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Updated: 20 अक्टूबर, 2016 10:31 PM
संतोष चौबे
संतोष चौबे
  @SantoshChaubeyy
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मेरे लिए तो हिंदुत्व या हिंदूइज्म या हिन्दू होना जीवन जीने का एक तरीका है. और हिन्दू शब्द की उत्पत्ति इसकी पुष्टि भी करती है. हिन्दू शब्द का उपयोग पर्शियन और ग्रीक लोगों ने भारतीय उपमहाद्वीप में सिंधु नदी के उस पार रहने वाले लोगों के लिए करना शुरू किया था और इसका तात्पर्य मुख्यतः भौगोलिक और सांस्कृतिक था. हालाँकि इसपर मतभेद है कि कब हिन्दू शब्द एक धार्मिक पहचान का पर्यायवाची बन गया - मध्यकालीन भारत में या ब्रिटिश कोलोनियल भारत में - लेकिन कालांतर में आते-आते ऐसा हो गया था. और पिछली सदी या आज की बात करें - तो अब ये स्थापित सत्य है की हिंदूइज्म या हिन्दू धर्म भारत का सबसे बड़ा धर्म है अगर इसके अनुयायियों की तादाद से देखें तो.

कहा जाता है कि सावरकर ने हिंदुत्व शब्द की व्याख्या एक भारतीय राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने के लिए की थी लेकिन फिर भी हिंद्त्व सर्व-स्वीकार्य नहीं बन पाया तो इसके पीछे अपने निहित कारण थे और मुख्य था के हिंदुत्व को हिंदूइज्म से ही जोड़कर देखा गया. देश के आज़ाद होने के बाद कुछ  राईटविंग पार्टीज ने हिंदुत्व आधारित राजनीति को अपनी आइडियोलॉजी और एजेंडा बना लिया. जैसे जैसे इन राईटविंग पार्टीज का दायरा बढ़ता गया, वैसे वैसे धर्म को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने के आरोप भी बढ़ते गए - फिर चाहे वो रोज की राजनीति हो या चुनावी.

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इतना कि मामला कोर्ट में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट को इसपर व्याख्या देनी पड़ी.

दिसम्बर 1995 में न्यायाधीश जे.एस. वर्मा की तीन जजों की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि 'हिंदुत्व और हिंदूइज्म' भारतीय लोगों को और उनके सांस्कृतिक लोकाचार को दर्शाते हैं और इनका प्रयोग सेकुलरिज्म को बढ़ावा देता है.' न्यायाधीश वर्मा ने कहा कि ये भ्रम है कि  'हिंदुत्व और हिंदूइज्म' का उपयोग किसी भाषण को स्वतः ही हिन्दू धर्म से जोड़ देता है और अन्य धर्मों का विरोध करता है.

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 शब्द हिन्दू आपके लिए धर्म है या एक जीवन-पद्धति

मामला मनोहर जोशी समेत बीजेपी-शिवसेना के कुछ नेताओं का था जिनकी १९९० के महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में जीत को बॉम्बे हाई कोर्ट ने रिप्रजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट (आरपीए) के सेक्शन 123(3) के अन्तर्गत ख़ारिज कर दिया था. आरपीए के सेक्शन 123(3) के अनुसार धार्मिक आधार पर वोट मांगना भ्रटाचार की परिधि में आता है और मामला सही पाए जाने पर ऐसे उम्मीदवारों की जीत को रद्द कर दिया जाता है. मनोहर जोशी ने अपने भाषण में कहा था कि देश का पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में बनेगा और न्यायाधीश वर्मा ने निर्णय दिया था कि इस स्टेटमेंट से धार्मिक आधार पर वोट के लिए अपील करने का मामला नहीं बनता है.

