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Updated: 10 जनवरी, 2020 07:25 PM
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नागरिकता संशोधन कानून और NRC (CAA-NRC and NRP) पर विपक्षी एकता में दरार पड़ गयी है. ये दरार ठीक वैसी ही है जैसी आम चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने को लेकर देखने को मिली थी. बीती बातों के नतीजों से भविष्य का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है.

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने 13 जनवरी को दिल्ली में विपक्षी दलों की एक बैठक बुलायी है, जिसमें CAA-NRC को लेकर मोदी-शाह के खिलाफ कोई एकजुट एक्शन प्लान तैयार किया जा सके. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee boycotts Opposition Meet) ने प्रस्तावित बैठक में हिस्सा लेने से साफ मना कर दिया है.

ममता बनर्जी ने विपक्ष की इस अहम मीटिंग के बहिष्कार की जो वजह बतायी है, वो बड़ा ही अजीब लगती है - सवाल है कि फिर असल वजह क्या है? ममता बनर्जी को राहुल गांधी को नजरअंदाज करते तो अक्सर देखा गया है लेकिन सोनिया गांधी को लेकर ऐसा अंदाज बड़े दिनों बाद नजर आ रहा है - क्या वास्तव में दोनों की प्राथमिकताएं अलग अलग होने के चलते ऐसा हुआ है?

CAA-NRC और NPR पर विपक्ष में दरार

ममता बनर्जी खुद भी दोहराती रही हैं कि दिल्ली आने पर वो सोनिया गांधी से मिलती जरूर हैं. ये राय राहुल गांधी को लेकर कभी नहीं रही है. बल्कि, ऐसा भी हुआ है कि ममता बनर्जी ने 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की और कहीं और रहने के कारण राहुल गांधी नहीं मिले तो छोड़ ही दिया. पिछली बार भी ममता बनर्जी जब दिल्ली आयीं तो सोनिया गांधी से इसलिए नहीं मिल सकीं क्योंकि वो हरियाणा में हो रहे विधानसभा चुनावों में व्यस्त रहीं.

2017 में सोनिया गांधी की बनारस में ही तबीयत खराब हो गयी और दिल्ली आने पर कुछ दिन अस्पताल में भी गुजारने पड़े - तब विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशों के तहत सोनिया गांधी ने अस्पताल से ही ममता बनर्जी को कॉल किया और वो बुलावे पर आयीं भी.

sonia gandhi, mamata banerjeeसोनिया गा्ंधी से ममता बनर्जी की ताजा नाराजगी सिर्फ चुनावी है या फिर...

आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ है जो ममता बनर्जी कहने लगी हैं कि वो कांग्रेस की तरफ से आयोजित बैठक में हिस्सा नहीं लेंगी. ममता बनर्जी का कहना है कि वो 8 जनवरी को देशव्यापी बंद के दौरान पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों के उपद्रव के विरोध में ऐसा कर रही हैं.

लगे हाथ, ममता बनर्जी ये भी कह रही हैं कि वो CAA, NRC और NPR के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगी लेकिन बंद और हिंसक प्रदर्शनों का सपोर्ट नहीं करेंगी - भले ही इसके लिए टीएमसी नेता को 'एकला चलो...' का रास्ता क्यों न अख्तियार करना पड़े.

सूबे के कांग्रेस और लेफ्ट के नेताओं को ममता बनर्जी के विपक्ष की मीटिंग से दूर रहने का फैसला अजीब तो लग ही रहा है, जो वजह बता रही हैं वो भी बचकाना लगता है. ममता बनर्जी ने लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस पर तोहमत मढ़ते हुए मीटिंग से दूर रहने की बात कही है. ये ममता बनर्जी ही हैं जिन्होंने गैर-बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से CAA के खिलाफ एक मंच पर आने की अपील की थी - और अब वो उस विरोध के नाम पर दूरी बना रही हैं जिसमें ठीक उसी छोर पर वो भी खुद के खड़े होने का दावा कर रही हैं.

ममता बनर्जी के इस स्टैंड से जो राजनीतिक संकेत मिल रहे हैं, उसे भी वो राज्य के विपक्षी नेताओं पर ही मढ़ दे रही हैं.

विपक्ष की मीटिंग के बहिष्कार की घोषणा भी ममता बनर्जी ने राइटर्स बिल्डिंग के भीतर विधानसभा के फ्लोर पर की है. वो भी तब जब विपक्षी विधायक CAA के खिलाफ सदन से प्रस्ताव पारित करने की मांग कर रहे थे. विपक्षी विधायकों की मांग ठुकराते हुए ममता बनर्जी बोलीं, 'आप लोग पश्चिम बंगाल में अलग पॉलिसी अपनाते हो और दिल्ली में उसके बिलकुल उलट चले जाते हो - मैं आप लोगों की तरह नहीं हो सकती. '

खबर है कि ममता बनर्जी ने विधानसभा से निकलने के बाद एनसीपी नेता शरद पवार को फोन किया और उसी वजह के चलते मीटिंग में शामिल न होने की बात बतायी. अब लेफ्ट और कांग्रेस की ओर से यहां तक कहा जाने लगा है कि ममता बनर्जी दिल्ली में बैठे बीजेपी नेतृत्व को खुश करने के लिए ऐसा कर रही हैं.

विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाने से पहले सोनिया गांधी ने रामलीला मैदान की कांग्रेस रैली के मंच से भी नागरिकता कानून के खिलाफ घरों से निकल कर आंदोलन करने की अपील की थी. कानून के खिलाफ मोदी सरकार के प्रति विरोध को आगे बढ़ाते हुए सोनिया गांधी पूरे परिवार के साथ राजघाट में धरना भी दिया और संविधान की प्रस्तावना भी पढ़ी.

ऐन मौके पर ममता बनर्जी का पीछे हट जाने को तो सोनिया गांधी के लिए बड़ा झटका ही समझा जा सकता है.

क्या सोनिया 2.0 का प्रभाव कम हो रहा है?

महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड - तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को कुछ न कुछ फायदा जरूर हुआ है. ये तो सोनिया गांधी के कारण ही हुआ है - लेकिन उससे आगे बात नहीं बन रही है. आखिर क्यों?

ऐसा लगता है जो काम राहुल गांधी ने नहीं होने दिये, सोनिया गांधी वही करने की कोशिश कर रही हैं - लेकिन तब और अब में काफी कुछ बदल चुका है. कोई भी राजनीतिक मोर्चा या गठबंधन अब क्षेत्रीय दलों की मर्जी पर निर्भर करता है. खास तौर पर वहां जिन राज्यों में जल्द ही विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.

हो सकता है दिल्ली में आम चुनाव में कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का गठबंधन हुआ होता तो विधानसभा चुनाव में भी जारी रहता - लेकिन अब तो इसकी भी गारंटी नहीं. मायावती तो अखिलेश यादव के साथ आम चुनाव लड़ कर गठबंधन तोड़ देती हैं - और शिवसेना चुनाव जीतने का बाद भी.

अब तो बंगाल में कांग्रेस और टीएमसी के बीच कोई समझौता होने से रहा. लिहाजा ममता बनर्जी ने पहले ही साफ कर दिया है कि अगर पश्चिम बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस एक जैसा व्यवहार करेंगे तो राष्ट्रीय स्तर पर वो भला क्यों साथ खड़ी होंगी. वैसे भी ये सिर्फ बीजेपी विरोध की बात नहीं है - वोट बैंक के पास क्या मैसेज जाता है ये ज्यादा अहम मसला है.

वरना, बीजेपी तो पूरे चुनाव लोगों को यही समझाती रहेगी कि ममता बंगाल में कांग्रेस से लड़ती हैं और दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ मोर्चे पर डटी रहती हैं - ममता बीजेपी को ऐसा कोई मौका कतई नहीं देना चाहतीं.

ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति अपनी जगह है और सोनिया गांधी के सामने जो चैलेंज है वो बिलकुल अलग है - ऐसा क्यों लगता है जैसे सोनिया गांधी के दूसरे अवतार में कांग्रेस की कमान संभालने के बाद पार्टी ही नहीं विपक्षी खेमे में भी असर पहले जैसा नहीं हो रहा है. कभी कभी तो लगता है जैसे कम ही होने लगा है.

महाराष्ट्र और झारखंड का केस थोड़ा अलग रहा. महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ सीटें जीत कर आ जाने से कांग्रेस की हैसियत बढ़ गयी - और झारखंड में महागठबंधन का हिस्सा बन कर चुनाव लड़ने से सब कुछ बदल गया. मगर, बाकी जगह हालात बिलकुल बदलने को तैयार नहीं लगते.

राहुल गांधी के इस्तीफे के और अमेठी से वायनाड शिफ्ट हो जाने के बाद ज्यादातर जगह प्रियंका गांधी ही एक्टिव नजर आ रही हैं. बीच बीच में राहुल गांधी भी नजर आ जाते हैं. ट्विटर पर ही सही - लेकिन विपक्ष पर कांग्रेस की पकड़ लगातार कमजोर होती जा रही है.

सोनिया गांधी के दोबारा मोर्चा संभालने की बड़ी वजह दो ही रहीं. एक, कांग्रेस की कमान कहीं गांधी परिवार के हाथ से फिसल न जाये - और दो, विपक्ष को फिर से UPA की तरह साधा जा सके. महाराष्ट्र और झारखंड के प्रयोग कब तक चलेंगे अभी कहना मुश्किल है. बंगाल में ममता बनर्जी ने रंग दिखा ही दिया है - बिहार में भी इसका टेस्ट होने में ज्यादा दिन नहीं बचे हैं.

समझने वाली बात ये है कि सोनिया गांधी और ममता बनर्जी के सामने चुनौतियां अलग अलग हैं. सोनिया गांधी को जैसे भी संभव हो बचाना और बनाये रखना कांग्रेस को है. ममता बनर्जी को न तो सियासी रिश्तों से मतलब है, न विपक्षी एकता से - ममता बनर्जी को तो बस बंगाल में टीएमसी को सत्ता में बनाये रखने की कोशिश है. ऐसे में हर किसी की अपनी जरूरत है और सभी अपने अपने हिसाब से सोच और काम कर रहे हैं? आखिर में पूरा नुकसान राष्ट्रीय स्तर पर पूरे विपक्ष को हो रहा है - और सीधा फायदा सत्ता पर काबिज बीजेपी को मिल रहा है.

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