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Updated: 10 दिसम्बर, 2021 10:25 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल को रेस में पछाड़ने में लगी हुई हैं, ऐन उसी वक्त तृणमूल कांग्रेस नेता को 'नीतीश कुमार' बनाने की कवायद भी चल पड़ी है. एक दौर में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी ममता बनर्जी की ही तरह प्रधानमंत्री पद की होड़ में देखे जाते रहे, लेकिन धीरे धीरे ऐसे घिरते गये कि अब तो बिहार के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचाने के लिए भी जेडीयू नेता को कड़े संघर्ष से गुजरना पड़ रहा है.

2019 के आम चुनाव से पहले की राजनीतिक गतिविधियां छोड़ दें तो ममता बनर्जी पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से दिल्ली की गद्दी हासिल करने की कोशिश कर रही हैं, जबकि नीतीश कुमार तो कम से कम दो बार ऐसे असफल प्रयास कर चुके हैं - पहली बार 2013 में एनडीए छोड़ने से पहले और दूसरी बार NDA ज्वाइन करने से पहले तक, लेकिन आखिरकार मजबूर होकर पटना में ही डेरा जमाये रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में चुनावी हैट्रिक लगाने के बाद विपक्षी खेमे से ममता बनर्जी को संकेत तो पहले ही दिल्ली दौरे में मिल गये थे, महाराष्ट्र पहुंची तो संकेतों की पुष्टि भी हो गयी. शरद पवार की खामोशी को जबान दी संजय राउत ये इशारा कर कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकजुटता का तो कोई मतलब नहीं, शिवसेना को भी यूपीए में शामिल होने के बारे में सोचना चाहिये.

और उसके बाद गोवा से भी ममता बनर्जी को बुरी खबर मिली. 2022 के गोवा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से विपक्ष की जगह हथियाने में जुटीं ममता बनर्जी मेघालय की तर्ज पर तीन विधायकों वाली गोवा फॉर्वर्ड का तृणमूल कांग्रेस में विलय कराने की कोशिश में रहीं, लेकिन पार्टी प्रमुख विजय सरदेसाई ने पलटी मारते हुए सीधे राहुल गांधी को ही सपोर्ट करने का ऐलान कर दिया है. हां, कुछ दिन पहले गोवा फॉरवर्ड पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष किरण कंडोलकर ने पत्नी कविता कंडोलकर के साथ महुआ मोइत्रा और लुईजिन्हो फलेरियो की मौजूदगी में तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन जरूर कर लिया था.

20-25 साल पुरानी दोस्ती की दुहाई देते हुए गोवा में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी पी. चिदंबरम अब ममता बनर्जी को सलाह दे रहे हैं कि उनको कांग्रेस के साथ मिल कर बीजेपी को शिकस्त देने की कोशिश करनी चाहिये.

बीजेपी दीवार है, कांग्रेस रास्ते का रोड़ा

देश में बीजेपी के आगे कांग्रेस की राजनीतिक हैसियत भले ही भीगी बिल्ली जैसी हो चुकी हो, लेकिन ये भी सच है कि गांधी परिवार के आगे विपक्षी खेमे के ज्यादातर नेता नतमस्तक ही नजर आ रहे हैं - बाकी चीजें छोड़ भी दें तो ममता बनर्जी का दिल्ली और फिर महाराष्ट्र दौरा सबसे बड़ा सबूत है.

mamata banerjee, sonia gandhi, nitish kumarक्या सोनिया गांधी को अब विपक्ष का रिमोट कंट्रोल मिल गया है?

ममता बनर्जी ने जिस तरीके से कांग्रेस नेतृत्व को चैलेंज किया है और उसके नेतृत्व वाले यूपीए के अस्तित्व पर सवाल उठाया है, नीतीश कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया था - हां, नीतीश कुमार ने भी राहुल गांधी को रास्ते से हटाकर प्रधानमंत्री बनने का इरादा तो जताया ही था. कहने को तो अब भी जेडीयू के नेता नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल बता कर कभी कभार मीडिया की सुर्खियां बनवा ही देते हैं. जब बीजेपी नेता भी रिएक्ट कर देते हैं तो सुर्खियों की थोड़ी मियाद भी बढ़ जाती है.

ममता बनर्जी ने भी नीतीश कुमार की ही तरह बीजेपी नेतृत्व को अपने राज्य के विधानसभा में शिकस्त देकर आगे बढ़ी हैं. पहली बार तो नहीं लेकिन दूसरी बार 2015 में नीतीश कुमार भी ऐसे ही कदम आगे बढ़ाने लगे थे. नीतीश कुमार के सामने में बिहार में ही लालू प्रसाद यादव रास्ते की दीवार बने हुए थे, लेकिन ममता बनर्जी को चुनौती बंगाल से बाहर मिल रही है. अपने राज्य बंगाल में तो ममता बनर्जी का एकछत्र राज कायम है. अभी तो ऐसा मान ही सकते हैं.

