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Updated: 14 दिसम्बर, 2016 08:59 AM
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नोटबंदी का असर सांप्रदायिक कैसे हो सकता है यह बात हर किसी के मन में उठती है. क्या नोटबंदी का सांप्रदायिकरण कर असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं, या फिर बीजेपी नोटबंदी के सांप्रदायिक ध्रुविकरण को हवा देकर इससे परेशान लोगों का ध्यान बंटाना चाहती है. दरअसल ये इतना ब्लैक एंड व्हाइट मसला नहीं है जितना काला और सफेद धन है. इसे समझने के लिए हमने जयपुर के पुराने शहर की तंग गलियों को छाना और जो कुछ छन कर बाहर आया उसका काले-गोरे से कोई वास्ता नहीं है. ये मसला पूरी तरह से दो जून की रोटी का है.

हमने शुरुआत जयपुर के जौहरी बाजार से की जहां पर हिंदू और मुस्लिम आबादी एक साथ, बराबरी की संख्या में रहती है. वहां पर बैंक आफ बड़ौदा की शाखा में मुस्लिम पुरुष और महिलाओं की लंबी कतारें दिखीं. जयपुर में ये नजारा हैरान करने वाला था क्योंकि पिछले कई दिनों से जयपुर के किसी बैंक में कोई लाइन नहीं दिख रही है तो भला यहां क्यों है, और बैंक की लाइन में लगे सभी लोग मुस्लिम हीं क्यों हैं. हमने उनसे जानना चाहा कि प्रधानमंत्री के इस नोटबंदी को किस तरह से देखते हैं, लेकिन हमें नोटबंदी को लेकर मुस्लिम समुदाय में खासी नाराजगी देखने को मिल रही है. पहली नजर में आपको लग सकता है कि ये सभी मुस्लिम मोदी विरोधी हैं. ये नजारा अकेला नहीं था, समूचे मुस्लिम इलाकों में बैंकों में भारी भीड़ थी और लंबी-लंबी लाइनें लगी थीं. जबकि दूसरे इलाकों में बैंक खाली थे.

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 सभी मुस्लिम इलाकों में बैंकों में भारी भीड़ थी

अपने पैसे निकालने के लिए धक्का-मुक्की करते दिखे 32 साल के युसूफ कहना है कि जयपुर के जवाहरात बाजार में 80 फीसदी काम मुस्लिम करते हैं, जिसे नगीनों का काम कहा जाता है, ऐसे में काम खत्म होने से सब बेरोजगार होने लगे हैं. अब तीन दिन में एक दिन नगीनों की गद्दी पर बैठाते हैं अब आगे जाने क्या होगा. जिन जौहरियों के यहां काम करते थे सबने पुराने नोटों में तनख्वाह देकर और कहीं-कहीं तो एडवांस देकर हिसाब कर दिया है. वो सारा पैसै हमने बैंक में जमा कर दिए मगर निकालने पर दो-तीन हजार ही मिलते हैं. हम तो रोज कमाने और खाने वाले लोग हैं कहां से पैसे लाएं.

इतने में 55 साल की एक महिला रिजवाना तो हमारे कैमरे पर ही बात करते-करते फूट-फूट कर रोने लगी. उसका कहना था कि उसके मालिक ने दो महीने की छुट्ठी कर दी है. ऐसे में कहां जाएं, बेटे भी साथ में हीं हैंडीक्राफ्ट फैक्ट्री में काम करते हैं. जो पैसे मिले थे वो सब जमा करने के लिए पहले लाइन में लगते थे और अब निकालने के लिए लगते हैं.

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 रोज कमाने और खाने वाले लोगों को हो रही है परेशानी

यहां एक बात तो साफ हो गई कि मालिक और नौकर दोनों की आमदनी पर असर पड़ा है. बस फर्क इतना भर है कि फैक्ट्री मालिक और जौहरी के पास इतना है कि वो इन मुस्लिमों की तरह हजार-दो हजार के लिए जमा करने और निकालने के लिए लाइन में नहीं लग रहे हैं.

