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Updated: 01 मई, 2022 04:36 PM
नाज़िश अंसारी
नाज़िश अंसारी
  @naaz.ansari.52
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इस्लाम कहता है, अल्लाह उस वक्त खुश होता है जब कोई जोड़ा मुहब्बत में हो. मुहब्बत से रहे. मुहब्बत यानी दिल का मिलना. जहन का मिलना. और जिस्म का मिलना. हां, जिस्म का मिलना भी.जिस्म की बात मर्द करे तो साहित्य, कला, विमर्श, फिल्म, गीत, चर्चा का विषय, आधुनिक समय की ज़रूरत. औरत करे तो उफ्फ... तौबा... लिजलिजी... चिड़चिड़ी... खाई पी अघाई... शोहरत पाने का शगल. 400 में नीबू, 1100 में सिलेंडर वाले समय में यह नहीं कि औरतें कम खर्च में घर चलाने के DIY hacks देखें. (सरकार से सवाल करने, महंगाई पर धरना प्रदर्शन करने का युग तो यूं भी जा चुका) या मेकअप ट्यूटोरियल से यही सीख लें कि primer के बाद पहले फाउंडेशन लगाना है या कंसीलर. पति/प्रेमी की बेरुखी पर अच्छी भली कविता लिख रही थी. इनकी मुहब्बत (मुंह देखी ही सही) में अब पतियों ने करवा चौथ का व्रत तक करना शुरू कर दिया है. लेकिन इन्हें सब्र कहां! अब देखो, मार्केट में नया शिगूफा छोड़ दिया... ऑर्गेज़म.

Woman Orgasm, Sex, Love, Relationship, Girlfriend, Boyfriend, Islam, Muslimहमें ये समझना होगा कि रोटी, कपड़ा. मकान की तरह सेक्स भी बुनियादी जरूरत है

वैसे भैय्या यह ऑर्गेज़म होता क्या है?

सेक्स को 'रिलेशनशिप बनाना' और कंडोम को 'छतरी' कहने वाले समाज का औरतों के "ऑर्गेज़म" कहने, और चाहने पर बौखलाना लाजमी है. लेकिन सवाल वही है, कब तक सेक्स को आउट ऑफ सिलेबस बताकर घर से पढ़ आने को कहा जाएगा.

रोटी, कपड़ा, मकान व्यक्ति की बुनियादी ज़रूरते हैं. भूख, प्यास, मूत्र, मल और संभोग जैविक जरूरतें हैं. प्राथमिकता के हिसाब से पहले जैविक जरूरतें पूरी होनी चाहिए. होती भी है. लेकिन सिर्फ पुरुषों की. महिलाओं तक आते आते आखिरी ज़रूरत को 'गंदी बात' कह के ख़ारिज कर दिया जाता है.

उसे मासूम ही रहना है. इतनी मासूम कि पति कमरे में आए. सिटकिनी लगाए. बत्ती बुझाए और काम पे लग जाए. इस बीच वो सिर्फ मुस्कुराए. शर्माए. आह... उह... की आवाज़े निकाले. पति की मर्दानगी को पोषित करे.

पति परमेश्वर को मना करने का पाप किया भी नहीं जा सकता. 'रात शौहर की तरफ पीठ कर के लेटने वाली बीवी पर फरिश्ते सारी रात लानत भेजते हैं.' बीवी की तरफ पीठ कर के सो जाने वाले शौहरों का फरिश्ते क्या करते हैं, पता नहीं.

और उन पतियों का फरिश्ते क्या करते हैं जो शराब, सिगरेट या गुटखा की बदबू वाले मुंह से ऑफिस की भड़ास निकालने लगभग वहशी बनकर पत्नियों पर टूटते हैं. (रात जिस्म पर यहां–वहां दर्ज किये गए नीले निशान लव बाइट्स नहीं होते हमेशा.) मैरिटल रेप का कोई कांसेप्ट भारतीय संविधान में नहीं है. धर्म ने तो कह ही रखा है, औरतें तुम्हारे खेत हैं. तुम जैसे भी चाहो घुस सकते हो.

