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Updated: 25 अगस्त, 2020 10:50 PM
नाज़िश अंसारी
नाज़िश अंसारी
  @naaz.ansari.52
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जिसके नाम के मायने ही बुलंदी हो, उसे मक़बूल होने से कौन रोक सकता था भला. हालांकी मेरी समझ से मां को उनकी शोहरत का साझेदार कहा जाना चाहिये. अपनी ममता के सदक़े ऐन जॉइनिंग के वक़्त एयरफ़ोर्स से मिले लेटर को जो ना फाड़तीं, उन्हें किसी प्लेन क्रैश में ही इंतकाल फ़रमा जाना था. इंटरव्यू देने गये सभी साथियों की मौत ऐसे ही किसी हादसे में हुई. मां की आंखों ने मुस्तकबिल देख लिया था. उन्हें खुद का ना होकर पूरी अवाम का होना था. पाकिस्तान (Pakistan) के सरहदी इलाक़े कोहाट में 12 जनवरी 1931 में जन्में यह हैं सैयद अहमद शाह, बा लक़ब अहमद फ़राज़ (Ahmed Faraz). पेशावर यूनिवर्सिटी से फारसी और उर्दू (Urdu) में एमए के बाद वहीं लेक्चरार लग गये. मादरी ज़बान पश्तो होने के बावजूद रचने के लिये उन्होंने उर्दू चुना. उर्दू ने भी रिटर्न गिफ्ट के तौर पर लफ्ज़ों में वह मायने भरे कि जहां कहीं इंसानी बस्तियां रहीं, इंसान रहे उनकी गज़लों, नज्मों को कहा, सुना, गुनगुनाया गया.

Ahmed Faraz, Pakistan, Poetry, Poem, Fan, Death Anniversaryअहमद फ़राज़ ही कुछ ऐसा था कि आज भी पूरी दुनिया में उनके फैंस हैं

शानदार शख़्सियत, कुशादा सीना, चौड़े शाने. तिस पर ठाक करती आवाज़. उनके मुशायरे सुनिये या इंटरव्यू. वह कहीं, कभी लाउड नहीं होते. लड़कियों को तो निसार होना ही था. उन्होनें भी दिल का दरवाज़ा खुला रखा. कई आईं एक परवीन शाकिर भी रहीं.

फ़राज़ ने नज़्मों के मुकाबले गजलें ज़्यादा कहीं हैं. लोगों ने उन्हें आज़ादी के बाद का ग़ालिब कहा और फैज़ के बाद सदी का सबसे बड़ा शायर कहने की वजह भी गज़लों की लोकप्रियता है. और यह भी कि जियाउल हक़ के दौर में उनकी शायरी का इन्क़लाबिया तेवर रूमानियत पर हावी रहा.

हालांकि उनकी ग़ज़लें हबीब जालिब के तेवर वाली नहीं हैं कि गली का बच्चा बच्चा इन्क़लाबिया नारे की तरह गा उठे लेकिन इतनी धार ज़रूर थी कि उन्हें भी जिले से निकालने का हुक्म जारी हुआ. इसपर फ़राज़ ने लिखा - 

हम कि रूठी हुई रूत को भी मना लेते थे

हमने देखा ही ना था मौसम ए हिज्रां जानां

फ़राज़ ने ये भी लिखा कि

इक उम्र से हूं लज़्ज़त ए गिरियां से भी महरूम

ऐ राहत ए जां मुझको रुलाने के लिये आ

पहले से मरासिम ना सही फिर भी कभी तो

रस्मो रहे दुनिया ही निभाने के लिये आ

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ

यह फ़राज़ की दूसरी सबसे ज़्यादा मक़बूल ग़ज़ल साबित हुई. ज़ाहिरी तौर पर यह किसी महबूबा के लिये लिखी लगती है. लेकिन बक़ौल फ़राज़ यह ग़ज़ल पाकिस्तान से बार बार रूठकर जाने वाली जम्हूरियत को मुख़ातिब कर कही गई है. फ़राज़ कितने रोमांटिक थे इसका अंदाजा उस नज़्म से लगा सकते हैं जिसमें कहा गया कि -

सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं,

सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं.

लोगों को इस गज़ल का चस्का सा था/है. क्या पाकिस्तान क्या हिन्दुस्तान.वह जहां कहीं जाते, इसी की फरमाईश मुक़र्रर रहती. इस गज़ल का हर शे'र उन्हें 'नाज़ुकी उनके लबों की क्या कहिये, पंखुड़ी इक गुलाब की सी है' कहने वाले मीर के समकक्ष ला खड़ा करता है. मसलन,

'सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है

कि फूल अपनी क़बाएं कुतर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं

यह बात है तो चलो बात कर के देखते हैं'

ज़हानत, रूमानियत, मुहब्बत से भरे फ़राज़ कहते हैं अगर उन्हें दोबारा ज़िंदगी मिले तब भी वे अहमद फ़राज़ ही होना चाहेंगे. सवाल होता है, अहमद शाह क्यों नहीं? जवाब आता है, माता पिता का दिया यह नाम इतना पीछे छूट चुका है कि अब्बा भी अब खत में मुझे फ़राज़ लिखते हैं.

