New

होम -> समाज

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 10 सितम्बर, 2019 05:21 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

इस्लामिक कैलेंडर में साल का पहला महीना मुहर्रम का होता है, जिसे गम का महीना भी कहा जाता है. ये तो आप समझ ही गए होंगे कि मुस्लिम इस महीने में खुशियां नहीं मनाते हैं, बल्कि मातम मनाया जाता है. पूरे महीने का सबसे अहम दिन होता है 10वां मुहर्रम, जो आज यानी 10 सितंबर को है. इसी दिन पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन की कर्बला की जंग (680 ईस्वी) में परिवार और दोस्तों के साथ हत्या कर दी गई थी. मान्यता है कि उन्होंने इस्लाम की रक्षा के लिए अपनी जान दी थी. शिया मुस्लिम इस दिन को हुसैन की शहादत को याद करते हुए काले कपड़े पहनकर मातम करते हैं.

इस दिन को रोज-ए-अशुरा कहते हैं. सड़कों पर ताजिये (मातम का जुलूस) निकाला जाता है. आपको बता दें कि हजरत इमान हुसैन का मकबरा इराक के शहर कर्बला में उसी जगह है, जहां ये जंग हुई थी, जो बगदाद से करीब 120 किलोमीटर दूर है. इस बार मुहर्रम का महीने 1 सितंबर से 28 सितंबर तक है और 10 सितंबर को मुहर्रम पड़ा है. भले ही हर मुस्लिम मुहर्रम मनाता है, लेकिन शिया और सुन्नी मुस्लिम इसे अलग-अलग तरीके से मनाते हैं. अब सवाल ये है कि आखिर दोनों इसे अलग-अलग क्यों मनाते हैं?

मोहर्रम, शिया, सुन्नी, मुस्लिम, इस्लामगम के इस महीने में 10वें मुहर्रम पर शिया मुस्लिम या हुसैन का नारा लगाते हुए मातम मनाते हैं.

दोनों समुदाय ऐसे मनाते हैं मुहर्रम

गम के इस महीने में 10वें मुहर्रम पर शिया मुस्लिम काले कपड़े पहनकर सड़कों पर जुलूस निकालते हैं और मातम मनाते हैं. इस दौरान वह 'या हुसैन या हुसैन' का नारा भी लगा रहे होते हैं. वह इस बात पर जोर देते हैं कि हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए अपनी जान दी, इसलिए उनके सम्मान में मातम मनाते हैं. शिया मुस्लिम 10 दिन तक अपना दुख दिखाते हैं. वहीं दूसरी ओर सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम के महीने में दो दिन (9वें और 10वें या 10वें और 11वें दिन) रोजे रखते हैं.

सुन्नी इसलिए मनाते हैं मुहर्रम

अशुरा के दिन दो त्योहार होते हैं. एक को सुन्नी मुसलमान मनाते हैं और दूसरे को शिया मुसलमान. शिया तो हुसैन की शहादत की याद में अशुरा के दिन मातम मनाते हैं, लेकिन इस दिन को सुन्नी सिर्फ व्रत रखते हैं. इसकी वजह ये है कि जब पैगंबर मोहम्मद मदीना गए तो उन्होंने देखा कि किस तरह से इस दिन यहूदी लोग व्रत रखते हैं. वह ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि इसी दिन हजरत मूसा ने शैतान फरोह को लाल सागर पार कर के हराया था. हजरत मूसा को सम्मान देने के लिए उस दिन से यहूदियों ने व्रत रखना शुरू कर दिया. पैगंबर मोहम्मद भी हजरत मूसा के प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने भी अपने मानने वालों को व्रत रखने के लिए कहा. हालांकि, इसे यहूदियों से अलग बनाने के लिए उन्होंने दो दिन व्रत रखने के लिए कहा, जबकि यहूदी एक दिन व्रत रखते हैं. तभी से 9वें और 10वें या 10वें और 11वें मुहर्रम पर सुन्नी मुस्लिम व्रत रखते हैं. अब सवाल ये है कि आखिर शिया और सुन्नी मुस्लिमों में इस रिवाज का अंतर क्‍यों है, जिसके चलते वह मुहर्रम को अलग-अलग तरह से मनाते हैं?

शिया-सुन्नी के बीच का झगड़ा क्या है?

शिया और सुन्नी दोनों ही कुरान और प्रोफेट मोहम्मद में विश्वास रखते हैं. दोनों ही इस्लाम की अधिकतर बातों पर सहमत रहते हैं. दोनों में फर्क इतिहास, विचारधारा और लीडरशिप से जुड़ा हुआ है. दोनों के बीच झगड़े की शुरुआत हुई 632 ईस्वी में पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद. मामला ये था कि पैगंबर की अनुपस्थिति में उनका खलीफा कौन होगा.

