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Updated: 30 जुलाई, 2021 09:15 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारत के आजाद होने से पहले अपने एक भाषण में यूं ही वामपंथियों (Communist) को रूस से चेतना लेने वाला नहीं बताया था. वो बात अलग है कि कालांतर में रूस से चेतना लेने वाले भारत के वामपंथी अब 'चीन का चेयरमैन, हमारा चेयरमैन' के नारे के साथ आगे बढ़ रहे हैं. शायद यही वजह रही होगी कि जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party of China) के सौ साल पूरे होने पर भारत की ओर से दोनों देशों के बीच चल रहे सीमा विवाद को ध्यान में रखते हुए सरकार ने किसी तरह के बधाई संदेश से दूरी बनाए रखी. तो वहीं, भारत के वामपंथी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल का जश्न मनाने में लहालोट नजर आए. इस जश्न को मनाने के लिए हाल ही में चीनी दूतावास द्वारा आयोजित एक डिजिटल कार्यक्रम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी राजा, डीएमके के एस सेंथिलकुमार और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के जी देवराजन शामिल हुए.

वामपंथी नेताओं ने इस कार्यक्रम के दौरान एक सुर में चीन के कोरोना मैनेजमेंट और उसकी सरकार की उपलब्धियों की तारीफ की.वामपंथी नेताओं ने इस कार्यक्रम के दौरान एक सुर में चीन के कोरोना मैनेजमेंट और उसकी सरकार की उपलब्धियों की तारीफ की.

चौंकाने वाली बात ये भी रही कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इंटरनेशनल डिपार्टमेंट के काउंसलर डू शीओलिन (Du Xiaolin) भी इस वेबिनार का हिस्सा थे. वैसे, 1962 का भारत-चीन युद्ध हो या महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन करने से इनकार हो, हमारे देश के वामपंथी विचारधारा के नाम पर चीन के पक्ष में जाकर खड़े होते रहे हैं. मीडिया रपटों के अनुसार, इन तमाम वामपंथी नेताओं ने इस कार्यक्रम के दौरान एक सुर में चीन के कोरोना मैनेजमेंट और उसकी सरकार की उपलब्धियों की तारीफ की. खैर, वामपंथियों की विचारधारा लंबे समय से चीन के साथ खड़े होने वाली रही है, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ नहीं है. लेकिन, जब चीन के साथ भारत का सीमा विवाद अपने चरम पर है. और, भारत सरकार लगातार चीन पर दबाव बनाने की कोशिशों में लगी हुई है. ऐसे समय में विचारधारा की आड़ लेकर देशहित को किनारे रखते हुए चीन के साथ खड़े हो जाना कहीं से भी उचित नजर नहीं आता है.

अगर मान भी लिया जाए कि एक ही विचारधारा की पार्टी होने के तौर ये नेता इस वेबिनार से जुड़े थे. तो, इस स्थिति में सवाल उठने लाजिमी है कि क्या वामपंथी नेताओं के लिए देशहित से ऊपर उनकी विचारधारा है? जिस कोरोना वायरस के चीन की वुहान लैब से लीक होकर दुनियाभर में तबाही मचाने के आरोप लग रहे हों, भारत के इन वामपंथी नेताओं के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई थी, जो चीन के कोरोना मैनेजमेंट को लेकर उसकी तारीफ करने में लग पड़े? चीन के साथ जारी सीमा विवाद पर इन वामपंथी नेताओं ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की विस्तारवादी नीति पर सवाल क्यों नहीं उठाए? वैसे, इन सभी सवालों का बहुत सीधा और स्पष्ट जवाब ये कहा जा सकता है कि भारत के वामपंथी हमेशा से ही आयातित विचारों को भारत में लागू करने के पक्षधर रहे हैं.

वैसे, भारत के वामपंथी नेताओं के बारे में कहा जाता है कि आम पर हो रही चर्चा को कैसे मोड़ते हुए पपीते पर ले आना है, ये इनसे सीखा जा सकता है. तो, इस मामले के सामने आने पर भी इन नेताओं ने ऐसा ही किया. चीन के जश्न में शामिल हुए इन नेताओं ने अपना बचाव करते हुए कहा कि भारत सरकार भी चीन से कई मुद्दों पर वार्ता कर रही है. इंडिया टुडे के कार्यक्रम इंडिया फर्स्ट में आए सीपीआई के नेता दिनेश वार्ष्णेय कहते नजर आए कि मोदी सरकार की हिप्पोक्रेसी है, जो चीन के विदेश मंत्री और नॉर्दन कमांड में चीनी सैन्य अफसरों से बात कर रही है और हमारी बातचीत पर सवाल उठा रही है. कुल मिलाकर वो ये बताना चाह रहे थे कि भारत सरकार भी चीन से बात कर रही है, तो हमने बात कर कौन सा गुनाह कर दिया.

हालांकि, वो ये बताना भूल गए कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल पूरा होने के मौके पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का 'खून-खराबा फैलाने' वाला आक्रामक भाषण किसके लिए था. चीन की विस्तारवादी नीति की निंदा करना वो भूल गए. ये कहीं से भी गले नहीं उतरता है कि चीन के उकसावे वाली हरकतों की वजह से हुई गलवान घाटी की हिंसक झड़प के बाद भारत के वामपंथी चीन के सामने ऐसा माहौल बना रहे हैं कि हमारे देश में एक धड़ा उनके साथ मजबूती के साथ खड़ा हुआ है. ऐसे समय में जब देश के सभी राजनीतिक दलों को एक साथ मिलकर चीन की इस अराजकता के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. भारत के वाम दलों को नेता चीनी सरकार के गुणगान में जुटे हैं.

जब चीन के राजदूत गलवान घाटी की झड़प पर अपने देश को पाक साफ बता रहे थे, तब वामपंथी नेताओं ने देशहित को बड़ा मानते हुए इसका विरोध क्यों नहीं किया? लेकिन, इस मामले पर विवाद के बाद वामपंथी नेता डी राजा ये कहना नहीं भूले कि किसी को भी कम्युनिस्टों को राष्ट्रहित सिखाने की जरुरत नहीं है. लेकिन, जब बात देश की हो, तो किसी को राष्ट्रहित सिखाया नहीं जाता है. ये देश के लिए एक आम भावना है , जो लोगों में बसी हुई है. लेकिन, चीन के नाम पर इन वामपंथियों का राष्ट्रहित हमेशा की तरह ही डांवाडोल नजर आता है. राजनीतिक रूप से केरल में सिमट चुकी वामपंथी विचारधारा के ये पुरोधा गलवान घाटी की हिंसक झड़प पर भी मोदी सरकार को ही दोष दे रहे थे.

भारत के वामपंथियों को राष्ट्रहित या देशहित की बात समझ में आना दूर की कौड़ी है. देश को नक्सलवाद जैसी समस्या देने में वामपंथी विचारधारा का ही हाथ है. लेकिन, भारत के वामपंथी इतना तो सोच ही सकते हैं कि जब चीन के साथ भारत पूरी ताकत के साथ लोहा लेने में लगा हुआ है. तो, एक भारतीय राजनीतिक दल के रूप में वो देश के लिए अपनी विचारधारा को किनारे रखते हुए एक साथ आने की कोशिश तो कर ही सकते हैं.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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