अहल-ए-वतन ही नहीं, सरहदों से परे भी उनकी शोहरत खूब थी. अमेरिका में हुए मुशायरे में एक बार किसी लड़की को autograph देते हुए नाम पूछा तो उसने फ़राज़ा बताया. उन्होंने चौंकते हुए पूछा, यह कैसा नाम है? लड़की बोली, आप मेरे मां बाप के पसंदीदा हैं. उन्होने सोचा था बेटा होगा तो नाम फ़राज़ रखेंगे. हो गयी बेटी तो फ़राज़ा रख दिय₹,या इसी पर फ़राज़ ने लिखा था,

और 'फ़राज़' चाहिये कितनी मुहब्बतें तुझे

माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया

पाकिस्तान के अलावा हिन्दुस्तान और कनाडा जैसे दीगर मुल्क़ों ने भी उन्हें पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा. उन्हें पहला हिलाल-ए-इम्तियाज़ (पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार)भी मिला. लेकिन हुकुमत की सियासत से नाराज़गी के चलते 2006 में वापस कर दिया. गुर्दे की बीमारी थी. 77 बरस की उम्र में आज ही के रोज़ 2008 में फ़ानी-ए-दुनिया से कूच कर गये.

मुल्क़ की तक़्सीम से सियासदानों के अलावा शायद ही कोई खुश रहा हो. वह भी उदास थे. फ़ैज़ के 'ये दाग़-दाग़ उजाला ये शब गज़ीदा सहर की तरह उन्होंनें लिखा

अब किसका जश्न मनाते हो

उस देस का जो तक़सीम हुआ

अब किसका गीत सुनाते हो

उस तन मन का जो दो-नीम हुआ

जिनके लहू से तुमने फ़रोजां रातें की

या उन मजलूमों का जिनसे

खंज़र की ज़बां में बातें की

उस मरियम का जिसकी इफ्फ़त

लुटती है भरे बाज़ारों में

उस ईसा का जो क़ातिल है

और शामिल है गम-ख्वारों में

उस शाही का जो दस्त बा दस्त

आई है तुम्हारे हिस्से में

क्यों नंगे- वतन की बात करो

क्या रखा है इस क़िस्से में

लुटी, थकी, रंजआलूदा कैफ़ियत और लीडरों की नोच-खसोट के बाद भी उनका ज़हन उम्मीद करता है. आंखें ख़्वाब देखती हैं-

ख़्वाब दिल हैं ना आंखें न सांसे कि जो

रेज़ा रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे

जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे

ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं हवा हैं

जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं

ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुंकते नहीं

रौशनी और नवा और हवा के अलम मक़तलों में पहुंचकर भी झुकते नहीं

ख़्वाब तो हर्फ़ हैं

ख़्वाब तो नूर हैं

ख़्वाब सुकरात हैं

ख़्वाब मंसूर हैं

किसी भी पढ़े-लिखे हवासमंद आदमी की तरह उन्होंने भी चाहा कि पाकिस्तान- हिन्दुस्तान के बीच अम्न, सुलह और दोस्ती क़ायम रहे. पेशाब की धार से पाकिस्तान को नक़्शे से मिटाने वालों, परमाणु बम को दीवाली के लिये ना बचा के रखने वालों, भारतीय मुसलमानों को जिन्ना की औलाद कहने वालों को असल जिन्ना की औलाद से मिलना चाहिये जो मुशायरों में अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों को मुख़ातिब कर बार बार पढ़ता हैं-

गुज़र गए कई मौसम कई रूतें बदलीं

उदास तुम भी हो यारों उदास हम भी हैं

फकत तुम ही को नहीं रंज ए चाक दामानी

जो सच कहें तो दरिदा लिबास हम भी हैं

 

आधुनिक युग में उर्दू के सबसे श्रेष्ठ शायर की आज पुण्यतिथि पर आप उन्हें नमन करियेगा हम लव यू लिखेंगे.

हमको अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तेरा

कोई तुझसा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रखे

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लेखक

नाज़िश अंसारी नाज़िश अंसारी @naaz.ansari.52

लेखिका हाउस वाइफ हैं जिन्हें समसामयिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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