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Updated: 03 दिसम्बर, 2022 07:05 PM
कौशलेंद्र प्रताप सिंह
कौशलेंद्र प्रताप सिंह
  @Edkpsingh
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समय के साथ हमने बहुत से शब्द खो दिए, शब्दों के खोने में सत्ता का बहुत बड़ा हाथ रहा है, सत्ता चाहे राजा के घर में हो या संसद में, सबका चरित्र लगभग एक सा रहा है. हमने ही नहीं समूची दुनिया ने शब्दों को ब्रह्म माना है. वह ब्रह्म भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा तो बनता है, लेकिन उन्हीं के परिवार की कुलवधु की कुटिल मुस्कान उन्हीं से महाभारत करा जाती है. लेकिन अंधे थे वो राजा जिन्हें कुटिल मुस्कान न दिखी. दिखी तो राजपथ पर सत्ता में भागीदारी, वह सत्ता जो अपने सर्वोच्च अवस्था मे होते हुए भी शब्दों के आभाव में सर्वनाश की तरफ बढ़ रही थी. उस सत्ता के नायकों का गुणगान आज भी समाज ऐसे करता है, जैसे कल ही घटित हुआ हो.

जब जब सत्ता नष्ट हुई है, तब तब समाज अपनी सभ्यता व संस्कृति को भी नष्ट करते जाता है. दुःख तब और बढ़ जाता है जब तत्कालीन राजाओं को कुछ दिखता नहीं. खोने और पाने के खेल में राजा बहुत महत्वपूर्ण होता है. यदि राजा कृष्ण है तो कर्मणे वा धिकारे कहेगा. यदि राजा कंस है तो देवकी की संतानों की हत्या करेगा. कृष्ण और कंस के खेल में शब्द ही नहीं सत्ता भी अपने उच्चतम आदर्शों के साथ सूर्यास्त के बाद विपक्ष के खेमे में जाती है. आज वर्तमान सत्ता संसद में जो शब्दों का खेल किया, उस खेल की नायिका के रूप में, मीनाक्षी लेखी, स्मृति ईरानी, रंजीता रंजन और सुप्रिया सुले अपने आप को आसमान की उस ऊंचाई पर स्थापित किया, जहां पुरूषों को पहुंचने के लिए आधी आबादी को आज़ाद करना ही होगा. तुम सती के नाम पर सालों-साल जलाते रहे, दूसरा तलाक के नाम पर हलाला करता रहा.

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सलाम है उन पुरखों को जो सती को बरी तो किया पर सबरीमाला से वंचित रखा. चर्च के चंगुल से मुक्त हुई तो उन ग्रहों पर पहुंची, जहां न खुदा है न खातून. वहां कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है, इसी ज़मी पर है, जिसकी हिफाज़त हम सब को मिल के करनी है. तुम सब इतने कायर व बुज़दिल हो कि कहीं बुर्क़े में तो कहीं घूंघट में कैद कर के रखे हो. है हिम्मत तो दो बराबरी का दर्जा, धर्म के आडम्बर से अपने को मुक्त करते हुए, आस्था को बरकरार रखते हुए, आज संसद में हो रही बहस से अपने को जोड़ते हुए तीन तलाक़ मजबूरी नहीं ज़रूरी है का समर्थन करता हूं. उससे ज़रूरी यूनिफॉर्म सिविल कोड है, और सबसे ज़रूरी एक देश-एक कानून है, क्योंकि समय के साथ सियासत और शरियत अपना सब कुछ भूल चुकी है. अदम गोंडवी को पढ़ रहा था और जानने का प्रयास कर रहा था आखिर किस परिस्थिति में उन्होंने ऐसा लिखा होगा.

उतरा है रामराज विधायक निवास में

आज़ादी का वो जश्न मनाए तो किस तरह

जो आगए फुटपाथ पर घर की तलाश में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में

बाहर निकल कर आदमी को देखना चाहा तो, बरखा बहार बनकर बरस रही थी, नदियां सुख रही हैं और गलियां बाढ़ प्रभावित घोषित हो रही हैं. उन गलियों में कागज़ की फ़र्ज़ी नाव सतह पर तैर रही है. तैरने से आर्कमिडीज याद आ गए. आज दुनिया जो कुछ भी है, या कहे कि दुनिया जो चल रही है, आज इन्हीं जैसे महात्माओं से. तब आर्कमिडीज ने कहा था कि दुनिया मुझे खड़े होने की जगह दे तो मैं पृथ्वी को हिला दूंगा. उसी सिद्धान्त से निकली गैलेलियो की दूरबीन है, जिससे देखा कि ये महात्मा सब कहां है?

सबसे पहले स्वर्ग लोक में गांधी दिखे, भारत मे पैदा होने से आप न चाहते हुए भी किसी न किसी वाद का शिकार हो ही जाते है. गांधी तो हमारी जाति के न थे, पर थे वो भारत के, अतः उन्हें सरकारी फोन से सम्पर्क करना चाहा पर उत्तर मिल रहा था कि इस रूट की सब लाइनें व्यस्त हैं. गांधी बनिया थे पर पूंजी के विरोधी थे अतः हिम्मत करके अम्बानी के जिओ फोन से लगाया तो उधर से आवाज़ आयी कि मोहनदास करमचंद गांधी बोल रहा हूं.

बापू कहां है? आइये भारत बर्बाद हो रहा है. कड़े स्वर में बापू ने आने से मना कर दिया. बापू न आने का कारण, बोले वहां लोकतंत्र है, जहां लोगो ने मुझे दिवालो पर टांग दिया है. बकरी का दूध पीता था, आज उस बकरी से भारत मे बलात्कार हो रहा है. बीच मे एक आवाज़ आई. यह बुढ्ढा बहुत ही अख्खड़ और ज़िद्दी है. यहां भी आंदोलन चलाकर मुझे ज़मीन पर भेजना चाहता है. उसी समय कहा था कि लोकतंत्र तुम सब के लिए नहीं है. बापू से पूछा कि यह बगल से कौन बोल रहा है? बापू ने कहा विंस्टन चर्चिल.

पुनः बापू से पूछ बैठा कि तब तो नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश सब वही होंगे? बापू ने कहा कि भूख हड़ताल के चलते सब ब्लैक होल में चले गए. तब तक आर्कमिडीज दिख गए, मैंने कहा कि प्रभु आप तो आ जाइये बोले नहीं, मेरा प्रयोग ही पानी से प्रारम्भ हुआ था, तब राजतंत्र था पर पानी फ्री था. पानी तो प्रकृति पैदा करती है और लोकतंत्र उस पर व्यापार करता है. वह जगह अब ठीक नही है. पूछे कहां से बोल रहे हो? मैंने कहा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से, फोन पटकते हुए कहे कि हिंदुस्तान कहने में शरमाते हैं.

गैलेलियो की दूरबीन थी. अतः नैतिकता कहती है कि गैलेलियो से भी बात की जाए, तो पता चला कि ग़ालिब साहब उन्हें सुना रहे हैं...

जब मय-कदा छूटा तो फिर अब क्या जगह की कैद

मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो

गांधी, गैलेलियो औऱ आर्कमिडीज को आज नहीं आदि काल से आदमी मार रहा है. क्यों मार रहा है? मरने के बाद भी तो वह उसी आदमी के लिए काम कर रहा है, जो उसे मार रहा है.

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लेखक

कौशलेंद्र प्रताप सिंह कौशलेंद्र प्रताप सिंह @Edkpsingh

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इनको राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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