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Updated: 23 जुलाई, 2022 05:07 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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तृणमूल कांग्रेस ने शिक्षा भर्ती घोटाले से खुद को अलग कर लिया है, लेकिन क्या पार्थ चटर्जी (Partha Chatterjee) से भी तृणमूल कांग्रेस या ममता बनर्जी खुद को अलग कर सकते हैं? जिस घोटाले को लेकर पार्थ चटर्जी को गिरफ्तार किया गया है - आखिर उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी?

तृणमूल कांग्रेस का आधिकारिक बयान पार्थ चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी (Arpita Mukherjee) के घर से 20 करोड़ कैश बरामद होने के बाद आया है. प्रवर्तन निदेशालय ने अर्पिता मुखर्जी को भी हिरासत में लिया हुआ है. आधिकारिक बयान में कहा गया है कि तृणमूल कांग्रेस का पैसों से कोई लेना देना नहीं है. जांच में जिनके भी नाम सामने आए हैं, जवाब देना उनका और उनके वकीलों का काम है. ये भी कहा गया है कि टीएमसी अभी पूरे मामले को करीब से देख रही है और वक्त आने पर प्रतिक्रिया दी जाएगी.

पार्थ चटर्जी से 24 घंटे से ज्यादा की पूछताछ के बाद ये गिरफ्तारी हुई है. अर्पिता मुखर्जी के घर से मिले कैश के अलावा 20 फोन भी जब्त किये गये बताये जाते हैं. हालांकि, ये साफ नहीं है कि अर्पिता मुखर्जी के घर पर इतने सारे फोन का क्या इस्तेमाल होता रहा.

अर्पिता मुखर्जी के अलावा प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों ने कई और ठिकानों पर छापेमारी की थी - माणिक भट्टाचार्य, आलोक कुमार सरकार, कल्याण गांगुली के यहां भी छापा मार कर जांच पड़ताल हुई है.

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की अगुवाई वाली पश्चिम बंगाल सरकार में पार्थ चटर्जी फिलहाल वाणिज्य और उद्योग विभाग के मंत्री हैं. साथ में संसदीय कार्य विभाग के प्रभारी भी हैं. पार्थ चटर्जी 2001 में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने थे और अब तक पांच बार ऐसा हो चुका है. 2011 में ममता बनर्जी की सरकार बनने से पहले पार्थ चटर्जी विधानसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे.

पार्थ चटर्जी 2014 से 2021 तक ममता बनर्जी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे - और SSC यानी स्कूल सर्विस कमीशन के जरिये शिक्षा विभाग की भर्तियों में गड़बड़ी का जो मामला सामने आया है वो उसी दौरान का बताया जाता है. पार्थ चटर्जी और कुछ फिल्मों में काम कर चुकीं अर्पिता मुखर्जी एक प्रमुख दुर्गा पूजा आयोजन समिति से भी जुडे़ हैं.

...और ये पहला घोटाला नहीं है!

2013 में शारदा और 2017 में नारदा स्टिंग के जरिये सामने आये घोटाले के बाद शिक्षा भर्ती घोटाला तीसरा बड़ा मामला है. जब जब ये घोटाले सामने आये हैं, सिर्फ मुख्यमंत्री होने के नाते ही ममता बनर्जी अपने राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर नहीं आ जातीं बल्कि अपने करीबियों पर आरोप लगने से ज्यादा दिक्कत होती है.

partha chatterjee, arpita mukherjee, mamata banerjeeपार्थ चटर्जी का बचाव भले न करें, लेकिन ममता बनर्जी पल्ला भी नहीं झाड़ सकती

2011 में ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी थीं और दो साल बाद शारदा घोटाला सामने आया जिसमें ममता बनर्जी के बेहद करीबी मुकुल रॉय घिर गये - ध्यान रहे तब देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार हुआ करती थी. जब केंद्र में सत्ता बदली मुकुल रॉय ने कुछ दिन बाद पाला बदल लिया. माना तो यही गया कि वो जांच-पड़ताल से आजिज आकर ऐसा किये थे. बीजेपी में उनको बहुत कुछ तो नहीं मिला लेकिन राहत तो मिली ही. 2021 के चुनाव के बाद तो वो फिर से तृणमूल कांग्रेस में लौट चुके हैं.

