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Updated: 07 मार्च, 2022 06:25 PM
सरिता निर्झरा
सरिता निर्झरा
  @sarita.shukla.37
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मार्च माह का पहला सप्ताह. विमेंस डे का खुमार धीरे धीरे उरूज़ पर होगा. सभी तरह के ब्रांड अपने आपको स्त्री के इर्दगिर्द घूमता मानेंगे. पूरी दुनिया तेरी, तू ही आदि तू ही अंत और जाने कैसे कैसे प्रपंच. लेडी बॉस से ले कर सुपर वूमेन 'मैं कर सकती' से ले कर हैशटैग shecancarryboth तक! जी ये वाला हैशटैग नया है. प्रेगा न्यूज़ के सौजन्य से. प्रेगनेंसी की न्यूज घर बैठे पता चल जाये ये सहूलियत आज़ादी देने वाले ब्रांड ने इस वीमेंस डे को मातृत्व और उससे जुड़े सब कुछ सम्भाल लेने के भार को महिमामंडित करने का बीड़ा उठाया है.

पसन्द किया जा रहा है ये कॉन्सेप्ट

ज़ाहिर सी बात है पसन्द आ रहा है सबको ये एड. क्यों न हो आखिर मातृत्व की बात है.,मां को स्त्री की सबसे सुंदर छवि करार दिया गया है. मां को देवतातुल्य बना कर उसमे में स्त्री के 'स्व ' के अंश को निकाल लिया. अब वो केवल मां है. मां जो अपने बच्चे के लिए सब कुछ त्याग सकती है. जो अपने अस्तित्व से कहीं ऊपर अपने बच्चे का भविष्य और परिवार को रखती है.

Womens Day, Women, Girls, Mother, Kid, Pregnant, Advertisement,  Society, Satire, Work ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज औरत बाजार से ज्यादा कुछ नहीं है

यदि उसे अपने लिए किसी मकाम की ज़रूरत है तो वो उस मकाम को फेहरिस्त में सबसे पीछे रखते हुए सब कुछ संभाल लेती है. shecancarryboth का मर्म यही है जहां सायंतनी बोस हैं सीमा रस्तोगी एस एस पी झांसी और एक दुधमुहें बच्चे की मां भी. रोटी हुई बच्ची गिरती दूध की बोतल संभालती, अपनी नई पहचान को में जगमगाती ये कहती हुई की, 'बस नज़रिये की बात है'.

यकीनन नज़रिया ही है

इस एड में एक सफाई कर्मचारी, पेशे से एक मॉडल और एक 'पहनावे से कॉर्पोरेट' करियर में स्त्री पात्र भी है. जहां कॉर्पोरेट में किसी ऊंची पोस्ट में दिखायी स्त्री के माथे के बल को उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर दिखा दिया गया. ये वो स्त्री है जो मातृत्व और शायद विवाह को परे कर करियर बना रही है. उतनी ऊंचाई पर अकेली औरत भला मुस्कराती हुई ज़िन्दगी से भरपूर कैसे हो?

तो उसके माथे पर बल हो चेहरा भी कुछ रुखाई लिए हुए और हां वेस्टर्न कपड़ों में ज़रूर हो. आखिर हर कामकाजी औरत भारतीय संस्कृति से विलग ही तो है! मॉडल अपने करियर में बच्चे के आने से हैरान परेशान और सफाई कर्मचारी हँसते हुए कह जाती है, 'इधर दस घंटे की नौकरी और फिर मां होने की नौकरी'! WHO की खास माओं के लिए मेंटल हेल्थ गाइड के अनुसार तीन में से एक अथवा 10 में से एक मां मानसिक परेशानियों से झूझती है जिसका कारण यही है shecancarryboth का प्रेशर.

सुपर वूमेन बनने और साबित करने का भार. हाल में कुछ रियल टाइम सुपर वूमेन के किस्से भी मीडिया में आये थे की कैसे एक नन्हे से बच्चे को ले कर ऑफिस अटेंड कर रही है वो. किन्तु क्या वाकई ये एक स्वस्थ समाज का परिचय है? कहते है, 'इट टेक्स विलेज टू रेज़ अ चाइल्ड', और हम तो मातापिता में से भी मां को ज़िमेदारी दे कर अलग कर रहे है.

मुद्दा उसकी हिम्मत का नहीं

ये मुद्दा मां की हिम्मत का नहीं, मुद्दा है मां को अकेला छोड़ना और जिंदगी से झूझने वाली को वीरांगना का तमगा दे कर इसे ही आसानी से स्वीकार्य बनाना. स्त्री गांव में शहर में हो गृहणी हो या कामकाजी, उस पर सब कुछ संभाल लेने का प्रेशर होता है. अधिकांश पुरुष अपने लिए भोजन नहीं पका सकते, घर की सफाई नहीं आती, घर के मैनेजेमेंट का उन्हें कोई ज्ञान नहीं. पुरुष बस पुरुष मात्र बन कर जीता है.

