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Updated: 07 जनवरी, 2020 05:11 PM
प्रभाष कुमार दत्ता
प्रभाष कुमार दत्ता
  @PrabhashKDutta
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दिल्ली (Delhi) के करीब 1.5 करोड़ मतदाता 8 फरवरी (Delhi Election date) को दिल्ली की नई सरकार चुनने के लिए अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे और 11 फरवरी को इसके नतीजे (Delhi Election Result) भी आ जाएंगे. सत्ताधारी आम आदमी पार्टी (AAP) को उम्मीद है कि अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की अपील और सरकार के प्रदर्शन के हिसाब से वह दोबारा सत्ता में आएंगे. वहीं भारतीय जनता पार्टी (BJP) पीएम मोदी (Narendra Modi) के चेहरे पर दिल्ली चुनाव (Delhi Assembly election 2020) लड़ रही है और 22 सालों के बाद दिल्ली में भाजपा की वापसी की उम्मीद कर रही है। इसके अलावा कांग्रेस (Congress) दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहती है, भले ही इसके लिए केजरीवाल दोबारा सत्ता में क्यों ना आ जाएं. दिल्ली विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए उसकी उपस्थिति और ब्रांड केजरीवाल की नाक का सवाल है. बता दें कि दिल्ली अकेले ऐसा राज्य है, जहां आम आदमी पार्टी सत्ता में है.

Delhi Assembly election Kejriwal Modi Rahulदिल्ली चुनाव केजरीवाल, मोदी और राहुल गांधी के बीच सीधी लड़ाई है.

केजरीवाल हारे तो हाशिए पर चली जाएगी आम आदमी पार्टी

2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीटें मिली थीं. हालांकि, बाद में उपचुनाव में आम आदमी पार्टी एक सीट हार गई थी. ऐसे में दिल्ली में अगर उनका प्रदर्शन पहले की तुलना में आधा रह गया होगा, तभी वह हारेंगे. इस बार केजरीवाल का टारगेट है 67 पार. हालांकि, ऐसा होना मुमकिन नहीं लगता, क्योंकि दिल्ली में प्रो-इनकम्बेंसी जैसी कोई लहर नहीं दिख रही है.

अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव हारती है तो इससे अरविंद केजरीवाल भारत की राजनीति में हाशिए पर चले जाएंगे. ऐसा होता है तो अरविंद केजरीवाल देश की राजनीति में एक बार के हीरो की तरह भी बन सकते हैं.

दिल्ली के अलावा अगर किसी राज्य में आम आदमी पार्टी की थोड़ी बहुत पकड़ है तो वह है पंजाब, जहां इसके 19 विधायक और एक लोकसभा सांसद हैं. 2014 के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में 4 लोकसभा सीटें जीती थीं. अब अगर केजरीवाल हार जाते हैं तो उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती आ खड़ी होगी.

दिल्ली चुनाव सीधे-सीधे पीएम मोदी की नाक का सवाल

दिल्ली भाजपा के लिए खट्टे अंगूर जैसी है, जो लोकसभा में तो अच्छा प्रदर्शन करती है, लेकिन विधानसभा चुनाव में उसके दांत खट्टे हो जाते हैं. 2013-19 तक देश में मोदी लहर देखने को मिली है, लेकिन बावजूद इसके भाजपा दिल्ली में पहले 2013 का चुनाव हारी, जबकि वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसके बाद 2015 में विधानसभा चुनाव हुए, तो भाजपा को फिर से हार का सामना करना पड़ा. बल्कि 2015 के चुनाव में तो भाजपा सिर्फ 3 सीटें ही जीत पाई, बाकी की 67 सीटें आम आदमी पार्टी जीती थी.

दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा पूरी तरह से पीएम मोदी के चेहरे पर निर्भर है. लेकिन इस बार भाजपा ने मोदी के चेहरे के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों को भी उठाना शुरू किया है. इसने अरविंद केजरीवाल की सरकार की उपलब्धियों को काउंटर करने के लिए स्थानीय मुद्दे उठाने शुरू किए हैं. भाजपा की केंद्र सरकार भी दिल्ली की राजनीति में परफेक्ट रोल प्ले कर रही है.

