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Updated: 07 अप्रिल, 2016 06:52 PM
पीयूष द्विवेदी
पीयूष द्विवेदी
  @piyush.dwiwedi
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स्कूलों-कॉलेजों में तो शिक्षा का भरपूर व्यावसायीकरण हो ही रहा है, इनसे बाहर भी निजी ट्यूशन के रूप में शिक्षा के जरिए धनार्जन का धंधा आज धीर-धीरे काफी जोर पकड़ चुका है. हालांकि ऐसा नहीं है कि  ट्यूशन का ये चलन अकस्मात् जन्मा हो. अध्यापकों द्वारा बच्चों को निजी ट्यूशन देने का कार्य तो काफी पूर्व से किया जाता रहा है लेकिन, विगत कुछ वर्षों से निजी ट्यूशन के इस चलन में काफी वृद्धि देखने को मिल रही है. दरअसल पहले ट्यूशन शिक्षा के अंतर्गत एक विशेष सुविधा के रूप में होती थी, पर समय के साथ यह एक अनिवार्य व्यवस्था का रूप लेती जा रही है. इस बात का प्रमाण ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान’ (एनएसएसओ) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट को देखने पर मिल जाता है. एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार इस वक़्त देश में निजी ट्यूशन ले रहे विद्यार्थियों की कुल संख्या लगभग 7.1 करोड़ है जो कि कुल विद्यार्थियों की संख्या का 26 फीसद है. हालांकि यह सिर्फ सीमित आंकड़ों का अनुमानित विस्तार करके जुटाया गया आंकड़ा है, इसलिए विद्यार्थियों की यह संख्या और भी अधिक होने की संभावना है.

इस रिपोर्ट में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी सामने आई है कि बच्चों को ट्यूशन भेजने में अब पारिवारिक पृष्ठभूमि का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है. पहले यही होता था कि प्रायः सपन्न परिवार के ही बच्चे ट्यूशन में जाते थे मगर, अब इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है. संपन्न परिवार हो या गरीब परिवार, सब अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अपने बच्चे को निजी ट्यूशन के लिए भेजने लगे हैं. इस बात को इस आंकड़े के जरिये और अच्छे से समझा जा सकता है कि शहरी इलाकों में 38 फीसदी संपन्न परिवारों के छात्र ट्यूशन जाते हैं तो इनसे बहुत थोड़ी कमी के साथ गरीब परिवार के भी ट्यूशन जाने वाले बच्चों की संख्या 30 फीसदी हैं. इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी जहाँ संपन्न परिवारों के 25 फीसदी बच्चे ट्यूशन जाते हैं, वहीँ गरीब परिवारों के भी 17 फीसदी बच्चे ट्यूशन का सहारा लिए हुए हैं. ये अलग बात है कि संपन्न परिवार के बच्चे कथित तौर पर ज्यादा अच्छे ट्यूटर के पास ट्यूशन लेने जाते हैं तो गरीब परिवार के बच्चे शायद थोड़े कम अच्छे ट्यूटर के पास. लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि ट्यूशन लेने के प्रति संपन्न-विपन्न में अब कोई भेद नहीं रह गया है और सब अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चों को ट्यूशन भेजने लगे हैं.

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वैसे ट्यूशन लेने वाले इन छात्रों में उच्च शिक्षा के छात्र कम हैं, अधिक छात्र स्कूली शिक्षा से ही सम्बंधित हैं. ट्यूशन के प्रति लोगों के इस आकर्षण का ही परिणाम है कि लोगों के घर खर्च में अब ट्यूशन की हिस्सेदारी बढ़कर 12 फीसदी हो गई है. लोगों में ट्यूशन के प्रति बढ़ रहे इस आकर्षण का स्वाभाविक रूप से अध्यापकों द्वारा लाभ लेने की कामयाब कोशिश की जा रही है. इसके लिए वे विभिन्न प्रकार के उपाय अपना रहे हैं. कहीं अध्यापक स्कूल के बाद निजी ट्यूशन कक्षा चला रहे हैं तो तमाम अध्यापक ऐसे भी हैं जो घर-घर जाकर भी ट्यूशन देने को तैयार हैं. बहुत से अध्यापक बच्चों को कक्षा और विषय के अनुसार समूह में विभाजित कर अपने घर बुलाकर भी ट्यूशन देते हैं तो कितने अध्यापक जिनकी विश्वसनीयता और साख थोड़ी स्थापित हो गई है, वे अपनी शर्तों जैसे की सप्ताह में दो या तीन दिन वो भी कोई एक विषय ही पढ़ाना तथा इसकी भी अत्यधिक फीस लेना आदि, पर ट्यूशन दे रहे हैं. इनके अलावा और भी तमाम तरीके हैं जिनके जरिये अध्यापकों द्वारा बच्चों को ट्यूशन दी जा रही है. अध्यापकों से इतर ऐसे तमाम लोग जो किसी स्कूल आदि में नहीं पढ़ाते और कुछ अन्य कार्य करते हैं, वे भी अतिरिक्त समय में बच्चों को ट्यूशन देकर अच्छी-खासी आमदनी कमा ले रहे हैं. साथ ही, खासकर ग्रामीण तबकों में ऐसे भी ट्यूटर्स की भरमार मिलेगी, जिनकी शिक्षा बेहद सामान्य रही है और अपने समय में वे संभवतः औसत विद्यार्थी ही रहे हैं, लेकिन लोगों में ट्यूशन के प्रति पनपे इस अति-आकर्षण का लाभ लेकर वे आज गुरूजी बन गए हैं. कुल मिलाकर तस्वीर यही है कि ट्यूशन को लेकर लोगों में आकर्षण बहुत बढ़ा है, जिसकी गवाही एनएसएसओ के उपर्युक्त आंकड़े तो देते ही हैं, जमीनी हालात देखने पर भी इसकी पुष्टि होती है.