ऐसे में स्त्री पुरुष को संभालने के साथ घर संभालती हुई दोहरे बोझ के साथ जीती है और सामजिक सत्ता फिर भी पुरुष के पास ही होती है!

इस मेंटल कंडीशनिंग पर वारी जाऊं!

स्त्री की खास छवि में हम ऐसे फंसे है की 2022 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को हम स्त्री की ढ्र्ढ्ता हिम्मत को मां की ममता में बांधने पर मजबूर हो गए. मां भी ऐसी वैसी नहीं. साड़ी पहने, माथे पर बिंदी, गले में साफ साफ दिखता मंगलसूत्र और वो है जिले की एसएसपी! मजाल है बेबी बैग उठाने के लिए भी मेड का सहारा ले! सब खुद ही खुदहि किये जाती हैं! हाय न हुई मुई हमारी बहू ऐसी! वो तो इस मॉडल जैसी है है न सिंदूर न चूड़ी न साड़ी. हद ही गई!

कंज़्यूमेरिज़्म की जय हो

मार्च में होली से पहले ही ढोल नगाड़े बजते हैं. दुकाने बाजार घर भीतर सब गुलाबी. स्त्रियों को पसंद है न गुलाबी! किसने तय किया कब तय किया इस विवाद को छोड़ कर स्त्रियां भी अब आगे बढ़ गयी है. ये त्याग कंज़्यूमेरिज़्म के नाम किया गया है. इधर उधर ढुलकती इकोनॉमी पर हमने ये सवाल वार कर स्वाहा किया.

बिल्कुल उसी तरह जैसे बरसों से अपने स्व को दुनियां के तमाम टैग या नाम या सुन्दर शब्दों में कहे तो रिश्तों पर स्वाहा किया है. तो मार्च भर अवार्ड रिवार्ड की बौछार और बाजार में अलग ही माहौल. सब कुछ को महिला के नाम कर सब कुछ बेच डालने की होड़! इसी होड़ में स्त्री के ही एक रूप को स्त्री के विपरीत खड़ा करने से भी बाज़ नहीं आते.

महिला दिवस पर स्त्री केवल स्त्री हो

मातृत्व से गुरेज नहीं. मां होना अलग अनुभव है, यकीनन. स्त्री की उपलब्धि को उसके तमाम रिश्तों को निभाने के पलड़े में रख कर ही क्यों तौला जाता है. किसी पिता से क्यों नहीं कहता कोई कि,'वाह! पिता हो कर भी कमिश्नर बन गए !', बेसिरपैर की बात है न? तो इस बेवकूफी का परिचय स्त्री की उपलब्धि पर ही क्यों?

बच्चे को जन्म देना, मां होना नहीं. जहां पिछले वर्षों में इस कांन्सेप्ट पर इसी कम्पनी के एड आये इस महिला दिवस पर इन्होने अपनी सोच को केवल मातृत्व और करियर तक सिमित कर लिया. जहां बदकिस्मती से एक भी पुरुष नहीं दिखा जो साथ खड़ा हो! मातृत्व का महिमामंडन करते हुए हमने अपने समाज में मां को एक बोझ के तले दबा रखा है.

घर संभालती मां घर बाहर, रिश्तेदार, अपने जिम और बच्चो की क्लास के बीच खुद को एक्टिव रखने और दिखने के भार में अपने सभी सपने अलमारी में बंद कर चुकी. काम काजी स्त्री के लिए तो इन्होने बोझ का नया हैशटैग ही दे दिया - shecancarryboth

विमेंस डे को मदर्स डे बनाते हुए ये भूल गए उन स्त्रियां को जो मां नहीं बन सकती और वो जिन्होंने मातृत्व को नहीं अपनाया अपनी मर्ज़ी से. किन्नर समाज में भी स्त्रियां है और क्वीर कम्युनिटी में भी स्त्रियां ही है. स्त्रियां कम उम्र की है, बुज़ुर्ग है. पढ़ी लिखी भी है और कम पढ़ी लिखी भी, कामकाजी भी और घर संभालती हुई भी - किन्तु है केवल स्त्री.

ये ज़रूरी बात जब बड़े ब्रांड सोचे समझे बिना खूबसूरत कहानी को महिला दिवस पर परोसते हैं तो एहसास होता है की बड़े बड़े एड फिल्म एजेंसी वाले भी सोशल कंडीशनिंग से निकले नहीं तो भला,पड़ोस की चच्ची को क्या कहे ? 'ये स्त्री व्री तो ठीक है लेकिन ब्याह हो गए 10 महीने हो गए प्रेगा न्यूज़ से न्यूज़ कब सुनाओगी?

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लेखक

सरिता निर्झरा सरिता निर्झरा @sarita.shukla.37

लेखिका महिला / सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं.

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