कांग्रेस भी विपक्ष के लिए बीजेपी जैसी

भले ही कांग्रेस को बीजेपी के सामने अस्तित्व बचाये रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा हो, लेकिन विपक्ष के बाकी दलों के लिए कांग्रेस भी वैसी ही मुसीबत बनी हुई है. खासकर तब जब विपक्षी खेमे का कोई और नेता प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी को चैलेंज करने लगे.

नीतीश कुमार तो कांग्रेस से पहले बीजेपी से ही टकराये थे. बीजेपी से टकराने से यहां आशय नरेंद्र मोदी से मुकाबले से है. बाद में एनडीए से अलग होकर जब नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को नये सिरे से चैलेंज करने की कोशिश की तो रास्ते में पहले ही कांग्रेस खड़ी हो गयी - विपक्षी खेमे से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर राहुल गांधी के लिए रिजर्वेशन लेकर.

1. कांग्रेस के दबदबे का असर तो देखिये: कांग्रेस और गांधी परिवार से टकराने के बाद ममता बनर्जी की हालत भी अब नीतीश कुमार जैसी ही होती जा रही है - क्योंकि के प्रभाव में ही एनसीपी नेता शरद पवार और शिवसेना भी ममता बनर्जी के खिलाफ खड़े हो गये हैं. ममता बनर्जी को ये नहीं भूलना चाहिये था कि उद्धव ठाकरे ने सोनिया गांधी की मौजूदगी में ही ममता बनर्जी से पूछा था - दीदी डरना है या लड़ना है? ये तभी की बात है जब उद्धव ठाकरे पहली बार विपक्षी दलों की किसी मीटिंग में हिस्सा लिये थे.

गोवा में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी पी चिदंबरम बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के एकजुट होकर लड़ने के शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत के बयान को सही ठहरा रहे हैं. चिदंबरम के मुताबिक, संजय राउत ने विपक्ष को लेकर एक जिम्मेदार बयान दिया है. संजय राउत ने कहा था कि हमें देश में एक गैर-भाजपा विपक्ष की जरूरत है - और कांग्रेस को यूपीए के सभी दलों को एक साथ लाने की कोशिश और फिर नेतृत्व करना चाहिये.'

तृणमूल कांग्रेस को लेकर चिदंबरम कहते हैं, 'ममता बनर्जी का नजरिया अलग है... हमारा दृष्टिकोण अलग है. देश के लिए अच्छा होगा अगर दोनों एक साथ आ जायें.'

पश्चिम बंगाल से बाहर कदम बढ़ाने के मकसद से दिल्ली पहुंचने से पहले ममता बनर्जी ने जिन दो नेताओं से तैयारी करने की बात कही थी कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम उनमें से एक थे - और दूसरे थे एनसीपी नेता शरद पवार. दिल्ली के बाद शरद पवार ने ममता बनर्जी को दूसरी बार झटका दिया है.

2. पवार की चुप्पी को ममता नहीं समझ पायीं: शिवसेना सांसद संजय राउत के जिस बयान को चिदंबरम सही ठहराते हुए ममता बनर्जी को मशविरा दे रहे हैं, उसमें भी शरद पवार का ही प्रभाव देखा जा सकता है - क्योंकि संजय राउत का बयान आने से ठीक पहले ममता बनर्जी ने भतीजे अभिषेक बनर्जी के साथ शरद पवार से ही उनके घर जाकर मुलाकात की थी.

सिल्वर ओक की मुलाकात में शरद पवार को ममता बनर्जी ने सलाह दी कि महाराष्ट्र में वो शिवसेना के साथ मिल कर ही काम करें और कांग्रेस को गठबंधन से बाहर कर दें - और राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा ही प्रयोग किया जाये. मुलाकात के बाद ही ममता बनर्जी मीडिया से मिलीं और सवाल पर सवाल दाग दिया - यूपीए क्या है?

मुलाकात को लेकर ऐसी खबर आयी थी कि शरद पवार अभिषेक बनर्जी के प्रजेंटेशन के कई मुद्दों पर सहमति जताये थे, लेकिन विपक्षी खेमे से कांग्रेस को बाहर करने के सुझाव पर कुछ नहीं बोले. बाद में तो शिवसेना मुखपत्र सामना ने तो विस्तार से ममता बनर्जी को लेकर गाइडलाइन ही जारी कर दी थी.

