इसी क्रम में बच्चों पर केन्द्रित सिनेमा की शुरुआत की गयी. जिससे बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ, और उनके अंतःमन, स्थिति को पर्दे पर दिखाया जा सके. 1955 में बच्चों के लिए उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का निर्माण और उन्हे स्वस्थ मनोरंजन मिल सके इसके लिए बाल चलचित्र समिति की स्थापना भी की गयी. फिल्म प्रभाग की तर्ज पर इस समिति का काम बच्चों पर आधारित फिल्मों का निर्माण, वितरण, और प्रदर्शन करना था.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड     ये एक बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि बच्चों के सिनेमा से कोई खास परिणाम नहीं निकला

इसी क्रम में 1979 से यह समिति हर दो वर्ष में बाल फिल्म महोत्सव का आयोजन भी करती आ रही है. जिनमें देश और दुनिया के बच्चों पर केन्द्रित फिल्मों का प्रदर्शन होता है. हालांकि आज तक के इतिहास में 'बाल चित्र समिति' एक भी ऐसी कोई फिल्म नहीं बना पाया जिसे बाल सिनेमा का इतिहास गौरान्वित हो सके. वहीं आजादी के बाद से चिर परिचित और ख्याति प्राप्त निर्देशकों ने भी जो फिल्में बनाई उनमें बच्चों को साथ लेकर चलने के बजाए मोटे-मोटे संदेश ठूसे जाते रहे.

बाल फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं बल्कि बच्चों से जुड़ी समस्याओं की ओर दर्शकों का ध्यान भी आकर्षित करती हैं. कनाडा के बाल फिल्म विशेषज्ञ राबर्ट राय बाल फिल्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं 'वह फिल्म जिसमें बच्चा खुद को एकात्म महसूस करे हमें अपने विचारों को लादने के बजाए बच्चे को स्वतः अपनी राय कायम करने हेतु स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए’. हिन्दी सिनेमा में उपदेशात्मक बाल सिनेमा की बाढ़ है. ऊपर बताई गयी अधिकतर फिल्मों में बच्चो को उपदेश देते हुए ही कहानी बुनी गयी. बच्चा एकांत में होते हुए भी वह उपदेश ही सुने यह निर्देशक की कोशिश रहती हैं.

एक उदाहरण से समझें तो बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी. भारत में सिनेमा के शुरुआती वर्षों में दादा साहब फाल्के ने शायद ही कोई कथा, भागवत, पुराण का कोई कैरेक्टर अपनी बनाई फिल्मों में छोड़ा हो. आज भारत में बाल सिनेमा के साथ भी स्थिति वही है. गणेश, हनुमान, घटोत्कक्ष, भीम, आदि जैसे मिथक चरित्रों के जरिये बच्चों को उपदेश देने का काम किया जा रहा है. कार्टून, 3डी, 4डी, 5डी का पूरा इस्तेमाल इन्हीं कैरेक्टर पर बनी फिल्मों पर देखने को मिलता है. यह कहीं न कहीं बच्चों पर थोपा गया संदेश ही है.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड     मिस्टर इंडिया भी बच्चों पर बनी एक अच्छी फिल्म थी

जिसे बच्चे न चाहते हुए भी देखते हैं. क्यों हम बच्चों पर बनी फिल्मों के इतिहास में चिंड्रेन ऑफ हैवेन जैसी एक भी फिल्म नहीं बना पाए. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, गुलजार और यश चोपड़ा, करण जौहर, सुभाष घई, जैसे संवेदनशील फ़िल्मकारों ने भी इस ओर अपना बेस्ट नहीं दिया. इतिहास को खंगालते हुए हम यह जरूर पाएंगे कि बच्चों के लिए लिखने और फिल्म बनाने वाले सत्यजित राय ने कुछ बेहतर फिल्में बनाने की कोशिश की थी. जिनमें Goopy Gyne Bagha Byne, Joi Baba Felunath, Sonar Kella कैसी प्रमुख बंगाली फिल्में हैं. हालांकि उस दौर में फिल्म समीक्षकों ने उनके इस सार्थक काम को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया.

