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Updated: 01 जुलाई, 2022 01:27 PM
डॉ. अरुण प्रकाश
डॉ. अरुण प्रकाश
  @DrArunPrakash21
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उदयपुर में एक दुर्बल, विनयी व स्वावलंबी व्यक्ति कन्हैया की निर्मम हत्या कर दी गई. पुरातन काल के राक्षसों की तरह हत्यारे छद्म रूप में आये, ग्राहक बनकर. फिर, धोखे से उस अधेड़ दुर्बल की हत्या कर दी. हत्यारों ने वीडियो बनाया, जिसमें मरने वाले व्यक्ति को इस्लाम के आखिरी रसूल (देवदूत) के कथित अपमान का आरोपित बताया. हत्या के बाद दोनों हत्यारों ने गर्व से अपराध (हालांकि इसे वह धार्मिक प्रतिबद्धता कहते हैं) स्वीकारा. पुलिस ने आरंभिक जांच में पाया कि हत्यारों का संबंध विदेशी आतंकी संगठनों से है. यह तो घटना का विवरण है, जोकि अब पूरी तरह से जनसामान्य को सुलभ है.

लेकिन, जैसा कि भारत की 'सेकुलर बुद्धिजीविता' घटना घट जाने के बड़ी मासूम व निर्दोष भंगिमा में 'निंदा' करने उतरती है, इस बार भी उतरी. सबने इसे हिंसा कहकर निंदा की. इनमें अधिकतर वह लोग हैं, जो देश में पिछले दो महीने से हो रहे प्रदर्शनों के प्रस्तोता और सह प्रायोजक थे. यह वह लोग हैं, जिन्हें अच्छे से पता था कि उन धर्मांध प्रदर्शनों का परिणाम यही होगा. बल्कि, वह इस परिणाम तक पहुंचाने को प्रतिबद्ध लग रहे थे. वह लोग यह भी जानते थे कि प्रदर्शन शक्ति तोलने और समाज की प्रतिक्रिया जानने के लिए किये जा रहे हैं, तब भी उन प्रदर्शनों को इन 'बुद्धिजीवियों' ने हर तरह से पोषण दिया. उदयपुर में हुई घटना की पृष्ठभूमि तैयार करने में इन सबका योगदान है, जो आज 'मासूम निंदक' व अहिंसा के पुजारी होने का अभिनय कर रहे हैं.

Udaipur Murder Case Do not react to the result oppose the violenceमहावीर से अच्छा हिंसा को किसी ने नहीं समझा. चूंकि, हिंसा को पहचाने बिना अहिंसा असंभव है.

उदयपुर हत्याकांड के लिए सेकुलर बुद्धिजीवी जिम्मेदार

हालांकि, घटना के दिन व उसके एक दिन बाद उनकी टिप्पणियों के रुख में जो परिवर्तन आया है, इससे उनके मासूमियत का ढोल फट जाता है. पहले दिन जिन्होंने इसे असाधारण आतंकी घटना कहा, अगले दिन उन्हें यह घटना अनादि काल से घट रही घटनाओं की कड़ी में सामान्य घटना नजर आने लगी. अपराध के कारक खोज लिए गए और आतंकी बस न्यूटन के नियम के अनुपालक बनकर रह गए. खलील जिब्रान ने एक बार कहा था, 'कितने ही ऐसे हत्यारे हैं जिन्होंने एक बूंद भी रक्त नहीं बहाया. कितने ही ऐसे व्यभिचारी हैं जिन्होंने किसी नारी को नहीं छुआ. कितने ही ऐसे झूठे हैं जिन्होंने एक भी झूठ नहीं बोला.' यह सब लोग वही हत्यारे हैं, जिन्होंने रक्त नहीं बहाया है. जिब्रान ने यह बात शायद भारत के 'सेकुलर बुद्धिजीवियों' के लिए ही कही थी.

दूसरी ओर भारत का हिंदू समाज है, जो इस्लामी कट्टरपंथ और 'सेकुलर बुद्धिजीवियों' के छल की दोहरी मार से पीड़ित है. बल्कि वह स्वयं को पीड़ित मनवाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है, लेकिन सफलता नहीं मिलती. इस दोहरी मार से थक हारकर भारतीय समाज आत्म-पीड़क की तरह व्यवहार करने लगता है. वह अपने मनीषियों को दोष देता है, और अहिंसा के प्रचार को दोष देता है. जबकि, अहिंसा निशस्त्रीकरण नहीं है, हिंसा का नकार है. हिंदुओं को इस आत्मनिंदा कि प्रवृत्ति से उबरना होगा. उसे स्वयं की हीन भावना का दोष अपने पूर्वजों पर थोपने का अधिकार नहीं है. बल्कि, उसे हिंसा-अहिंसा को ठीक से समझकर अपना मार्ग प्रशस्त करना होगा. जब भी कहीं, अहिंसा की बात आती है, तो भगवान महावीर का नाम लिया जाना आवश्यक हो जाता है.