अब तो संजय राउत का कहना है कि राहुल गांधी से मुलाकात में भी वो कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए में शामिल होने को लेकर दिलचस्पी दिखा चुके हैं और अपने नेता उद्धव ठाकरे को भी ऐसी ही सलाह देने वाले हैं.

ममता-नीतीश ही नहीं - उदाहरण और भी हैं

प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर ममता बनर्जी के मन में ख्याल यूं ही आया हो ऐसा भी नहीं है. 2019 में केंद्र की सत्ता में वापसी के बाद से ही बीजेपी सरकार की तरफ से जिस तरीके से ममता बनर्जी निशाने पर आ गयी थीं, गुस्सा बढ़ना भी स्वाभाविक ही था. खास कर लॉकडाउन के दौरान कोविड प्रोटोकॉल को लेकर. कभी गृह मंत्रालय नोटिस जारी कर देता तो कभी स्पेशल ट्रेनों को लेकर पीयूष गोयल हमला बोल देते - एक बार तो मुख्यमंत्रियों की मीटिंग में अमित शाह की मौजूदगी में ही ममता बनर्जी ने गृह मंत्रालय की तरफ से बंगाल सरकार के साथ भेदभाव बरते जाने की शिकायत तक दर्ज करायी गयी थी.

ममता बनर्जी तो अभी काफी बेहतर स्थिति में हैं, बनिस्बत नीतीश कुमार के मुकाबले. नीतीश कुमार तो लगता है कहने भर को बिहार के मुख्यमंत्री रह गये हैं क्योंकि कोई भी बड़ा फैसला वो बीजेपी नेतृत्व की मंजूरी के बगैर नहीं ले सकते.

एन. चंद्रबाबू नायडू: 2019 में ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री की कुर्सी में दिलचस्पी जगाने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं में टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू आखिर तक एक्टिव रहे. आम चुनावों से पहले ही नायडू की पार्टी टीडीपी ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था - और ममता बनर्जी के तेवर को देखते हुए उनको लगा कि मोदी-शाह से बदला लेने के लिए वो ठीक रहेंगी.

आंध्र प्रदेश में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे नायडू अपने पहले कार्यकाल में सूबे के सीईओ के तौर पर जाने जाते रहे - और हैदराबाद को साइबराबाद के रूप में पहचान बन गयी थी. नायडू ने आईटी को प्रमोट तो किया ही, उसका भरपूर इस्तेमाल भी किया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते गूगल हैंगआउट पर हुए लंबे सेशन से पहले सूचना तकनीक का राजनीति के लिए इस्तेमाल करने वाले नेताओं में नायडू काफी आगे रहे - और तभी वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी नजर टिका बैठे थे. इंद्र कुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा जैसे नेता उनके प्रेरणास्रोत बने होंगे.

तभी आंध्र प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के पिता वाईएसआर रेड्डी ने नायडू को सत्ता से बेदखल कर दिया - और फिर से सत्ता हासिल करने में पांच साल लग गये, लेकिन जब मुख्यमंत्री की कुर्सी के भी आसार कम हो गये हों तो प्रधानमंत्री बनने को लेकर ख्याल भला कैसे आयें.

2. अरविंद केजरीवाल: अन्ना हजारे के साये में जिस तेजी से आंदोलन के रास्ते अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में धमाकेदार एंट्री मारी थी, उनके भी इरादे तभी नजर आने लगे थे. दिल्ली में शीला दीक्षित को शिकस्त देने के बाद केजरीवाल का हौसला सातवें आसमान पर पहुंच गया था - और फिर वो सीधे वाराणसी पहुंच गये नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने.

तब से लेकर बार बार अरविंद केजरीवाल दिल्ली की बड़ी कुर्सी पर नजर टिकाये हुए हैं, ये बात अलग है कि उसके लिए केजरीवाल को बार-बार यू-टर्न भी लेना पड़ा है - तभी तो वामपंथी रुझान वाले लोगों के साथ आम आदमी पार्टी के जरिये राजनीति शुरू करने वाले अरविंद केजरीवाल को 'जय श्रीराम' तक बोलना पड़ रहा है.

जैसे ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहले राहुल गांधी से जूझना पड़ रहा है, करीब करीब वैसे ही अरविंद केजरीवाल को ममता बनर्जी से दो-दो हाथ करने पड़ रहे हैं - और पहला गवाह बनने जा रहा है 2022 का गोवा विधानसभा चुनाव का मैदान.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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