एक दर्जन से ज्यादा लोगों से हम पूछते रहे कि ऐसा क्या है कि मुस्लिम इलाकों में हीं इतनी लंबी-लंबी लाइनें लग रही हैं. लेकिन सीधे जवाब देने के बजाए भीड़ अपनी परेशानी बताने में ज्यादा उत्सुक दिख रही थी. एक साथ सभी बल पड़ते थे मैं कई दिन से आ रहा हूं, दो हजार रुपए देकर भेज देते हैं, कोई बोलता था सुबह आठ बजे से लाइन में लगी हूं, तो कोई महिला गोद में लिए अपनी बच्ची को दिखा कर बता रही थी कि कितनी परेशानी है बच्चे को लेकर घंटों लाइन में खड़ा रहना. इसके बाद हम नगीनों के बाजार पहुंचे जहां बाजार के अध्यक्ष मुस्तफा का कहना था कि नोटबंदी ने मुस्लिम समुदाय की कमर तोड़ दी है. साथ ही नाराजगी भी है जिसकी एक बड़ी वजह है कि मुस्लिम समाज में नौकरी पेशा कम लोग हैं ज्यादातर छोट-छोटे व्यवसायी है जिनके नोटबंदी की वजह से व्यवसाय पर बुरा असर पड़ा है. इसके अलावा छोटे-छोटे व्यवसाय जैसे जयपुर नगीने, रजाइयों, चूड़ियों, लाह-लाठी, साफा और शेरवानी बनाने के दस्तकारी का काम करते हैं, जिनका काम बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इसी तरह मुस्लिम बाजारों में भी व्यपारी कह रहे हैं कि व्यपार में घाटा बढ़ता जा रहा है. रोजाना के सौ रुपए की भी बिक्री नहीं है, पैसे-दो पैसे के लिए मोहताज हो रहे हैं. कुछ बुजुर्गो से भी हमने बात कि तो कहा कि अल्लाह ने ये दिन दिखाए हैं वही ठीक करेगा.

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जब हमने बैंक के अधिकारियों से इस बारे में पूछा तो इनका कहना था कि बैंकों में भीड़ की एक वजह ये भी है कि मुस्लिम समाज के ज्यादातर लोग बैंक में पैसे नहीं रखते हैं वो घर में रखते हैं, ऐसे में नोटबंदी के बाद पुराने नोट बैंक में जमा करने और जरुरत के लिए पैसे निकालने के लिए बैंकों में कतारें लग रही हैं.

लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि समाज के सभी लोग नोटबंदी के इस सामाजिक पहलू को सांप्रदायिक नजरीए से नही देखें. कुछ युवक ये कहते मिले कि ये कदम मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जानबूझकर उठाया गया है, तो दूसरी तरफ बाजार के बाहर कुछ लोगों ने हमसे पूछा कि- क्यों भाई आप नोटबंदी का असर मुस्लिम समुदाय पर हीं क्यों देखते हैं. आपको पता नहीं है कि इन इलाकों में लंबी-लंबी कतारें क्यों लग रही हैं. इन लोगों ने अपने मालिकों और सेठों का कालाधन अपने एकाउंट में रख रखा है. रोजाना 100 रुपए की दिहाड़ी पर एकाउंट से पैसे निकालकर उनको लौटाते हैं. लगे हाथ उन लोगों ने बता दिया कि नोटबंदी से असली कमाई तो इन्हीं मुस्लिम समुदाय की हो रही है, कालेधन को सफेद करने का कमीशन मिल रहा है. असली घाटा तो हम व्यपारियों को मोदी जी ने दिया है.

दिन भर घूमने के बाद हमें लगा कि दरअसल इस देश में आप सभी तरह की खुशी, गम, उत्सव, त्रासदी में सांप्रदायिक रंग खोज सकते हैं, क्योंकि वर्गीकरण मनुष्य के स्वभावगत विशेषता है. केवल हिंदू होते तो जातियों में बांटकर समस्या के कारणों का सरलीकरण कर लेते. एक ही जाति के होते तो उपजातियों में विभाजन कर माजरा समझ लेते. अगर केवल मुस्लिम होते तो शिया-सुन्नी में बांटकर दोषारोपण कर लेते. यानी मुस्लिम समाज के नेता भले ही समस्या का वर्गीकरण सांप्रदायिक आधार पर कर रहे हैं, लेकिन ये समस्या सामाजिक है.

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