सारा खेल घुसने निकलने का ही है. यह सुगमतापूर्वक चलता रहे इस के लिए शहर की दीवारें खानदानी शफा खाना के इश्तहार से पटी रहीं. औरत की इस खेल में कितनी सहभागिता है, है भी या नहीं, मायने नहीं रखता. जिस समाज में धर्म के साथ मिलकर औरत को सिर्फ योनि और बच्चेदानी समझा गया हो, वहां उसके शरीर को सहलाने, सराहे जाने, चूमे जाने में वक्त बर्बाद करने की किसको पड़ी है. (इट्स लाइक अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता.)

अगर कहीं वह फोरप्ले शब्द उच्चारित भी कर दे तो चालू, पक्की पोढ़ी, 'जाने कहां कहां मुंह मार के आई है' 'तुम्हें यह सब कैसे पता' जैसे सवालों के जवाब दे. चरित्र के लिए अब ता उम्र मियां से कैरेक्टर सर्टिफिकेट मांगना भी तय हो जाएगा.

ऐसे में "सहभागिता और संतुष्टि" छी...छी...आक थू!

स्त्री का शरीर खुली हुई तिजोरी कहा गया. जिस की चाभी उसके पुरुष के पास रहेगी. वे चाहती हैं, अब इस तिजोरी की चाभी उन्हें थमाई जाए. अपने शरीर के उस रहस्यमयी सुख को वे समझना चाहती हैं. (जिन्हें समझ आ गया वे एक्सप्लोर करना चाहती हैं) हां वही परम चरम बलम सुख... जिसके चलते 'जवानी में अक्सर लड़कों से गलतियां हो जाया करती हैं.'

किसी रिश्ते में रहते हुए इस चरम सुख की तलाश वो बाहर नहीं कर सकती. यह अनैतिक है. (मर्द कर सकता है. तब यह अनैतिक भी नहीं.) चलिए, नैतिकता को केवल अपनी निजी जिम्मेदारी मानते हुए क्या सिर्फ़ 'असंतुष्ट" रह जाने की स्थिति में वह तलाक़ ले सकती है? व्यवहारिक रूप में क्या यह संभव है?

एक हदीस में आता है– किसी औरत ने पैगम्बर मुहम्मद से फरमाया, मेरे शौहर की शख्सियत या किरदार में कोई ऐब नहीं है. लेकिन मुझे उनसे मुहब्बत नहीं है. उन्हें तलाक दिलवा दी गई. यहां मुहब्बत का मतलब भावनात्मक लगाव है या दैहिक संतुष्टि, स्पष्ट नहीं. अस्पषट मुद्दों का बेनेफिट ऑफ डाउट पुरुषों ने अपने फेवर में लिया. हमेशा की तरह. और ऐसी किसी मोहब्बत को तलाक़ के संदर्भ में कभी भी कंसीडर ही नहीं किया गया.

हफ्ते भर से चल रहे एक तूफानी टॉपिक पर ट्विटर से लगाकर फेसबुक तक कई समूहों में बंटने वाले लोग ऑर्गेज़म शब्द की परिभाषा गूगल से पूछ चुके होंगे. ना समझ आया हो तो कई साल पहले आई अनुराग कश्यप की 'लिपस्टिक अंडर माय बुरखा', अलंकृता श्रीवास्तव की 'डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे' या 'बॉम्बे बेगम्स' देख डालें. ऑर्गेज़म पर 'हाय...हाय क्या ज़माना आ गया है' करने की ज़रूरत नहीं है. ना किसी कोरी कल्पना की. बात सिर्फ इतनी है औरत अब भोग्या होने से इंकार करती है और रात अंधेरे अपने शरीर से जुड़े सारे क्रियाकलापों में अपनी सहभागिता और बराबरी चाहती है.

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लेखक

नाज़िश अंसारी नाज़िश अंसारी @naaz.ansari.52

लेखिका हाउस वाइफ हैं जिन्हें समसामयिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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