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Updated: 11 फरवरी, 2022 02:58 PM
रीवा सिंह
रीवा सिंह
  @riwadivya
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यूनिफ़ॉर्म का मतलब गणवेश या ड्रेस नहीं होता, वर्दी नहीं होती. यूनिफ़ॉर्म मतलब होता है एक समान. फ़िज़िक्स का बेसिक पढ़ते हुए यूनिफ़ॉर्म मोशन जैसी चीज़ें पढ़ी होंगी. कॉन्सेप्ट वही है. जो एक समान हो. वही यूनिफ़ॉर्मिटी जब कपड़ों में लायी गयी तो सभी एक-से कपड़े पहनने लगे और वह कपड़ा यूनिफ़ॉर्म हो गया. स्कूलों में यूनिफ़ॉर्म बेहद ज़रूरी भी है. बच्चे अलग-अलग परिवेश से आते हैं, सबके रहन-सहन, पहनावे में भिन्नता हो सकती है. यह भिन्नता तमाम अन्य भिन्नताओं को जन्म दे सकती है लेकिन बच्चों को पाठ्यक्रम पढ़ाने से पहले ज़रूरी है समानता पढ़ाना और इसलिए सबका एक-सा होना ज़रूरी है और यूनिफ़ॉर्म ज़रूरी है. सभी कॉलेजेज़ में यूनिफ़ॉर्म नहीं होते लेकिन कॉलेज में यूनिफॉर्म होते ही नहीं यह ग़लत है. मैंने अपने बीटेक व एमबीबीएस के दोस्तों को पूरा कोर्स यूनिफ़ॉर्म में पूरा करते देखा है.

मेरा स्कूल को-एड था. सभी पढ़ते थे और सभी धर्म के बच्चे थे. सभी यूनिफ़ॉर्म में आते, कोई सोचता भी नहीं कि अलग से कोई सहूलियत मिलेगी. या सभी ऐसे परिवेश से थे कि स्वछंद होकर पढ़ सकते थे इसलिए ऐसी स्थिति नहीं आयी. रक्षाबंधन के समय लड़कियां हाथों में मेहंदी लगा लेती थीं तो असेम्बली में अलग डिफ़ॉल्टर्स लाइन में खड़ा होना पड़ता. फ़्रेंडशिप डे के समय सबके हाथों में बैंड आये तो उसपर भी रोक लगी.

Hijab Controversy In Karnataka, Protest Over Hijab Row, Karnataka, Hijab, School, Girlsतमाम लोग ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि हिजाब मामले को जबरदस्ती तूल दिया जा रहा है ताकि विवाद हो

बाद में कलावा तक मना किया गया.हम उसपर बहस नहीं कर सकते थे क्योंकि वहां का ड्रेस कोड फ़ॉलो करना था. डीयू में आयी तो पूरी छूट थी, कोई यूनिफ़ॉर्म नहीं. आधा घण्टा यही तय करने में लग जाता कि क्या पहनकर जाऊं. साथ की सहेलियां जो बीटेक या एमबीबीएस कर रही थीं सलवार सूट में जाने लगीं. उन्हें मेरी लाइफ़ अच्छी लगती और मुझे उनकी कि कम से कम इसपर दिमाग नहीं खपाना कि पहनना क्या है.

उडुपी के जिस कॉलेज में हिजाब को लेकर प्रदर्शन चल रहा है वहां सिर्फ़ लड़कियां पढ़ती हैं और सलवार सूट यूनिफ़ॉर्म है. कॉलेज में हिजाब पर प्रतिबंध नहीं लगा. लड़कियों ने क्लास में भी हिजाब पहनकर रहने की बात कही इसपर रोक लगी है. मैं ब्रह्माण्ड में व्याप्त किसी भी तर्क के आधार पर हिजाब, घूँघट या किसी भी पर्दे का समर्थन व बचाव नहीं कर पाऊँगी.