जहां एक ओर अधिकतर लोग पैगंबर के करीबी अबु बकर की तरफ थे, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने हजरत मोहम्मद के दामाद अली को खलीफा बनाने की पैरवी की. उनका कहना था कि पैगंबर ने अली को मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक और धार्मिक लीडर के तौर पर चुना था. जिन लोगों ने अबु बकर में अपना भरोसा दिखाया, वह सुन्नी कहलाए. यह लोग पैगंबर मोहम्मद की परंपरा और विचारधारा को मानते हैं. वहीं दूसरी ओर, जिन लोगों ने अली में भरोसा किया वह शिया कहलाए.

अबु बकर पहले खलीफा बने और अली चौथे खलीफा बने. हालांकि, अली की लीडरशिप को पैगंबर की पत्नी और अबु बकर की बेटी आयशा ने चुनौती दी. इसके बाद इराक के बसरा में 656 ईस्वी में अली और आयशा के बीच युद्ध हुआ. आयशा उस युद्ध में हार गईं और शिया-सुन्नी के बीच की खाई और भी गहरी हो गई. इसके बाद दमिश्‍क के मुस्लिम गवर्नर मुआविया ने भी अली के खिलाफ जंग छेड़ दी, जिसने दोनों के बीच दूरियां और भी अधिक बढ़ा दीं.

आने वाले कुछ सालों ने मुआविया खलीफा बन गए और उन्होंने उम्याद वंश (670-750 ईस्वी) की स्थापना की. इसके बाद अली और पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा के बेटे यानी पैगंबर के नवासे हुसैन ने इराक के कुफा में मुआविया के बेटे यजीद के खिलाफ जंग छेड़ दी. शिया मुस्लिम इसे कर्बला की जंग कहते हैं, जो धार्मिक रूप से बहुत बड़ी अहमियत रखता है. इस जंग में हुसैन की हत्या कर दी गई और उनकी सेना हार गई. शिया समुदाय के लिए हुसैन एक शहीद बन गए.

दोनों की विचारधारा अलग-अलग

वक्त के साथ-साथ इस्लाम बढ़ता गया. शिया और सुन्नी मुस्लिमों ने अलग-अलग विचारधारा अपना ली. सुन्नी मुस्लिमों ने सेक्युलर लीडरशिप चुनी. उन्होंने उम्याद (660-750 ईस्वी तक डैमैस्कस पर आधारित) के दौरान के खलीफाओं की सेक्युलर लीडरशिप पर भरोसा किया. सुन्नी मुस्लिमों को सातवीं और आठवीं शताब्दी में शुरू हुए 4 इस्लामिक स्कूलों से हर बात पर निर्देश मिलते हैं. न सिर्फ धार्मिक, बल्कि कानून, परिवार, बैंकिंग, फाइनेंस यहां तक कि पर्यावरण से जुड़ी बातों पर भी सुन्नी मुस्लिम इन्हीं स्कूलों से मदद लेकर फैसला लेते हैं. आपको बता दें कि आज के समय में दुनिया भर में मुस्लिम आबादी का 80-90 फीसदी हिस्सा सुन्नी है.

वहीं दूसरी ओर शिया मुस्लिम इमामों को अपना धार्मिक नेता मानते हैं, जिन्हें वह पैगंबर मोहम्मद के परिवार द्वारा नियुक्त किया हुआ मानते हैं. शिया मुस्लिम मानते हैं कि पैगंबर का परिवार ही उनका असली लीडर है. पैगंबर के वंशज की अनुपस्थिति में शिया मुस्लिम उनकी जगह उनके प्रतिनिधि को नियुक्त करते हैं. यूं तो शिया मुस्लिम इराक, पाकिस्तान, अल्बानिया, यमन, लेबनान और ईरान में काफी संख्या में हैं, लेकिन दुनियाभर में उनकी आबादी बेहद कम है, करीब 10-20 फीसदी.

ये भी पढ़ें-

Sir Creek इलाके में पाकिस्तान की घुसपैठ के पीछे इरादा खतरनाक है

खस्ताहाल पाकिस्तान की इकोनॉमी में जान डालने के लिए बेली डांस!

शेहला रशीद को बार बार 'देशद्रोह' के मामले से क्यों जूझना पड़ता है?

#मुहर्रम, #शिया, #सुन्नी, Muharram, Shia Muslim, Sunni Muslim

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय