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Updated: 30 मई, 2021 05:12 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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ठीक पांच साल पहले नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के भी ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) जैसे ही तेवर रहे - और तब वो तृणमूल कांग्रेस नेता की तरह कभी अकेले नजर नहीं आ रहे थे. पांच साल पहले इसलिए क्योंकि चुनाव तो 2015 में हुए थे, लेकिन साल के आखिर में. बिहार में राजनीतिक माहौल गर्म होना शुरू हुआ 14 जनवरी को पड़ने वाले त्योहार खिचड़ी के बाद जब च्यूड़ा दही खाने का रिवाज है. तब से लेकर और 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे आने तक नीतीश कुमार लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर रहे थे - और हर हमले में वो अपने तरीके से प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी भी जता दिया करते, लेकिन ये बात कांग्रेस को चुभ जाती और उसके नेता विरोध में ऐसे शोर मचाने लगते जैसे चुप रह गये तो पीएम की कुर्सी हाथ से निकल जाएगी.

ये ठीक है कि ममता बनर्जी को तब के नीतीश कुमार की तरह किसी लालू प्रसाद यादव की जरूरत न चुनावों में पड़ी, न अभी है और न ही निकट भविष्य में पड़ने वाली है, लेकिन उस दौर में नीतीश कुमार को जो ताकत लालू यादव से मिलती थी और दोनों को संयुक्त रूप से कांग्रेस के सबसे कम सीटों पर सिमट आने के बावजूद मिलती रही, उसकी खास अहमियत रही.

पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को दिल्ली बुलाये जाने का कांग्रेस की तरफ से विरोध जताया जाता है, लेकिन प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला की ही तरफ से. अभी तक ऐसा नहीं लगा है जैसे कांग्रेस नेतृत्व सहित विपक्ष के सारे नेता ममता बनर्जी के सपोर्ट में मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट हों.

कोई ठोस नतीजा भले न आये, लेकिन केंद्रीय जांच एजेंसियों को काम भर मसाले तो मिल ही जाते हैं जिनकी मदद से वो तृणमूल कांग्रेस नेताओं पर हाथ डाल भी देती हैं और पकड़ भी लेती हैं. अदालत में तो जो होना है, उनको भी पता है - और कुछ न सही ये सब होने पर ममता बनर्जी डिस्टर्ब तो होती ही हैं.

प्रधानमंत्री के साथ मीटिंग में ममता बनर्जी को पहुंचने में आधे घंटे देर हो जाती है और घंटों सीबीआई दफ्तर में अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए बर्बाद कर देती हैं. ये फालतू कवायद आखिरकार भारी तो पश्चिम बंगाल के लोगों पर ही पड़ रही है - ममता बनर्जी की जो एनर्जी मोदी सरकार के साथ टकराव में बर्बाद हो रही है अगर वो बंगाल के लोगों के कल्याण में इस्तेमाल होती तो क्या सबका फायदा नहीं होता?

ममता बनर्जी को ये बताने की कतई जरूरत नहीं है कि दिल्ली से मोदी-शाह की जोड़ी उनको कठघरे में खड़ा करने के लिए क्या क्या कर रही है और क्या क्या नहीं कर रही है? जो हो रहा है वो सबको पता है, लेकिन ममता बनर्जी कोई ऐसा तरीका क्यों नहीं खोज लेतीं जिससे वो अपनी पहली ड्यूटी भी निभा सकें और राजनीतिक मोर्चे पर भी मजबूत बनी रहें.

मोदी-शाह (Modi and Shah) तो चाह ही रहे हैं कि कैसे वो ममता बनर्जी को भी नीतीश कुमार बना डालें - और ममता बनर्जी हमेशा के लिए राजनीतिक तौर पर खामोश हो जायें. बीजेपी नेतृत्व के पास ऐसा करने के लिए दो तरीके हैं - या तो ममता बनर्जी मजबूर होकर एनडीए का हिस्सा बन जायें और बंगाल सरकार में भी बीजेपी को हिस्सेदार बना लें या तृणमूल कांग्रेस टूट कर बंट जाये और बीजेपी अपने मकसद में कामयाब हो जाये.