बच्चों पर बनी फिल्मों को लेकर अगर वाकई भारतीय दृष्टिकोण से खँगालने की कोशिश की जाए तो गुलजार की परिचय' और 'किताब' में बच्चों का सकारात्मक चित्रण हमें दिखता है. फिल्म परिचय एक ऐसे परिवार और बच्चों की कहानी पेश करती है जहां बच्चों की मनः स्थिति को बिना परखे, बिना घुले-मिले उनके करीब नहीं जाया जा सकता. ऐसा न करने पर खुद परिवार के सदस्य उन्हें समझ पाने में असमर्थ दिखते हैं. फिल्म दिखाती है की उन बच्चों के मनोविज्ञान को समझे बगैर उन्हें समझना मुश्किल है और कैसे शिक्षक रवि (जितेंद्र) उन बच्चो के हाव भाव, जरूरतों को समझ उनको पढ़ा पाने में सफल होता है. जबकि इसके पूर्व कई शिक्षक बच्चों द्वारा भगाये जा चुके होते है.

फिल्म परिवार और दर्शकों को जरूरी सीख देती है. आज जो प्ले स्कूल आदि का कॉसेप्ट हमारे समाने दिखता है वह काफी पहले ही इसी सिनेमा ने पेश कर दिया था.1972 में आई इस फिल्म की कहानी राज कुमार मैत्रा के बंगाली उपन्यास 'रंगीन उत्तरैण' पर आधारित थी. वहीं 1977 में गुलजार के ही निर्देशन में आई 'किताब' बच्चों की मनोवृति को समझाती एक उम्दा फिल्म मानी जाती है. बंगाली लेखक समरेश बसु की कहानी पथिक पर बनी यह फिल्म बच्चे (बावला) के मन में उठते सवालों का सिनेमाई चित्रण पेश करती है.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड     फिल्म किताब में भी एक अहम मसले को उठाया गया था

एक बच्चा अपनी मॉडल बहन के लिए स्कूल में कैसे कैसे ताने सुनता है, उसके बावजूद वह समाज को समझ रहा है. देख रहा है. साथ ही फिल्म के कई दृश्यों में अन्य बच्चो और बावला के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए मनोस्थिति को दिखाया जाना काबिले तारीफ है. बच्चों पर केन्द्रित सिनेमा की बात करते हुए इन दोनों का जिक्र सौ फीसदी जरूरी हो जाता है. आल्हद चित्र के बैनर तले बनी फिल्म नन्हें मुन्ने की कहानी दत्ता धर्माधिकारी ने लिखी थी. फिल्म में एक लड़की अनाथ होने के बाद अपने तीन भाइयों का विषम परिस्थितियों में किस प्रकार पालन पोषण करती है इसका खूबसूरत चित्रण है.

वहीं फिल्म मुन्ना एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसकी विधवा माँ ने आत्महत्या कर ली है और भटकता रहता है. इसके अलावा मुन्ना की मासूमियत के चलते कई अन्य लोगों के जीवन में आते बदलाव फिल्म में दिखाया जाना काबिले गौर है. हालांकि फिल्म फ्लॉप रही. बाद में 1966 में चेतन आनद इसी कथा को लेकर फिल्म आखिरी खत बनाई. फिल्म जागृति के गीत आज भी बच्चों की जुबान पर आम तौर से सुने जा सकते हैं, जिसमें कवि प्रदीप कहते है कि हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना बच्चों संभाल के.