ठीक वैसे ही जब ममता बनर्जी 2016 के चुनाव की तैयारी कर रही थीं तभी नारदा स्टिंग के जरिये एक और घोटाला सामने आया - और उसमें भी ममता बनर्जी के कई करीबी लपेटे में आये. नारादा घोटाले में तो शुभेंदु अधिकारी का नाम भी आया था, लेकिन बीजेपी में चले जाने के बाद अभी तो वो ममता बनर्जी को ही टारगेट कर रहे हैं.

खास बात ये है कि ये सारी चीजें ममता बनर्जी के शासनकल में ही हो रही हैं. ताजा मामले से भले ही तृणमूल कांग्रेस भले ही दूरी बना रही हो, लेकिन अब तक तो यही देखने को मिला है कि ममता बनर्जी हमेशा ही अपने लोगों का बचाव करती आयी हैं - और देखा तो यहां तक गया है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद वो अपने नेताओं के लिए चुनावों जीता भी सुनिश्चित करती हैं और सरकार बनाने पर मंत्री भी बना देती हैं. 2016 में तो ऐसा ही देखा गया.

जाहिर है ममता बनर्जी को अपने नेताओं पर इतना ज्यादा भरोसा होता होगा. मुकुल रॉय के साथ भी ऐसा ही हुआ करता था - और दूसरे नेताओं के साथ भी मामला मिलता जुलता ही है. पार्थ चटर्जी के मामले में ममता बनर्जी का क्या रुख होता है, अभी देखना बाकी है.

ये ममता बनर्जी ही हैं जो अपने एक सीनियर पुलिस अफसर को बचाने के लिए खुले आसमान के नीचे धरने पर बैठ जाती हैं - और जहां तक संभव होता है पूरी ताकत से लड़ती भी हैं. तब तक जब तक कि कोई गुंजाइश नहीं बनती.

लेकिन क्या ममता बनर्जी ने कभी ऐसे नेताओं को समझाने की कोशिश भी की है? क्या ममता बनर्जी ने ये जानने या समझने की कोशिश की होगी कि ये सब उनकी सरकार के नाक के नीचे होता कैसे है? ममता बनर्जी की छवि तो बेहद साधारण जीवन जीने वाली इमानदार और फाइटर राजनेता की रही है, लेकिन वो अपने इर्द-गिर्द के लोगों के लिए प्रेरणास्रोत क्यों नहीं बन पातीं? अपने होने की वजह से करीबी लोगों को किसी भी तरह की अनियमितता बरतने से रोक क्यों नहीं पातीं?

पुलिस किसी भी राज्य की हो स्थानीय पुलिस को लेकर ये माना लिया जाता है कि छोटे मोटे केस सुलझाने के लिए वो अपनी तरफ से छोटे मोटे अपराधियों के पास से हेरोइन की पुड़िया, चाकू और देसी कट्टे रख कर बरामदगी दिखा देते हैं. कोर्ट में केस भले ज्यादा दिन न चल पाये और वे छूट जायें इसकी भी परवाह नहीं रहती.

क्राइम मामलों की रिपोर्टिंग के दौरान मैंने खुद भी पुलिस अफसरों को अपने मातहतों को इस बात के लिए भी डांटते हुए देखा है कि एनडीपीएस में केस दर्ज किया तो ड्रग्स की मात्रा कम क्यों रखा? फिर तो वो पहली ही तारीख पर ही छूट जाएगा? दरअसल, पुलिस महकमे में ये भी एनकाउंटर का ही छोटा सा नमूना होता है.

अब अगर ममता बनर्जी की तरफ से ये दावा नहीं किया जा रहा है कि जांच एजेंसी के अधिकारियों ने ही नोटों से भरी गड्डी पार्थ चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी के घर में रखी है, तो यही समझा जाना चाहिये कि छापेमारी में कुछ भी गलत नहीं हुआ है. है कि नहीं?

केस भ्रष्टाचार का तो गिरफ्तारी राजनीतिक कैसे?

तृणमूल कांग्रेस की शुरुआती प्रतिक्रिया के बाद ममता बनर्जी सरकार के परिवहन मंत्री फिरहाद हकीम पार्टी और सरकार के बचाव में आये - और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई का ठीकरा केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी पर फोड़ दिया.

ममता बनर्जी के करीबियों में गिने जाने वाले, फिरहाद हकीम कहते हैं, 'ED की ये छापेमारी शहीद दिवस रैली के एक दिन बाद हुई है, जिसने पूरे देश में हलचल मचा दी थी... ये टीएमसी के नेताओं को परेशान करने व डराने-धमकाने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है... अदालत के निर्देश के तहत सीबीआई पहले ही उनसे पूछताछ कर चुकी है और वे सहयोग कर रहे हैं... अब उनको बदनाम करने के लिए ईडी का सहारा लिया जा रहा है... भाजपा ने मनी लॉन्ड्रिंग का मामला गढ़ा है.'

प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों की टीम ने शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच के सिलसिले में पार्थ चटर्जी के साथ साथ परेश अधिकारी के घर पर भी रेड डाली थी. परेश अधिकारी पश्चिम बंगाल सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री हैं.

कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश पर सीबीआई इस मामले की पहले से ही जांच कर रही है - और प्रवर्तन निदेशालय मामले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग की पड़ताल कर रहा है. करीब 26 घंटे की पूछताछ के बाद ई़डी की गिरफ्तारी से पहले सीबीआई पार्थ चटर्जी से दो बार पूछताछ कर चुकी है - पहले 25 अप्रैल को और फिर 18 मई को.

शिक्षा राज्य मंत्री परेश अधिकारी से भी सीबीआई की पूछताछ हो चुकी है - और फिरहाद हकीम उसी की याद दिला रहे हैं. हालांकि, वो ये याद दिलाना भूल जा रहे हैं कि परेश अधिकारी की बेटी की सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में बतौर शिक्षक हुई नियुक्ति को कलकत्ता हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था - और 41 महीने की नौकरी के दौरान मिली तनख्वाह लौटाने का भी कोर्ट ने आदेश दिया था.

अब जिस मामले की सीबीआई जांच हाई कोर्ट के निर्देश पर हो रही हो, उसी मामले में ईडी की कार्रवाई को महज राजनीतिक कैसे समझा जाये?

पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी का मामला भी अदालत से होकर ही गुजरता है, ये तो ममता बनर्जी और उनके साथियों को भी मानना ही पड़ेगा - और ऐसे में सत्ता पक्ष पर सीधे सीधे ये इल्जाम भी नहीं बनता कि केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है?

डरना भी है, लड़ना भी है!

दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने करीबी डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी की आशंका जता रहे थे - और कोलकाता में ममता के पार्थ चटर्जी अरेस्ट हो जाते हैं. मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में दोनों एक ही छोर पर खड़े हैं - और दोनों ही तेजी से 2024 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर काबिज होने की तैयारी कर रहे हैं.

काफी पहले की बात है कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों की एक मीटिंग बुलायी थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी फिलहाल ईडी के फेरे में फंसे हुए हैं. राहुल गांधी के बाद सोनिया गांधी से भी एक दिन पूछताछ हो चुकी है - और अब 26 जुलाई को पेश होना है.

सोनिया गांधी की उस मीटिंग में ममता बनर्जी और तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे उद्धव ठाकरे भी मौजूद थे. उद्धव ठाकरे का एक सवाल ममता बनर्जी से था - दीदी, डरना है या लड़ना है?

भला कौन कहेगा कि लड़ना नहीं है. डरने की बात तो किसी को भी स्वीकार नहीं होगी, लेकिन कहीं कहीं डरना भी जरूरी होता है. कानून से तो सबको डरना ही चाहिये - और ममता बनर्जी को भी कानून का डर अपने करीबियों में भी कायम रखना चाहिये. लड़ाई तो चलती ही रहेगी.

अगर ममता बनर्जी या उद्धव ठाकरे को लगता है कि केंद्र की सत्ता में शामिल नेता भी ऐसे ही भ्रष्टाचार कर रहे हैं तो वे अदालत क्यों नहीं जाते?

केस की पैरवी तो करनी ही पड़ेगी: सबूत जुटायें और जाकर कोर्ट में केस फाइल करें. उनके वकील दलील पेश करें, जिरह करें और कोर्ट को कंवींस करें कि कहां और कैसे गड़बड़ी हो रही है. अगर नीचे की अदालतों में सुनवाई नहीं हो रही तो हाई कोर्ट जायें और वहां से भी निराशा हाथ लगती है तो सुप्रीम कोर्ट जायें.