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अब सवाल यह उठता है कि ट्यूशन को लेकर लोगों में इस आकर्षण के बढ़ते जाने का कारण क्या है ? इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि अपने बच्चों को ट्यूशन भेजने वाले अभिभावकों से जब एनएसएसओ ने अपने सर्वेक्षण के दौरान यही सवाल पूछा तो उनमे 89 फीसदी का कहना था कि अपने बच्चों को ट्यूशन भेजकर वे उनकी शैक्षिक बुनियाद को मजबूत कर रहे हैं. इनमे कितनों ने स्कूल के वृहद् पाठ्यक्रम के मद्देनज़र ट्यूशन लेने को आवश्यक बताया तो बहुतों अभिभावकों का तो स्पष्ट रूप से यही कहना रहा कि स्कूली शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं होने के कारण उन्हें अपने बच्चों को ट्यूशन भेजना पड़ रहा है. यह देखते हुए समझना आसान है कि ट्यूशन के प्रति लोगों में बढ़ रहे इस अत्याकर्षण का मुख्य कारण स्कूली शिक्षा पर से उनके विश्वास का कम होते जाना है.

इसी संदर्भ में अगर भारत की शिक्षा खासकर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था पर एक नजर डालें और यह पड़ताल करने का प्रयास करें कि क्या वाकई में स्थिति इतनी ख़राब है कि लोगों का इसपर से विश्वास ही उठ रहा है और वे अपने बच्चों को ट्यूशन का सहारा देने लगे हैं. दरअसल स्थिति खराब तो है ही और फिलवक्त देश की प्राथमिक शिक्षा एक नहीं, विभिन्न प्रकार की अनेक समस्याओं से ग्रस्त है. इनमें गुणवत्तायुक्त शिक्षा से लेकर ढांचागत सुविधाओं तक हर स्तर पर समस्याएं हैं. ढांचागत सुविधाओं को एकबार के लिए छोड़ भी दें तो गुणवत्तायुक्त शिक्षा के स्तर को कत्तई नजरंदाज नहीं किया जा सकता. देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की इस रिपोर्ट पर गौर करना उपयुक्त होगा जिसके मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं. ये तथ्य हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त है.

विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं – श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम. शिक्षकों की कमी की बात तो आए दिन उठते ही रहती है, पर इसके अलावा एक सवाल यह भी उठता है कि जो शिक्षक हैं, क्या वे इतने योग्य और कुशल हैं कि बच्चों को समुचित रूप से शिक्षा दे पाएं ? इस सम्बन्ध में तथ्य यही है कि शिक्षकों की कमी तो है, पर सरकारी स्कूलों में अधिक. निजी स्कूल इस समस्या से कम ग्रस्त हैं. अब रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो यहाँ भी सबकुछ ठीक नहीं दिखता. हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता. ये समस्या अंग्रेजी माध्यम या निजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के साथ कुछ अधिक ही है. अंग्रेजी माध्यम के पाठ्यक्रम पर नज़र डाले तो उसमें केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है. उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़ा सीखने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सिखाने वाला पाठ्यक्रम निर्धारित है. अब ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो वे ऐसी पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे. इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकारी स्कूल जहां कम शिक्षकों की समस्या से जूझ रहे, वहीं निजी विद्यालय अनुचित पाठ्यक्रम चला रहे हैं. बच्चे पढ़ें तो कैसे और क्या पढ़ें ?

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निश्चित ही इन्हीं समस्याओं के मद्देनजर आज अभिभावकों का स्कूली शिक्षा से विश्वास डगमगाने लगा है और वे ट्यूशन की शरण ले रहे हैं. लेकिन उन्हें कौन समझाए कि ट्यूशन में भी सबकुछ अच्छा नहीं है. ट्यूशन के प्रति उनके इस अन्धोत्साह का काफी अयोग्य शिक्षकों द्वारा अनुचित लाभ भी लिया जा रहा है. एक उदाहरण द्रष्टव्य है कि देश के में गली-गली खासकर शहरी इलाकों में खुले छोटे-छोटे निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले तमाम शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा स्कूल से छूटते ही सीधे वहीँ से बच्चों को अपने घर लाकर निजी ट्यूशन के नाम पर एक साथ चालीस-पचास बच्चों तक को ट्यूशन देने का चलन खूब देखने को मिल रहा है. परीक्षा में ये शिक्षक-शिक्षिकाएं स्कूल में मौजूद रहते हैं तो अपने पास पढ़ने वाले बच्चों की सहायता कर देते हैं जिससे उनके नंबर अच्छे आ जाते हैं और अभिभावक यह मान लेते हैं कि उनका बच्चा ट्यूशन के कारण पढ़ने में तेज हो रहा है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है. यह एक उदाहरण है, ऐसी ही और भी तमाम विसंगतियां ट्यूशन में मौजूद हैं. अब इन सब स्थितियों के मद्देनजर यही कह सकते हैं कि देश की स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने की तरफ सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए जिसमें कि ऊपरी टीप-टाप से अधिक ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर केन्द्रित हो. इसके अलावा शिक्षित अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अन्धोत्साह में ट्यूशन भेजने की बजाय यदि स्वयं समय निकालकर नियमित रूप से उन्हें पढाएं तो वे बच्चे ट्यूशन ले रहे बच्चों की अपेक्षा अधिक सुशिक्षित होंगे.

लेखक

पीयूष द्विवेदी पीयूष द्विवेदी @piyush.dwiwedi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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