ममता बनर्जी का ताजा संघर्ष भी बीजेपी नेतृत्व के इरादे को काउंटर करने को लेकर ही है, लेकिन मुश्किल ये है कि लड़ाई के चक्कर में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल पर उतना ध्यान नहीं दे पा रही हैं, जितनी जरूरत है, हालांकि, वो चाहें तो पूरा ध्यान दे सकती हैं.

क्या ये टकराव टाले नहीं जा सकते?

चुनावी जंग की बात और थी. अभी की बात और है. ममता बनर्जी को अगर मोदी-शाह से बात बात पर दो-दो हाथ करने का शौक ही है तो अलग बात है, लेकिन ये रोज रोज की तू-तू मैं-मैं किस नतीजे पर पहुंचेगी, समझना बहुत मुश्किल भी नहीं है.

ममता बनर्जी के मामले में नीतीश कुमार की तरह लालू यादव जैसी कोई कमजोरी तो नहीं है, लेकिन अगर ऐसे ही वो लगातार सिर्फ मोदी सरकार से उलझे रहने में वक्त जाया करती रहीं तो बंगाल के लोगों का धैर्य जल्दी ही जवाब दे सकता है. ममता बनर्जी ने नारदा स्टिंग में फंसे नेताओं को पिछली बार अपने दम पर जिताया था, लेकिन अगर ममता बनर्जी अब लोगों के प्रतिकूल परिस्थितियों में फिर से मौका देने के बाद भी वो लोक हित के काम करने में चूक गयीं तो क्या होगा?

मानते हैं कि मौजूदा राजनीतिक माहौल के बीच ही केरल में पिनराई विजयन ने सत्ता में वापसी की है और तमिलनाडु में एमके स्टालिन सरकार बनाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन त्रिपुरा में सादगी की मिसाल और अपराजेय बन चुके माणिक सरकार भी तो बीजेपी के धावा बोल देने के बाद नहीं बच पाये.

क्या गारंटी है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल को त्रिपुरा बनने से आगे भी रोक पाने में कामयाब ही रहेंगी?

पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय के मामले में ममता बनर्जी ने अभी तक मोदी सरकार से आदेश वापस लेने और परेशान न करने की अपील की है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर टकराव होगा ही.

narendra modi, mamata banerjee, nitish kumarममता बनर्जी को मोदी-शाह से टकराव से ज्यादा सरकार और जनता के हितों पर ध्यान देना चाहिये, वरना नीतीश कुमार की ही तरह हर तरफ से घिर जाएंगी और तब कोई रास्ता भी नहीं सूझेगा

हाल में जब सीबीआई अफसर टीएमसी नेताओं से पूछताछ कर रहे थे तो ममता बनर्जी उनके पास पहुंच गयीं. बोलीं, गिरफ्तार करना है तो वे उनको करें, उनके मंत्रियों और नेताओं को छोड़ दें. काफी देर हुज्जत और बहस होने के बाद ममता बनर्जी लौट गयीं.

अगर वो लौटती नहीं तो क्या करतीं. अब ये तो हो नहीं सकता था कि वो अपने नेताओं का हाथ पकड़ कर लेती जायें और सीबीआई अफसर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते. मामला कोर्ट पहुंचा और जो कानूनी तरीका है उस हिसाब से मामला आगे बढ़ रहा है. ऐसे ही एक बार ममता बनर्जी कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के खिलाफ सीबीआई एक्शन को लेकर रात भर धरने पर बैठी रहीं - लेकिन आखिरकार अदालती रास्ता ही काम आया.

बेशक ये मुद्दे राजनीतिक हैं और उनका काउंटर भी राजनीतिक तरीके से ही किया जा सकता है. अफसरों की ही तरह ममता बनर्जी ने अभिषेक बनर्जी की पत्नी से जांच अफसरों की पूछताछ से पहले उनके घर पहुंच कर मोरल सपोर्ट जताया था, लेकिन अगर कोई मदद मिल सकती है तो अदालत का ही रास्ता बेहतर है.

जब ऐसे सभी मामलों में बचाव का रास्ता अदालत का ही बचा है तो कानूनी लड़ाई लड़नी चाहिये, बिना मतलब हर बात के लिए सड़क पर लड़ाई लड़ कर वक्त जाया करने की जरूरत क्या है?

ये जरूरी थोड़े ही है कि बीजेपी को हर बात का जवाब देने के लिए ममता बनर्जी ही आगे आयें - महुआ मोइत्रा ने तो 'आधे घंटे की देर' पर प्रधानमंत्री मोदी को '15 लाख...' की याद दिला ही दी थी, फिर ममता बनर्जी को सफाई देने के लिए सामने आने की कों जरूरत पड़ी.

चुनाव लड़ने की तरह सरकार नहीं चलायी जाती

चुनावों की बात और थी. अब ममता बनर्जी को सरकार चलानी है. दोनों मामलों में एक ही तरीका नहीं चल सकता. चुनाव की लड़ाई प्यार और जंग जैसी हो सकती है, लेकिन शासन चलाने के कुछ खास तौर तरीके होते हैं. संवैधानिक दायरे में कानून और व्यवस्था बनाये रखने के साथ ही लोक हित और कल्याण से जुड़ी योजनाएं तैयार भी करनी होती हैं और उनक पर अमल भी करना होता है.

अगर ममता बनर्जी को ये लगता है कि बीजेपी चुप नहीं बैठ रही है तो वो क्यों ऐसा करें, तो भी गलत सोच रही हैं. बीजेपी के साथ जो होना था हो चुका. चुनाव जीतने के बाद जो जिम्मेदारी ममता बनर्जी को मिली है, बीजेपी को नहीं मिली. बीजेपी शोर तो मचाएगी ही. लोगों ने ये हक उसे ही दिया है, लेकिन ममता बनर्जी वैसा नहीं कर सकतीं.

ममता बनर्जी को परफॉर्म करना होगा. लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा. हर हाल में उनके मन में निराशा का भाव आने से रोकना होगा. ममता बनर्जी जो आरोप बीजेपी पर लगा रही हैं, उस पर भी बंगाल के लोग तभी सपोर्ट करेंगे जब उनको लगेगा कि सरकार उनकी उम्मीदों के हिसाब से चल रही है.

ममता बनर्जी कह रही हैं कि बीजेपी के नेतृत्व चल रही केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल चुनाव में हुई अपनी हार को पचा नहीं पा रही है. ठीक बात है, ममता बनर्जी ये सब कहती रहें, लेकिन काम नहीं रुकना चाहिये. ममता बनर्जी का PMO पर भी इल्जाम है कि वो फर्जी, एकतरफा और लोगों को बांटने वाली खबरें फैला रहा है. ममता बनर्जी प्रधानमंत्री के साथ उनकी मीटिंग और लेट पहुंचने को लेकर हो रहे विवाद पर भी सफाई दे चुकी हैं, लेकिन सवाल है कि मुख्यमंत्री ने ऐसी नौबत ही क्यों आने दी - क्या ये सब वो बुद्धिमानी से टाल नहीं सकती थीं.

ममता बनर्जी चाहतीं तो बड़े आराम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मीटिंग में शामिल होतीं. वहां उनके ही पुराने चेले शुभेंदु अधिकारी बैठे होते तो क्या फर्क पड़ता था? अगर कुछ बोलते तो वहीं जवाब दे देतीं. उनसे मुखातिब होने की जगह ममता बनर्जी चाहतीं तो सीधे प्रधानमंत्री मोदी को संबोधित करके बोल सकती थीं, जैसे एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी संसद या विधानसभाओं में करते हैं. जो कुछ भी कहना होता है सदन के अध्यक्ष को संबोधित करके कह देते हैं. तब तो अगर कोई बोल रहा हो तो और दूसरा बीच में दखल देने की कोशिश करें तो अध्यक्ष की ही जिम्मेदारी होती है कि वो अगले को चुप कराये.

ममता बनर्जी को मान कर चलना चाहिये था कि बीजेपी शुभेंदु अधिकारी के बोलने पर प्रधानमंत्री मोदी चुप कराते ही. अगर प्रधानमंत्री मोदी तटस्थ होकर शुभेंदु अधिकारी को चुप नहीं कराते तो ममता का शोर मचाने का पूरा हक बनता था. जैसे पहले मीटिंग के बाद बाहर आकर बतारी रही हैं कि अंदर क्या हुआ, वैसे यास तूफान वाली मीटिंग के बाद भी तो हो सकता था.

याद कीजिये कोरोना के पिछले दौर में जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की मीटिंग हो रही थी तो कैसे ममता बनर्जी ने अमित शाह की मौजदूगी में ही प्रधानमंत्री मोदी से उनकी शिकायत की थी - ममता बनर्जी वैसा भी तो कर सकती थीं.

मीटिंग में अगर ममता बनर्जी को राज्यपाल जगदीप धनखड़ की मौजूदगी पर आपत्ति थी, तो अगर वो कुछ बोलते तो वैसे ही जवाब दे देतीं जैसे शपथग्रहण के बाद सलाह मिलने पर फौरन ही सूद समेत वापस कर दिया था.

ममता बनर्जी के लिए नीतीश कुमार का पांच साल का ट्रैक रिकॉर्ड सबसे बड़ा सबक हो सकता है. नीतीश कुमार कहां से कहां पहुंच गये देखते देखते. 2013 से पहले और 2015 के बाद भी नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार मानते थे और उनके हाव-भाव से लेकर बात व्यवहार में उसकी झलक देखी जा सकती थी. 2014 के आम चुनाव में बिहार में जेडीयू की हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री की कुर्सी तक छोड़ दी थी - लेकिन क्या उसकी वजह वही रही होगी जो बताया गया - हार की जिम्मेदारी लेने के कारण.

जैसे ममता बनर्जी अभी कह रही हैं कि बार बार प्रधानमंत्री के आने पर मुख्यमंत्री को क्यों स्वागत के लिए जाना चाहिये? निजी दौरे या पार्टी के कार्यक्रम की बात और है, लेकिन अगर सरकारी कार्यक्रम है तो कोई मुख्यमंत्री कैसे नजरअंदाज कर सकता है भला?

प्रधानमंत्री मोदी के साथ मीटिंग में ममता बनर्जी के देर से पहुंचने को लेकर जो विवाद हो रहा है, उसी बीच मोदी के मुख्यमंत्री रहते तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बैठकों से दूर रहने की याद दिलायी जा रही है. ठीक है, लेकिन अगर मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने कोई गलती की तो वही गलती ममता बनर्जी के लिए दोहरायी जानी क्यों जरूरी हो जाती है. अगर तब की मनमोहन सरकार ने कोई आपत्ति नहीं जतायी या प्रोटोकॉल जैसा मुद्दा नहीं उठाया तो वो अब थोड़े ही बचाव का आधार बन सकता है?

नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी है. जब जब जो भी समझ आया है, वो सारे संभव राजनीतिक नुस्खे आजमा चुके हैं. शुरुआत तो लोक सभा चुनाव के तत्काल बाद ही कर दी थी - मुख्यमंत्री पद से खुद इस्तीफा देकर जीतनराम मांझी को कुर्सी पर बिठा दिया था. लेकिन उसके बाद क्या क्या हुआ वो भी एक बार याद कर ही लेना चाहिये. दोबारा कुर्सी हासिल करने के लिए नीतीश कुमार को कम पापड़ नहीं बेलने पड़े थे.

नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के तमाम कारणों में से एक ये भी था कि प्रोटोकॉल के चलते उनको प्रधानंत्री को रिसीव करने जाना ही पड़ता, लेकिन ये फैसला गलत साबित हुआ - क्योंकि ऐसा करके वो अपना राजनीतिक कॅरियर ही दांव पर लगा चुके थे. लिहाजा फिर से जीतनराम मांझी से कुर्सी छीन कर काबिज हुए. लालू यादव से बरसों पुरानी दुश्मनी भुला कर हाथ मिलाया और चुनाव में डीएनए पर मचे बवाल के बीच प्रशांत किशोर की मदद से मोदी-शाह को पुरी शिकस्त भी थी - लेकिन क्या बात वहीं खत्म हो गयी?

नीतीश कुमार कई यू-टर्न लेने पड़े. अपने राजनीतिक सिद्धांतों से समझौते के लिए खून के घूंट पीने को मजबूर होना पड़ा और आज वो जिस हाल में हैं, हर कोई देख ही रहा है - अब तो बस एक ही रास्ता बचा है. ममता बनर्जी जैसे भी हो नीतीश कुमार के पिछले पांच साल से सबक लेते हुए आगे कोई भी फैसला करें - वरना, मोदी-शाह तो ममता बनर्जी को भी नीतीश कुमार बनाने में लगे ही हुए हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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