New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 01 सितम्बर, 2021 09:54 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
  • Total Shares

इस बात में शायद ही दो मत होंगे कि भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे पर अपने साथ एक बड़ा वोट बैंक खड़ा कर लिया है. 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस एजेंडे को और धार मिली. भाजपा की इस सियासी रणनीति का असर ऐसा हुआ कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी जनेऊ पहनकर शिवभक्त, आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल खुद को हनुमान भक्त और सपा के मुखिया अखिलेश यादव अपने आप को कृष्णभक्त साबित करने में जुट गए. इस दौरान तकरीबन हर सियासी दल के नेताओं ने सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाते हुए अपनी पार्टी की 'छवि' को बदलने की कोशिश की है. जो राजनीतिक पार्टियां 2014 से पहले चुनावी पिच पर खुलकर मुस्लिम वोट बैंक के लिए बैटिंग करती नजर आती थीं. उन्होंने अचानक से पलटी मार ली. एमवाई समीकरण से लेकर तमाम सियासी गुणा-गणित का नतीजा चुनावी मार्कशीट में 'फेल' लिखकर आने लगा. सियासी मजबूरी में ही सही केंद्र में मोदी सरकार आने के साथ ही विपक्षी दलों ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और अब वो मुस्लिम वोट तो चाहते हैं लेकिन मुस्लिम समर्थक कै टैग लगे बिना.

दरअसल, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ भाजपा के उद्भव ने मुस्लिम वोट बैंक की प्रासंगिकता को करीब-करीब हाशिये पर डाल दिया है. इस मामले में पश्चिम बंगाल को अपवाद मानकर छोड़ा जा सकता है. लेकिन, तकरीबन हर राज्य में भाजपा को सियासी टक्कर देने के लिए राजनीतिक दल मुस्लिम वोट बैंक तो चाहते हैं, लेकिन अब इसके लिए खुलकर कोशिशें करने से कतराने लगे हैं. वहीं, बीते कुछ सालों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की मुस्लिम मतदाताओं के बीच बढ़ रही पकड़ का एक सबसे बड़ा कारण भी यही कहा जा सकता है, पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन से उत्साहित असदुद्दीन ओवैसी अब उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी ताकत को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.

राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ भाजपा के उद्भव ने मुस्लिम वोट बैंक की प्रासंगिकता को करीब-करीब हाशिये पर डाल दिया है.राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ भाजपा के उद्भव ने मुस्लिम वोट बैंक की प्रासंगिकता को करीब-करीब हाशिये पर डाल दिया है.

ओमप्रकाश राजभर के भागीदारी संकल्प मोर्चा के साथ मिलकर असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम मतदाताओं को तमाम राजनीतिक दलों की मुसलमानों को वोट बैंक मानने की सोच को खुलकर सामने रख रहे हैं. ओवैसी की पार्टीलाइन बिल्कुल साफ है, वो मुसलमानों को किसी राजनीतिक दल का वोट बैंक नहीं बनने देना चाहते हैं और राजनीति में हिस्सेदारी की मांग करते हैं. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम पर भाजपा की 'बी' टीम होने का आरोप लगता रहता है. लेकिन, वो खुद को मुसलमानों का राष्ट्रीय नेता बनाने की कोशिशों में कोई हीला-हवाली नहीं करते नजर आते हैं. राम मंदिर, धारा 370, सीएए, लव जिहाद जैसे हर मुद्दे पर ओवैसी संसद से लेकर सड़क तक बेबाक तरीके से मुस्लिम पक्ष की बात रखते हैं. और, मुसलमानों के नए मसीहा बनने की ओर धीरे से सही लेकिन कदम बढ़ा रहे हैं.

इसके उलट आज के समय में कांग्रेस, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी समेत तमाम दलों के सामने मुश्किल ये खड़ी हो गई है कि अगर मुस्लिम वोटों के लिए थोड़ा सा भी प्रयास करते हुए दिखते हैं, तो बहुसंख्यक वोट के छिटकने का खतरा बना रहता है. अगले साल की पहली तिमाही में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बसपा मुस्लिम मतदाताओं को साथ लाने की जगह सोशल इंजीनियरिंग के जरिये ब्राह्मण वोटरों को जोड़ने की कवायद में लगी हुई है. समाजवादी पार्टी में मुस्लिम समाज का चेहरा कहे जाने वाले आजम खान से अखिलेश यादव ने जो दूरी बना रखी है, वो आसानी से समझी जा सकती है. यूपी के सियासत में मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस जरूर नसीमुद्दीन सिद्दीकी के सहारे मुस्लिम वोटों के लिए कोशिश करती नजर आ रही है. लेकिन, सपा, बसपा और एआईएमआईएम के होते हुए इसका फायदा उसे होता नजर नहीं आ रहा है. 2019 में मोदी सरकार के आने के बाद हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा लिया था.

भाजपा ने देश की राजनीति को इस कदर बदल दिया है कि अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति करने वाले दलों को अब बहुसंख्यक वोट पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और वाम दलों ने पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी आईएसएफ से गठबंधन किया था. असम में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन किया था. इन दोनों ही राज्यों के चुनाव परिणामों ने बता दिया कि सियासी दलों के लिए मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करना खतरनाक साबित हो रहा है. कहना गलत नहीं होगा कि आज के समय में भाजपा से नाराज वोटर किसी अन्य राजनीतिक दल की ओर रुख तभी करते हैं, जब उस पर मुस्लिम समर्थक होने का टैग न लगा हो. कुल मिलाकर भाजपा का सियासी विकल्प बनने के लिए राजनीतिक दलों को सेकुलर छवि को किनारे रखना पड़ रहा है. अगर वो ऐसा नहीं करते हैं, तो उन पर मुस्लिम परस्त होने का तमगा लग जाएगा.

#मुस्लिम, #विपक्ष, #यूपी विधानसभा चुनाव 2022, Muslim Votebank In Uttar Pradesh, Opposition, Samajwadi Party

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय