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Updated: 21 सितम्बर, 2018 02:01 AM
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प्लेन में बैठना किसी के लिए सुखद अनुभव होता है तो किसी के लिए ये बहुत दर्दनाक होता है. खिड़की से बादल देखकर इंस्टाग्राम पर फोटो पोस्ट करना अलग बात है और सही में एक सुखद फ्लाइट जर्नी का अनुभव करना अलग. कई बार जो लोग पहली बार प्लेन में बैठे होते हैं वो डरे होते हैं, कई लोगों को कान का दर्द परेशान करता है तो कई के लिए प्लेन के समय होने वाली टर्बुलेंस बहुत भयावह होती है.

ऐसी ही एक प्लेन यात्रा हाल ही में जेट एयरवेज के पैसेंजर्स ने झेली. एक ऐसी यात्रा जिसमें करीब 30 यात्रियों के नाक और कान से खून निकलने लगा और 5 गंभीर रूप से लंग्स की परेशानी का शिकार हो गए. कुछ यात्रियों के कान में आवाज़ आना बंद हो गई. ऐसा हुआ क्योंकि मुंबई से जयपुर जा रही जेट एयरवेज़ की फ्लाइट 9w697 में क्रू मेंबर्स केबिन का प्रेशर मेनटेन करना भूल गए थे. वो एक बटन दबाना भूल गए थे जिसे 'Bleed button' यानी खून का बटन कहा जाता है. जैसे ही समस्या का पता चला फ्लाइट को वापस मुंबई एयरपोर्ट पर उतारा गया और मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के साथ-साथ ही अन्य लोगों को एयरपोर्ट पर मौजूद डॉक्टर ने देखा.

इसके नाम का अंदाज़ा अब उन यात्रियों को हो गया होगा क्योंकि प्लेन में उन्हें अच्छी खासी तकलीफ का सामना करना पड़ा. इस स्विच की खासियत ये होती है कि ये केबिन जहां यात्री बैठते हैं वहां हवा का दबाव सही रखता है.

क्यों जरूरी होता है ये स्विच..

जैसे कि बताया गया कि ये स्विच असल में प्लेन में हवा का दबाव सही रखता है. जैसे-जैसे हम ऊंचाई पर जाते हैं वैसे-वैसे हवा का दबाव कम होने लगता है. 18000 फीट की ऊंचाई पर हवा में PSI (Pollutant Standards Index) लेवल 8 psi के बराबर होता है, इसका नतीजा ये होता है कि हमारे फेफड़े कम ऑक्सीजन अंदर लेते हैं और सांस लेना बहुत मुश्किल होने लगता है. सांस लेने के लिए अमूमन 14 psi सही होता है. यही कारण है कि पर्वतारोही अक्सर अपने साथ ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर चलते हैं. 8 से 10 हज़ार फिट से ऊपर अगर कोई जाता है तो उसे सांस लेने में दिक्कत होने ही लगती है.

इसके अलावा, अगर हम प्लेन की बात करें तो ये 30,000 से 40,000 फीट की ऊंचाई पर उड़ते हैं. और यहां दबाव ऐसा रहता है कि अगर प्लेन में प्रेशर सही नहीं रखा गया तो हमारे शरीर की कोशिशकाओं का इस बॉटल जैसा हाल रहेगा.

एक खाली बॉटल जो नॉर्मल प्रेशर में सही रहती है, लेकिन 37000 फिट की ऊंचाई पर ये पिचक जाती है या यूं कहें कि दबाव इसे पिचका देता है.एक खाली बॉटल जो नॉर्मल प्रेशर में सही रहती है, लेकिन 37000 फिट की ऊंचाई पर ये पिचक जाती है या यूं कहें कि दबाव इसे पिचका देता है.

जिस ऊंचाई पर विमान उड़ते हैं वहां प्रेशर 4 psi से कम होता है और यही कारण है कि इंसान को सांस लेने के लिए कृत्रिम प्रेशर की जरूरत होती है. इसका सीधा इलाज है कि प्लेन में बाहर से हवा अंदर पंप की जाती है. ये विमान के पंखों (इंजन) के जरिए अंदर आती है और इसे डिकम्प्रेस किया जाता है ताकि ये केबिन में इस्तेमाल की जा सके. ये हवा बेहद ठंडी होती है. इसे कम्प्रेसर और फिल्टर की मदद से पहले साफ किया जाता है और फिर उसे केबिन प्रेशर के हिसाब से मैनेज किया जाता है फिर साफ किया जाता है और इसके बाद ही इसे अंदर एयरकंडीशन के जरिए भेजा जाता है. इसी के साथ, केबिन के अंदर मौजूद हवा भी बाहर जाती है और लगातार फ्रेश हवा अंदर जाती है. हवा को बाहर ढकेलने के लिए प्लेन की टेल यानी पीछे के हिस्से में एक आउटफ्लो वॉल्व होता है. हवा का अंदर आना और बाहर जाना दोनों ही विमान के प्रेशराइजेशन सिस्टम से कंट्रोल किया जाता है.