आप मेरी कनपट्टी पर बंदूक तानकर भी मुझसे पर्दे का समर्थन नहीं करवा पायेंगे यह मैं पूरे यकीन के साथ कह रही हूं. मैंने कई विषयों पर ग्राउण्ड रिपोर्टिंग की है, महिलाओं को पर्दे में अफ़नाते-घुटते-कुढ़ते और फिर मुस्कुराते देखा है कि रिवाज़ है तो करना होगा न. हिजाब किसी की मर्ज़ी नहीं होती, किसी की भी नहीं, जो इसके समर्थन में लड़ रही हैं उनकी भी नहीं. हिजाब या तो मजबूरी है या कंडीशनिंग.

आप यहाँ हिजाब की जगह घूँघट या कोई और भी पर्दा प्रथा रख सकते हैं. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ी त्रासदी हिजाब या शॉल नहीं है. त्रासदी है इन पर्दों को धर्म के लिहाफ़ में इस कदर लपेटना कि वो महिलाएं जिन्होंने सदियाँ खपा दी हैं बेधड़क बाहर निकलने की ख़ातिर लड़ते हुए और समान अवसर के लिये, वो आज हिजाब और भगवा शॉल के लिये लड़ रही हैं.

वो महिलाएं जो घर से हिजाब में निकलती थीं और कॉलेज पहुँचकर उतार देती थीं कि पढ़ने का मौका तो मिल रहा हिजाब के बहाने ही सही, वो आज हिजाब के लिये लड़ रही हैं. वो महिलायें जिन्हें धूप से बचने के अतिरिक्त स्टोल की कभी ख़ास याद न आयी, आज भगवा स्टोल लपेटे, साफ़ा पहने हिन्दू बनी घूम रही हैं.

दर्जनों ऐसे किस्से मिल जाएंगे जहाँ लड़कियाँ हैंगआउट प्लान करती हैं, कहीं बाहर जाती हैं, सब वेस्टर्न कपड़े पहनते हैं लेकिन मुस्लिम दोस्त सलवार सूट ही पहन पाती है और वे फिर भी गले लगाकर स्वागत करती हैं. ड्रेसकोड किनारे कर ख़ुश होने को और उस दोस्त के आ सकने को वरीयता देती हैं. उस वक़्त ज़रूरी होता है कि वह दोस्त आ जाए, चाहें जैसे भी आये.

सलवार सूट पहनी दोस्त भी तमन्ना लिये होती है वेस्टर्न आउटफ़िट्स के लेकिन घर का ड्रेसकोड आड़े आता है. या ऐसी तमन्ना नहीं भी होती तो वहाँ कोई किसी को कपड़े के आधार पर जज नहीं करता क्योंकि लड़कियाँ निकल पा रही हैं यही सुकून होता है और इसे वरीयता दी जाती है.

वो लड़कियाँ जो सब दरकिनार कर अपने सुकून को वरीयता देती रहीं, सोचती रहीं कि जब अपने हाथ में कण्ट्रोल होगा तो सूरत बदल देंगी, आज पर्दे के लिये लड़ रही हैं. वो जिन्होंने इन लड़कियों को धर्म के नाम पर आमने-सामने खड़ा कर दिया है, पुरुष हैं. पुरुष जो सब गढ़ते हैं, सब तय करते हैं और उसे समाज व रिवाज़ का नाम देते हैं.

लड़कियाँ एकजुट थीं, मिलकर रास्ते निकालना जानती थीं लेकिन एकजुट लड़कियाँ समाज के चंगुल में नहीं रहतीं तो चुटकी भर धर्म मिलाकर पूरी सूरत बदल दो. इन लड़कियों को वरीयता देनी थी भविष्य को, अवसरों को लपकना था, आज ये पर्दे के समर्थन में उतर गयी हैं. दोनों पर्दों का रंग अलग है उद्देश्य एक लेकिन पर्दा आपको स्पष्ट देखने की सहूलियत कहाँ देता है.

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लेखक

रीवा सिंह रीवा सिंह @riwadivya

लेखिका पेशे से पत्रकार हैं जो समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं.

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