आखिर सुप्रीम कोर्ट केस की मेरिट के हिसाब से त्वरित सुनवाई भी तो करता ही है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या फांसी की सजा पाये आतंकवादी याकूब मेमन के केस की सुनवाई के लिए आधी रात को अदालत लगती - और क्या कर्नाटक में बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा के जबरन मुख्यमंत्री बन जाने के बाद कोर्ट के आदेश आते ही भाग खड़े होने की नौबत आती.

मानते हैं कि कहीं कहीं इंसाफ की लड़ाई में देर के साथ साथ अंधेरा भी नजर आने लगा है - लेकिन हर तरफ ऐसा ही तो नहीं है. अगर तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार वाले मामलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर लोगों में असंतोष है या उनका निजी संदेह हावी है, तो जुबैर मोहम्मद को भी तो वहीं से जमानत मिलती है.

ऐसी चीजों को सबको रेड अलर्ट की तरह लेने की जरूरत है. अरविंद केजरीवाल तो राजनीति में भ्रष्टाचार खत्म करने के वादे के साथ ही आये थे, लेकिन अभी तो उनके ही मंत्री सत्येंद्र जैन मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में जेल में हैं - और अरविंद केजरीवाल अब आशंका जता रहे हैं कि मनीष सिसोदिया के साथ भी ठीक वैसा ही हो सकता है.

वैसे तो जब तक अदालत किसी को दोषी न करार दे, हम स्वाभाविक तौर पर बेकसूर ही मानते हैं - लेकिन अगर कहीं धुआं निकल रहा है तो वहां आग लगी होने का शक तो होता ही है - और कैशलेस जमाने में किसी के भी घर से 20 करोड़ कैश बरामद हो तो शुरुआती तौर पर भी बेनिफिट ऑफ डाउट तो मिलने से रहा.

ये नया नेक्सस है: राजनीति और अपराध के गठजोड़ की बीमारी नयी नहीं है. बस अपराध की प्रकृति बदली है. राजनीति में अब वैसे अपराधियों के लिए स्कोप पूरी तरह खत्म हो चुका है जो अपने इलाके में दबदबे और हथियारों की ताकत के बल पर बूथ कैप्चरिंग किया करते थे. अब चुनावों के लिए और बाकी सालाना खर्चों के लिए फंड की जरूरत पड़ती है - और जो महंगाई और दूसरी दुश्वारियों से जूझ रहे हैं वे तो यूं ही वोट भी नहीं देने वाले, लिहाजा उनको समझाने बुझाने के लिए भी प्रचार प्रसार पर काफी खर्च करना पड़ता है - लेकिन ये सब आएगा कहां से?

यही वो पक्ष है जो हर पार्टी में फंड मैनेजरों के लिए सॉफ्ट कॉर्नर बना देता है - और कमाऊ पूत तो हर परिवार में सबसे प्यारा होता ही है. उसकी अनाप शनाप आदतें भी बर्दाश्त कर ली जाती हैं. लेकिन रोज रोज की यही अनदेखी किसी दिन बड़ी मुसीबत बन कर परिवार पर टूट पड़ती है.

ऐसी मिलती जुलती ही मुसीबत ममता परिवार पर टूट पड़ी है. परिवार का मतलब सिर्फ अभिषेक बनर्जी या उनकी पत्नी ही नहीं होता, जो भी आसपास होते हैं परिवार के सदस्य ही होते हैं - और राजनीति में तो रिश्ते और भी मायने रखते हैं.

राजनीति में वारिस तो बेटा ही होता है, लेकिन बाकी रिश्ते भी चार कदम आगे बढ़ कर निभाये जाते हैं. यूपी बिहार से लेकर महाराष्ट्र की राजनीति तक ऐसे मामले देखे जा सकते हैं. अगर ऐसा न होता तो आखिर क्यों उद्धव ठाकरे सरकार के दौरान नारायण राणे और नवनीत राणा ही गिरफ्तार किये गये - उनसे बड़ा टेंशन देने वाले राज ठाकरे नहीं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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