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Updated: 06 जुलाई, 2019 03:35 PM
हिमांशु सिंह
हिमांशु सिंह
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जुलाई का पहला हफ्ता आ गया है, यानी वो हफ्ता जिसमें हर साल लाखों बच्चों को नैपी और हगीज़ पहनाकर गले में थर्मस लटकाकर स्कूल भेज दिया जाता है. स्कूलों में वो तमाम चीजें सीखते हैं, और अगले तीन-चार सालों में ही वो गिनती, पहाड़ा सीखने के साथ-साथ अनुशासन भी सीख जाते हैं. स्कूल जाने वाले ये बच्चे इतने अनुशासित हो जाते हैं कि देश भर के बच्चों की पहली पेंटिंग वही पहाड़, नदी, उगता सूरज, झोपड़ी और चिड़िया वाली पेंटिंग होती है, जो बचपन में हमने-आपने भी बनाई थी. क्रेएटिविटी के नाम पर बस नदी की धारा और पहाड़ों के आकार अलग हो पाते हैं.

जुलाई के इस पहले हफ्ते के चंगुल में फंसने से पहले हम सभी अलग-अलग सुर में रोया करते थे, अलग-अलग तीव्रता में शोर मचाते थे और अलग-अलग शैतानियां करते थे, लेकिन इस कम्बख्त जुलाई के पहले हफ्ते ने हमसे हमारी खासियतें छीन लीं, और हम सबको एक जैसा बनाने का षड्यंत्र किया. हमारे रंग-बिरंगे कपड़ों को यूनिफॉर्म से बदल दिया. और तो और, हम अलग-अलग तरीके से सोचने वालों को एक जैसा सवाल दिया और चाहा कि हम उनका एक जैसा उत्तर भी दें.

बच्चे, स्कूल, शिक्षा, शिक्षा व्यवस्था, school, education    शिक्षा का मौजूदा स्वरुप खुद छात्रों को नुकसान पहुंचाता नजर आ रहा है

हमारी उद्यमशीलता को बचपन में ही उधम बताकर खारिज किया और उद्यमी गुणों वाले बच्चों को उधमी या बदमाश कहकर लताड़ा गया. किशोरावस्था में प्रेम और आकर्षण जैसे प्राकृतिक भावों को ज़ाहिर करने वालों को आवारा कहकर, मानसिक गुलामी की शिक्षा-दीक्षा में अव्वल चल रहे बच्चों और कुंठित अध्यापकों के सामने उनका मजाक उड़ाया गया.

सब इसी जुलाई के पहले हफ्ते के षड्यंत्र की ही देन है. ये तारीख हमारी क्रिएटिविटी के ध्वंस की यादगार तारीख है, जिसने हमें पोटाश-एलम का फॉर्मूला और पाइथागोरस थ्योरम तो रटा दी, पर ज़िन्दगी की चुनौतियों में इनका कहां काम पड़ेगा, ये नहीं बताया.

स्थापित तथ्य है कि इंसान की क्रिएटिविटी का सीधा संबंध उसको गलतियां करने के लिए मिली छूट से होता है. इस तारीख और उसके सिस्टम ने हमें गलतियां करने की छूट नहीं दी, गलतियां करने पर हमारा मजाक उड़ाया, और बाकियों की तरह एक बनी-बनाई लीक पर चलने को कहा, और हमारी क्रिएटिविटी का गला घोंटने की कोशिश की.

ये सब कुछ हमारी ज़िन्दगी के उन सबसे खूबसूरत सालों में हो रहा था, जब हमारे दिमाग का सबसे तेज़ विकास हो रहा था और हमारी रचनात्मकता आसमान छू सकती थी. तब इस व्यवस्था ने उसे रिस्टीकेट करने का डर दिखाया, नोटिस और डंडे का डर दिखाया. और आज धीरे-धीरे साबित हो रहा है कि ये सिस्टम फेल हो चुका है.

इतना फेल कि आज भी ये सिर्फ किताबी कीड़े और सरकारी बाबू पैदा कर सकता है, स्वतंत्र विचारक नहीं. सच्चाई तो ये है कि आज स्वतंत्र लेखकों, विचारकों, फिल्मकारों, उद्यमियों से लेकर प्राइवेट कंपनियों में कार्यरत ज्यादातर लोग वही लोग हैं, जो इस सिस्टम में कभी अनफिट रहे थे. पर असल में ये सफल भी इसीलिये हो पाए, क्योंकि इन्होंने इस सिस्टम के आगे सरेंडर नहीं किया.

रट्टामार शिक्षा व्यवस्था चलाकर 100 प्रतिशत नंबर लाने वालों को पुरस्कृत करने वाली सरकारें अगर ये सोचती हैं कि नौकरी न देने पर भी देशभर में हज़ारों उद्यमी पैदा हो जाएंगे, और स्टार्टअप शुरू करेंगे, तो मुझे इस पर आश्चर्य और दुख एक साथ होता है.

अपने बच्चों की जिस क्रिएटिविटी को ज्यादा नंबर लाने की मुहिम में, व्यक्तित्त्व निर्माण के शरुआती चरणों में ही इन लोगों ने कुचल दिया, उनसे ये नए आईडियाज़ की उम्मीद लगाए बैठे हैं. कैसे अहमक लोग हैं? कैसा बेवकूफ सिस्टम है? हंसी आती है इनपर.

पर अभी भी देर नहीं हुई है. हमें समझना होगा कि ज्ञान से ज्यादा जरूरी स्वतंत्र सोच है. ज्ञान से ज्यादा जरूरी मानवीय मूल्य हैं. हमें इनके विकास पर ज़ोर देना होगा, वरना वो दिन दिन दूर नहीं जब हमारा समाज यांत्रिक मनुष्यों की भीड़ भर होगा, जिसका अंतिम लक्ष्य सिर्फ ज़िन्दा रहना होगा.

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लेखक

हिमांशु सिंह हिमांशु सिंह @100000682426551

लेखक समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं

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