1954 में बनी एक और फिल्म बाल मन की अंतः स्थिति को स्पष्ट करती है वह है बूट पॉलिश. ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई से संघर्ष करके अपना रास्ता खुद बनाने की कहानी इसमें दिखाई गयी है. एक अनाथ लड़के की संघर्ष कथा के जरिये श्रम की महत्ता का प्रतिपादन, एक सन्यासी और अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध को पर्दे पर उकेरती वी शांताराम की फिल्म तूफान और दीया एक सराहनीय फिल्म है. 1960 में बच्चों पर केन्द्रित एक और फिल्म मासूम का निर्देशक सत्येन बॉस ने किया. फिल्म की पटकथा लेखिका रूबी सेन को सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला. फिल्म बच्चों को केंद्र में रखते हुए कई सवालो को उठती हुई चलती है. तथा गीत संगीत के जरिये भी यह फिल्म बाल मन को प्रभावित करती है. नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए इसी फिल्म का गीत था.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड     ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाई को दर्शाती फिल्म बूट पॉलिश

1962 में महबूब खान की फिल्म सन ऑफ इंडिया भले ही फ्लॉप फिल्म रही हो लेकिन इसके गीत नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ आज भी बच्चो की जुबान से सुना जा सकता है. सत्येन बोस के निर्देशन में  1964 में बनी फिल्म दोस्ती दो किशोरवय अंधे और लंगड़े दोस्तों की कहानी है. फिल्म में दोस्ती और उनके त्याग का खूबसूरत चित्रण दिखाया गया है. 1983 में बनी शेखर कपूर निर्देशित फिल्म मासूम ने विवाहेत्तर सम्बन्धों से पैदा हुए बच्चे के कारण पारिवारिक संघर्ष को पेश कर एक नया दृष्टिकोण पेश किया. फिल्म में बाल कलाकार जुगल हंसराज का अभिनय आज भी चर्चा का विषय बना रहता है. गोपी देसाई निर्देशित 1992 में बनी फिल्म मुझसे दोस्ती करोगे का विषय एक बच्चे के सपनों की दुनिया के साहसिक कारनामों का चित्रण करती है. इसी आधारशिला पर अन्नु कपूर ने 1994 में अभय बनाई थी.

2005 में विशाल भारद्वाज ने अपनी फेवरेट काव्यात्मक शैली में निष्ठुरता और संवेदनात्मक मूल्यों को परिभाषित करती फिल्म ब्लू अंबरेला बनाई. बच्चों को लेकर उनका बनाया यह सिनेमा कई कारणों से आज भी यादगार है. बी आर चोपड़ा की भूतनाथ और भूतनाथ रिटर्न खोती जा रही संयुक्त परिवार की अवधारणा और भारतीय परिवार के बिखर रहे मूल्यों के प्रति सचेत करने का काम करती है. विशाल भारद्वाज की मकड़ी ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ा. 2007 में आमिर खान बच्चो की कहानी लेकर ही निर्देशन में उतरे. उनकी फिल्म तारे जमीन पर में उपेक्षित और मंद बुद्धि बच्चे की भूमिका में दरशील सफारी ने वाकई बढ़िया काम किया था.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड डिस्लैक्सिया से पीड़ित एक बच्चे की कहानी दर्शाती एक बेहद संवेदनशील फिल्म

डिस्लैक्सिया से पीड़ित एक बच्चे के मनोविज्ञान को बड़ी गंभीरता और सजगता से यह फिल्म पेश करती है. आर बाल्कि निर्देशित फिल्मब 'पा' औरो नाम के एक बच्चेि की कहानी है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है. जिस कारण वह बूढ़ा होने लगता है. बीमारी के बावजूद औरो सामान्य बच्चों से बुद्धिमान और खुशहाल रहता है. उसकी अपनी दुनिया है जहां वह काफी खुश रहता है. फिल्म बड़ो को नसीहत देती हुई आगे बढ़ती है. 'तहान' और 'रामचंद पाकिस्तानी' जैसी फिल्मों की शुरुआत भले ही बच्चों पर केन्द्रित सिनेमा के तौर पर हुई लेकिन पर्दे पर आते आते उसमें से बच्चे नदारद दिखें.

बच्चों की पढ़ाई पर आधारित 'नन्हा जैसमलेर' एक अच्छी फिल्म मानी जा सकती है. अपना आसमान, मिस्टर इंडिया आदि फिल्में भले ही ईरानी फिल्म चिल्ड्रेन ऑफ हैवेन जैसी भले ही न हो बावजूद इसके इन फिल्मों के जरिये मानवीय सम्बन्धों, सहयोग और बाल समस्या को विविधता और खूबसूरती से पेश किया गया है. इरफान कमाल की फिल्म थैंक्स माँ में मुंबई की झुग्गी झोपड़ी के आवारा और अनाथ बच्चों के माध्यम से अधूरे बचपन को पेश करनी की कोशिश की गयी है. समाज और बच्चों के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ को फिल्म पाठशाला के जरिये पेश किया गया.

प्रियदर्शन की फिल्म बम बम भोले चिंड्रेन ऑफ हैवेन की कहानी को आधार बना कर आगे बढ़ती हुई हमें दिखती है. संजय लीला भंसाली की फिल्म ब्लैक को इसी श्रेणी में रखें तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं. एक छोटी अंधी लड़की और उसके शिक्षक की कहानी में हमें एक सुखद एहसास देखने को मिलता है. पीयूष झा की सिकंदर में कश्मीर के तनाव और दर्द को बच्चों के सहारे देखने की कोशिश की गयी है. फिल्म दिखाती है कि कैसे फुटबाल खेलने का सपना लिए एक बच्चे को जब रास्ते में पड़ी बंदूक मिल जाती है तो उसकी ज़िंदगी में सब कुछ अचानक से बदलने लगता है.

बच्चे, सिनेमा, समाज, बॉलीवुड  स्टैनली का डिब्बा में एक मामूली से छात्र के संघर्षों को दर्शाया गया है

9 वर्ष का स्टैनली अपने लंच बॉक्स के लिए जो संघर्ष करता है वह हम अमोल गुप्ते की फिल्म स्टैनली का डिब्बा में देख सकते हैं. अध्यापक बाबुराम की जिद है कि अगर वह डिब्बा नहीं लाया तो उसे स्कूल में नहीं घुसने दिया जाएगा. स्टैनली के साथ साथ दर्शक भी उसकी इस यात्रा में काफी कड़े अनुभव का सामना कर सकते हैं. गरीब राजस्थानी लड़का देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का प्रशंसक है और उनसे मिलने के वह कितने प्रयत्न करता है. यही फिल्म आई एम कलाम का केंद्र बिंदु है. याद रहे यहां छोटू गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करने वाले परिवार से आता है. ऐसे में उसका अब्दुल कलाम से मिलने का सपना कितना बड़ा है उसकी पारिवारिक स्थिति से पता लगता है.

हम देख रहे है कि आज़ादी के बाद से ही बाल फिल्मों का निर्माण किया जाने लगा था. अलग अलग दशक में अच्छी फिल्में बनती भी रही हैं. इसके बावजूद जिनती भी फिल्मों की चर्चा यहाँ की गयी उनकी तुलना वैश्विक सिनेमा से करें तो हम जीरों पर ही रहेंगे. 1956 में अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म रेड बैलून और 1995 में इरानी फ़िल्मकार निर्देशित व्हाइट बैलून ही अभी हिन्दी सिनेमा के लिए मील का पत्थर है.

बीच के कुछ सालों में हमने मकड़ी, तारे जमीन पर, पा, चिल्लर पार्टी, स्टैनली का डिब्बा जैसी फिल्मों से इस ओर अच्छा प्रयास करना शुरू किया था लेकिन अब वह भी उम्मीद खत्म होती दिख रही है. क्योंकि बाल फिल्मों के नाम पर अब कार्टून फिल्में, एनीमेशन फ़िल्में जिनके विषय पुराणों के धार्मिक चरित्रों पर ही आधारीत होते हैं वह दिखाये जाने शुरू हुए हैं. बच्चो के सर्वांगीण विकास और उनमें बदलाव के लिए बच्चो के सिनेमा के विषय और कथ्य में बदलाव की आज जरूरत है. हीन भावना और अवसाद गृस्त बच्चा कम से कम फिल्में देखकर सशक्त महसूस करें ऐसी फिल्मों की आज जरूरत महसूस की जा रही है.

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लेखक

मनीष जैसल मनीष जैसल @jaisal123

लेखक सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी कर रहे हैं, और समसामयिक मुद्दों के अलावा सिनेमा पर लिखते हैं.

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