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Updated: 01 नवम्बर, 2022 07:21 PM
लोकेन्द्र सिंह राजपूत
लोकेन्द्र सिंह राजपूत
  @lokendra777
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पत्रकारिता के संबंध में कुछ विद्वानों ने यह भ्रम पैदा कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह विपक्ष है. जिस प्रकार विपक्ष ने हंगामा करने और प्रश्न उछालकर भाग खड़े होने को ही अपना कर्तव्य समझ लिया है, ठीक उसी प्रकार कुछ पत्रकारों ने भी सनसनी पैदा करना ही पत्रकारिता का धर्म समझ लिया है. लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विराट भूमिका से हटाकर न जाने क्यों पत्रकारिता को हंगामाखेज विपक्ष बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है?

यह अवश्य है कि लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए चारों स्तम्भों को परस्पर एक-दूसरे की निगरानी करनी है. पत्रकारिता को भी सत्ता के कामकाज की समीक्षा करनी है और उसको आईना दिखाना है. हम पत्रकारिता की इस भूमिका को देखते हैं, तब हमें वह हंगामाखेज नहीं अपितु समाधानमूलक दिखाई देती है. भारतीय दृष्टिकोण से जब हम संचार की परंपरा को देखते हैं, तब प्रत्येक कालखंड में संचार का प्रत्येक स्वरूप लोकहितकारी दिखाई देता है.

संचार का उद्देश्य समस्याओं का समाधान देना रहा है. संचार क्षेत्र के अधिष्ठाता देवर्षि नारद की संचार प्रक्रिया एवं सिद्धांतों को जब हम शोध की दृष्टि से देखते हैं तब भी हमें यही ध्यान आता है कि उनका कोई भी संवाद सिर्फ कलह पैदा करने के लिए नहीं था. यह तो भारतीय संस्कृति को विकृत करनेवाली मानसिकता का षड्यंत्र है कि उसने नारद को कलहप्रिय पात्र के रूप में प्रस्तुत कर दिया. वास्तविकता तो यह है कि उनके प्रत्येक संवाद का हेतु समाधान है

देवर्षि नारद संचार कौशल से अपने ही आराध्य विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय सखा अर्जुन के मध्य 'कृष्णार्जुन युद्ध' की परिस्थितियां निर्मित करके निर्दोष यक्ष के प्राणों की रक्षा का समाधान निकाल लाते हैं. जनक की सभा में ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य भी ब्रह्मवादिनी गार्गी से यही कहते हैं, ''गार्गी तुम प्रश्न पूछने से संकोच न करो, क्योंकि प्रश्न पूछे जाते हैं तो ही उत्तर सामने आते हैं, जिनसे यह संसार लाभान्वित होता हैं.'' भारतीय ज्ञान-परंपरा के उजाले में यदि हम पत्रकारिता को देखें, तब नि:संदेह पत्रकारिता का कार्य निर्भीक होकर सत्ता-प्रतिष्ठान सहित समूची व्यवस्था से प्रश्न करना है. बशर्ते ये प्रश्न समाधान देने वाले होने चाहिए. 

भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वभाव यही है. स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय पत्रकारिता ने समस्या को ठीक से पहचाना और अपना समूचा जोर उसके समाधान में लगा दिया. प्रतिबंध झेले, दंड झेले लेकिन समाधान की जिद नहीं छोड़ी. एक समाचारपत्र के कार्यालय पर अंग्रेज सरकार ताला लगाती तो दूसरा समाचारपत्र स्वतंत्रता के ओजस्वी स्वर को बुलंद करता. अंग्रेज सरकार एक बुलबुला अपने बूटों तले रौंदती तो दूसरी जगह से जलजला उठ खड़ा होता.

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स्वतंत्रता के बाद भी, व्यावसायिकता हावी होने के बाद भी, भारतीय पत्रकारिता ने समाधान देने के अपने स्वभाव को जिंदा रखा. यही कारण है कि संविधान की हत्या करके जब देश को आपातकाल की अंधेरी कोठरी में धकेला गया, तब भी पत्रकारिता का यह स्वभाव प्रदीप्त हो उठा. सामान्य दिनों में भी देशहित और लोकहित के मुद्दों पर पत्रकारिता ने लंबे विमर्श खड़े किए. किसी भी मुद्दे पर योजनापूर्वक समाचारों की श्रृंखलाएं तब तक प्रकाशित की, जब तक कि उसका समाधान न निकल आया. 

आज भी पत्रकारिता के विविध माध्यमों ने समास्याओं के बरक्स समाधान देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है. हां, समाधानमूलक पत्रकारिता की यह लौ मद्धम अवश्य पड़ी है लेकिन बुझी नहीं है. आवश्यकता है कि पत्रकारिता में आ रही नयी पीढ़ी इस बात को समझे और सनसनीखेज हो रही पत्रकारिता को समाधान देने वाली पत्रकारिता की ओर खींचकर लेकर जाए.

भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी कहते हैं, ''मीडिया की अवधारणा पश्चिमी है और नकारात्मकता पर खड़ी हुई है. इसे सकारात्मक भी होना चाहिए. मीडिया सिर्फ समाचारों के लिए नहीं है, यह समाज और राष्ट्र के लिए भी है. आज मीडिया के भारतीयकरण किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें देश की समस्यों पर सवालों के साथ समाधान हों, बौद्धिक विमर्श हों और देश की चिंता भी हो. समाज के दु:ख-दर्द और आर्तनाद में समाज को संबल देने का काम भी पत्रकारिता का हैं. पत्रकारों का काम केवल समाचार देना नहीं हैं. सत्यान्वेषण करना भी है.''

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सामान्य व्यक्ति जब अन्य संवैधानिक व्यवस्थाओं से निराश हो जाता है, तब वह पत्रकारिता के पास एक भरोसे के साथ आता है कि यहां उसे न्याय और उसकी समस्या का समाधान मिलेगा. पत्रकारिता उसकी आवाज बनकर वहां तक उसके प्रश्न को पहुंचाने का काम करेगी, जहां से समाधान प्रस्तुत होगा. आम आदमी के इसी विश्वास के कारण पत्रकारिता की साख है और उसे 'नोबल प्रोफेशन' का सम्मान प्राप्त है. अपनी इस प्रतिष्ठा और जनता के विश्वास की रक्षा के लिए भी पत्रकारिता को हंगामाखेज होने की अपेक्षा समाधानमूलक होने पर अधिक ध्यान देना चाहिए.

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लेखक

लोकेन्द्र सिंह राजपूत लोकेन्द्र सिंह राजपूत @lokendra777

लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रैवल ब्लॉगर हैं। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं। Twitter - https://twitter.com/lokendra_777

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