हिंसा को पहचाने बिना अहिंसा असंभव 

महावीर से अच्छा हिंसा को किसी ने नहीं समझा. चूंकि, हिंसा को पहचाने बिना अहिंसा असंभव है. इसलिए महावीर की दृष्टि से हिंसा को समझ लेना जरूरी है. महावीर कहते हैं कि हिंसा प्रहार नहीं है, आक्रमण नहीं है, प्राण-हरण नहीं है, शोषण और उत्पीड़न नहीं है. यह सब हिंसा की परिणतियां हैं. यानि हत्या करना हिंसा नहीं है, यह हिंसा की परिणति है. हिंसा तो उससे बहुत पहले घट गई. वे कहते हैं कि हिंसा दूसरे के अस्तित्व का नकार है, उसके अस्तित्व की उपेक्षा है, उसके व्यक्तित्व की गरिमा का उल्लंघन है. हिंसा है अपने स्व को दूसरे के स्व पर उसकी सत्ता को एकदम नकारते हुए, आरोपण. अपने स्व की परिधि के पार ही हिंसा शुरू होती है. मेरे आगे कुछ नहीं, मेरे पीछे कुछ नहीं. मेरे भगवान के अलावा कोई भगवान नहीं, मैं अंतिम संदेशवाहक, मुझसे पहले कोई नहीं- यह हिंसा ही है. महावीर ने इस हिंसा के नकार की बात की है, परिणतियों के नकार की बात नहीं की है. परिस्थितियों को वश में नहीं किया जाएगा तो परिणतियां अनिवार्य रूप से घटेंगी. परिणति का नकार हो ही नहीं सकता.

मैं एक इस्लामी स्कॉलर को यूट्यूब पर सुन रहा था. उनसे किसी ने प्रश्न पूछा कि कोई हिंदू हैप्पी दीवाली कहे तो उसे क्या जवाब दें. इस्लामी स्कॉलर कहते हैं, न तुम उसे हैप्पी दीवाली कह सकते हो न ही सेम टू यू. क्योंकि ऐसा कहते ही तुम उन त्योहारों और उसके पीछे की धार्मिक कहानियों को 'स्वीकार' लोगे, जबकि काफ़िर की हर बात अस्वीकार्य है. एक तरह से देखा जाए तो इस्लामी स्कॉलर की बात समत्व की बात करने वाले योगेश्वर कृष्ण का अपमान है, भावना योग व सर्व के स्वीकार्यता की बात करने वाले महावीर का अपमान है, आत्मवत सर्वभूतेषु कहने वाली ब्राह्मण परंपरा का अपमान है. उन्होंने सबको नकार दिया. सनातन अस्तित्व को नकार दिया. यही अस्तित्व का नकार ही हिंसा है. अब, जिसका अस्तित्व स्वीकार नहीं कर सकते, यानी आप उसे जिंदा रहने योग्य नहीं मानते. तो जाहिर है कि मौका पाते ही मारने का प्रयास करेंगे. ऐसे ही गजवा-ए-हिन्द के हजारों आह्वान यूट्यूब पर मिल जाएंगे. महावीर की दृष्टि से यह सब हिंसा है. लेकिन, कहीं इसका विरोध या इसकी निंदा नहीं होती है.

प्रतिक्रिया के मूल में कायरता होती है

इस हिंसा के बीज मदरसों में बोए जाते हैं, उन्हें खाद पानी दिया जाता है. आस्था की छतरी के नीचे उन्हें राजकीय अनुकूलता दी जाती है, ताकि वह उस हिंसा को परिणति तक पहुंचाया जा सके. जाने-अनजाने एक 'बड़ी आबादी' इस नकार के संकल्प को प्रतिदिन दोहराती है. हम उधर पीठ करके खड़े हो जाते हैं और भावी संकटों की आहट को अनसुना कर देते हैं. हमें समझना होगा कि परिस्थितियों से पलायन हो सकता है, लेकिन परिणतियों से नहीं. अगर हिंसा के संकल्पों को हम नजरअंदाज करते हैं तो कैसे मान सकते हैं कि मार-काट नहीं होगी. कैसे, उसकी परिणति किसी कन्हैया पर नहीं बीतेगी. इसलिए, विरोध हिंसा का होना चाहिए, उसकी परिणतियों का नहीं.

मैं ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया का पक्षधर नहीं हूं. प्रतिक्रिया के मूल में कायरता होती है, और कायरता का जवाब कायरता से नहीं दिया जा सकता. इसलिए, भारतीय समाज को प्रतिक्रिया से अधिक परिष्करण पर ध्यान देने की आवश्यकता है. परिष्करण समाज का, अपनी समझ व दृष्टि का. शांति की कामना रखने वालों के लिए इससे सहज कोई स्थिति नहीं हो सकती है कि 'घृणा' और 'हिंसा' रूप धरकर सामने खड़ी है. वह अपना नाम, पता और उद्देश्य सब बता रही है, तब भी उसे पहचानकर उसका निग्रह नहीं किया गया तो यह अवसर खोने वाली बात होगी. समाधान यही है कि जो हमारे अस्तित्व को नकारते हैं, उन्हें आस्था की आड़ में प्रोत्साहित करने से बचा जाए. उन्हें सर्वधर्म समभाव की अनुकूलता से मुक्त किया जाए. समाधान यही है कि भारत की वृत्ति के प्रतिकूल व्यवहार करने वालों को चिन्हित किया जाए. उन्हें दंडित करने के कानूनी विकल्प तलाशें जाएं. सामाजिक संचेतना लाने के लिए समाज को प्रोत्साहित करने का समय है, उसे 'पीड़ित व कायर' कहने से भी बचना चाहिए. आगे से हर विरोध 'हिंसा' के विरुद्ध हो, परिणतियों के नहीं.

लेखक

डॉ. अरुण प्रकाश डॉ. अरुण प्रकाश @drarunprakash21

लेखक भारत-कोरिया अकादमिक संबंधों के लिए पुरस्कृत किए जा चुके हैं. साथ ही पुस्तक 'गांधी के राम' लिखी है.

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