न्यायाधीश वर्मा के इस निर्णय ने बीजेपी-शिवसेना समेत उन सभी राजनीतिक दलों का मार्ग प्रशस्त कर दिया जिनकी राजनीति हिंदुत्व के एजेंडे पर आधारित थी. बीजेपी के 2004 के विज़न डॉक्यूमेंट के अनुसार, 'इंडियननेस, भारतीयता और हिंदुत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पर्यायवाची हैं और यही हमारी राष्ट्रीय पहचान का आधार भी है.' अपनी बात के समर्थन में बीजेपी की वेबसाइट न्यायाधीश वर्मा का निर्णय भी पेश करती है.

लेकिन न्यायाधीश वर्मा के इस निर्णय का, जो अब 'हिंदुत्व जजमेंट' के नाम से जाना जाता है, का शुरू से ही विरोध होना शुरू हो गया था, सुप्रीम कोर्ट में भी. 'हिंदुत्व जजमेंट' के दिसम्बर 1995 में आने के 4 महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट की एक तीन जजों की बेंच ने एक केस की सुनवाई करते हुए कहा इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट कि एक पांच जजों की बेंच को सुनना चाहिए कि कब हिंदुत्व का प्रयोग का भ्रष्ट आचरण की परिभाषा में आ सकता है.

और जरूरत भी इसी की है.

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 चुनाव आते ही धर्म इतना जरूरी हो जाता है!

धर्म समाज को एक दिशा देते हैं और एक जीवन-पद्धति को परिभाषित करते हैं. हिन्दू, इस्लाम, क्रिश्चियनिटी, यहूदी, जैन, बौद्ध, सिख - सभी यही करते हैं. दिक्कत वहां होती है जब एक धर्म दूसरे पर खुद को थोपने की या दूसरे धर्म को नीचा दिखाने की या खुद को सार्वभौमिक साबित करने की कोशिश करता है. और राजनीति इसे और विद्रूप कर देती है.

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और दुर्भाग्य है कि हमारे देश के कई राजनीतिज्ञ और धर्म गुरु ऐसा ही करते आये हैं. अगर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना है तो धर्म को राजनीति से अलग करना होगा. लेकिन ये एक यूटोपियन ड्रीम हैं, कम से कम आज के भारत में. हमें नहीं पता है कि ऐसा होने में कितना समय लगेगा. और तब तक कानून को अपना काम करना होगा.

हिंदुत्व और हिंदूइज्म एक जीवन-पद्धति को परिभाषित करने वाले शब्द हैं इसमें दो-राय नहीं है लेकिन हमें देखना होगा इनका दुरुपयोग धर्म पर आधारित राजनीती में न हो, वोट बटोरने के लिए न हो. फिर चाहे वो हिन्दू धर्म हो या इस्लाम. हमें चुनावी राजनीति में हिंदुत्व और हिंदूइज्म के उपयोग में सन्दर्भ को परिभाषित करना होगा.

सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर कई केस चल रहे थे. कोई कोई केस तो 1992 से चल रहा है, कोई तीन जजों की बेंच में तो कोई पांच जजों की बेंच में. अब सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी केसों को एक सात जजों की कॉन्स्टिट्यूशन बेंच को सौंप दिया है जिसने इसपर 18 अक्टूबर से सुनवाई शुरू की है. इस बेंच की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर कर रहे हैं.

पहले ही बहुत देर हो चुकी है. उम्मीद है की इस बार कोई निर्णय जल्द आएगा. सुप्रीम कोर्ट हिंदूइज्म को परिभाषित करने के मुद्दे पर १९६६ से निर्णय देता रहा है और कहता रहा है कि हिंदूइज्म संस्कृति को दर्शाता हैं ना कि धर्म को. न्यायाधीश वर्मा ने अपने 1995 जजमेंट से 'हिंदुत्व' को भी हिंदूइज्म के समानार्थी ही बना दिया है. अब इस बात को भी 20 वर्ष हो चुके हैं जब सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी बेंच ने न्यायाधीश वर्मा के निर्णय की समीक्षा पर बल दिया था. पर स्थिति अभी भी साफ़ नहीं है. अब इसमें और देर नहीं होनी चाहिए.

लेखक

संतोष चौबे संतोष चौबे @santoshchaubeyy

लेखक इंडिया टुडे टीवी में पत्रकार हैं।

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