आजकल के आधुनिक विमान ऐसे होते हैं कि अगर वो 31000 फीट की ऊंचाई पर उड़ रहे हैं तो लोगों को अंदर बैठकर ऐसा लगेगा कि वो 4500 या 5000 फीट की ऊंचाई पर ही हैं और इसलिए ऊंचे जाने पर कुछ लोगों को 'एरोप्लेन इयर' की समस्या होती है या आसान भाषा में कहें तो ऐसा लगता है कि कान में दर्द हो रहा है या कान में प्रेशर हो.

कुछ ऐसे होता है प्लेन में हवा और प्रेशर का संचारण.कुछ ऐसे होता है प्लेन में हवा और प्रेशर का संचारण.

अगर नहीं मिला सही प्रेशर तो?

विमान के अंदर अगर यात्रियों को सही प्रेशर नहीं मिला तो उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. शारीरिक समस्याएं आम नहीं होतीं और कई बार इंसान के शरीर में बहुत भारी नुकसान होता है जैसे फेफड़ों की परेशानी. अधिकतर ये सब होता है अगर प्लेन में प्रेशर सही न हो तो..

1. Hypoxia

हाइपॉक्सिया तब होता है जब 5 से 8 हज़ार फीट से ज्यादा ऊपर प्रेशर मेनटेन नहीं किया जाता. ऐसे में शरीर में 25% कम ऑक्सिजन पहुंचता है. तो जाहिर सी बात है कि दिमाग में भी कम पहुंचेगा. ऐसे में आंखों के आगे अंधेरा छाना, चक्कर आना, सिर दर्द और सोच-समझ में फर्क पड़ना शुरू हो जाएगा. अगर कोई इंसान बहुत ज्यादा समय के लिए ऐसे हालात में है तो उसकी मौत भी हो सकती है. अगर किसी को दिल या फेफड़ों से जुड़ी कोई बीमारी है तो उसे ये असर 5000 फीट से ही दिखने लगेगा.

2. Altitude sickness

ये असल में ऐसे लक्षण होते हैं जो पर्वतारोहियों को झेलने पड़ते हैं. अगर शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो रही है तो शरीर अपने आप खून में मौजूद ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने लगेगा और ऐसे में कार्बन डायऑक्साइड भी ज्यादा बनेगी. इससे खून का ph लेवल बढ़ेगा और चक्कर आना, उल्टी होना, सिर दर्द, नींद न आने जैसी समस्या होगी. ये आम तौर पर लंबी फ्लाइट्स के पैसेंजर्स के साथ होता है.

3. Decompression sickness

ऊंचाई पर जैसे ही प्रेशर कम होता है आस-पास की गैस भी कम होने लगती है जैसे नाइट्रोजन जिसका हवा में होना भी जरूरी है. ऐसे में शरीर में मौजूद अलग-अलग गैस खून में मिलने लगती है और ऐसे में खून के बहाव के समय छोटे-छोटे बबल्स बन जाते हैं. ये वैसा ही कुछ मेकैनिज्म है जैसा समुद्र में डाइवर्स के साथ होता है. ऐसे में पहली दो बीमारियों की तरह सिर दर्द तो होता ही है साथ ही, भूल जाना, थकान होना, स्ट्रोक का खतरा होना या शरीर में खुजली होने लगना आदि आम है.

4. Barotrauma

ये वो बीमारी या यूं कहें कि ऊंचाई पर होने वाली समस्या है जो जेट एयरवेज के कुछ पैसेंजर्स के साथ हुई. इसके कारण शरीर में मौजूद गैस अचानक बढ़ने लगती है और शरीर में दर्द होने लगता है. ऐसे में साइनस, कान और नाक से खून निकलने के साथ-साथ ही दांतों में दर्द होना और शरीर के कई हिस्सों में दर्द होना शुरू हो जाता है. अगर मरीज को पहले से ही कुछ बीमारी है तो फेफड़ों में बहुत ज्यादा दिक्कत शुरू हो जाएगी. हालांकि, ये बहुत ज्यादा बड़ी समस्या नहीं होती है आम तौर पर, लेकिन अगर पहले से ही कुछ मेडिकल हिस्ट्री है तो यकीनन बहुत समस्या होगी.

इन चारों में ही अगर विमान में बैठने वाला बहुत ज्यादा देर तक कम दबाव में रहा है तो समस्या बढ़ जाएगी. प्लेन में अगर ऐसी स्थिती बनती है तो ऑक्सीजन मास्क बाहर आ जाते हैं और यात्रियों से उसकी सहायता से सांस लेने को कहा जाता है.

कुल मिलाकर केबिन प्रेशर को बनाए रखना विमान के क्रू के लिए बहुत जरूरी है अन्यथा वही हालत होगी जैसी जेट एयरवेज के यात्रियों के साथ हुई.

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