केंद्र सरकार ने अनऑथराइज कॉलोनियों को आधिकारिक बना दिया, जहां केजरीवाल ने 2015 में पानी की पाइप से सप्लाई का वादा किया था. दिल्ली विधानसभा चुनाव की शाम को केंद्र सरकार ने जो कदम उठाया वह कांग्रेस के 2008 के कदम जैसा है, जब सत्ताधारी पार्टी ने अनऑथराइज कॉलोनियों में रहने वालों को मालिका हक का सर्टिफिकेट बांटा था. कांग्रेस ने उसके बाद सत्ता बनाए रखने में कामयाबी पा ली थी, इस बार भाजपा भी सत्ता वापसी की उम्मीद जगाए बैठी है.

लेकिन आखिरकार ये पीएम मोदी की छवि है, जो भाजपा के लिए दाव पर लगी है क्योंकि भाजपा ने घोषणा कर दी है कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ रही है. भाजपा दिल्ली चुनाव में बिना मुख्यमंत्री उम्मीदवार के ही उतरी है. इसने आम आदमी पार्टी को भाजपा पर हमला करने का एक मौका दे दिया है कि केजरीवाल बनाम कौन? यह भाजपा की चुनावी रणनीति रही है कि मोदी बनाम कौन?

भाजपा ने दिल्ली चुनाव में 2008 में वीके मल्होत्रा, 2013 में हर्षवर्धन और 2015 में किरण बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार की तरह उतारा था. वह सभी भाजपा को दिल्ली में जीत दिलाने में नाकामयाब रहे. अगर भाजपा इस बार भी हार जाती है तो इससे ब्रांड मोदी को तगड़ा झटका लगेगा. खासकर उस समय में जब पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने, नागरिकता कानून लागू करने और एनआरसी जैसे फैसले लिए हैं, जिनका सड़कों पर बहुत से लोगों ने विरोध भी किया है.

सब हार चुकी कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं

भले ही सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष हैं, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव राहुल गांधी के लिए परीक्षा की घड़ी जैसा है, जिन्होंने पार्टी की तमाम दिक्कतों को सुलझाने में अपना समय और एनर्जी खर्च की है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का एक अलग ही रिकॉर्ड है. 2015 में उसने एक भी सीट नहीं जीती है. इसके अलावा 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल पाई थी.

2015 का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस ने दिल्ली की जिम्मेदारी अजय माकन को सौंपा. 2019 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर कुछ विवाद के चलते अजय माकन ने पिछले साल जनवरी में इस्तीफा दे दिया था. राहुल गांधी ने इसके बाद जिम्मेदारी शीला दीक्षित को दी, जिसके बाद 3 बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी शीला दीक्षित ने दिल्ली में कांग्रेस को संभालने की कोशिश की.

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 7 में से 5 सीटों पर तीसरे स्थान तक धकेल दिया. कांग्रेस ने भी दिल्ली में अपने वोटिंग प्रतिशत में सुधार किया और 22 फीसदी तक पहुंची. लेकिन पिछले साल शीला दीक्षित की मौत के बाद कांग्रेस एक बार फिर लड़खड़ा गई है.

दिल्ली कांग्रेस के प्रमुख सुभाष चोपड़ा और कैंपेन कमेटी के चेयरमैन कीर्ति आजाद ने पूरे भरोसे के साथ कहा है कि कांग्रेस इस बार सत्ता में वापसी करेगी. लेकिन ये बहुत ही बड़ा दावा लग रहा है. चोपड़ा और आजाद दोनों ही राहुल गांधी की पसंद रहे हैं और दिल्ली चुनाव में एक और झटका राहुल गांधी की राजनीतिक छवि को आघात पहुंचाएगा.

वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस के पास दिल्ली विधानसभा चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है, सिर्फ उसे पाना ही पाना है. एक अच्छी राजनीतिक रणनीति के जरिए कांग्रेस दिल्ली में केजरीवाल और मोदी के खिलाफ दोहरी एंटी इनकम्बेंसी का फायदा उठा सकती है. लेकिन ये इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस दिल्ली चुनाव में धरातल पर उतरकर भाजपा और आम आदमी पार्टी के खिलाफ अपनी बात कितने मजबूती से कहती है और उन्हें काउंटर करने में कितना सफल होती है.

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प्रभाष कुमार दत्ता प्रभाष कुमार दत्ता @prabhashkdutta

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्टेंट एडीटर हैं.

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