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Updated: 23 जून, 2021 05:39 PM
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विपक्षी एकजुटता के नाम पर हो रही ताजा जमघट अलग तो है. मानना पड़ेगा. मानना इसलिए नहीं है - क्योंकि प्रशांत किशोर की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं, बल्कि, इसलिए क्योंकि हर चीज बड़ी ही सावधानी के साथ होती नजर आ रही है.

कहने की जरूरत नहीं जब भी ऐसी कोई सियासी कवायद होती है, निशाने पर सत्ता पक्ष और उसका नेता होता है. इस हिसाब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ही टारगेट पर हैं, समझना कोई मुश्किल चीज नहीं है - लेकिन ऐसा भी नहीं कि ये विपक्षी लामबंदी सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ ही हो रही हो, जैसी गतिविधियां चल रही हैं - निशाने पर कांग्रेस नेतृत्व, राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही कहना बेहतर होगा, भी है और ये समझना भी कोई कठिन चीज नहीं है.

राष्ट्र मंच के बैनर तले अब तक जो नाम सामने आये हैं और सक्रिय नजर आ रहे हैं, वे हैं - पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, एनसीपी नेता शरद पवार, यशवंत सिन्हा और प्रशांत किशोर.

अब इन गतिविधियों पर दो लोगों की तरफ से सफाई भी पेश की जा चुकी है - एक तो माजिद मेमन और दूसरे प्रशांत किशोर का बयान भी कुछ कुछ वैसा ही लगता है. दिल्ली में विपक्ष के चर्चित जमावड़े को लेकर ये बताने की कोशिश की जा रही है कि ये सब किसी के खिलाफ नहीं है - न प्रधानमंत्री मोदी के और न ही कांग्रेस नेतृत्व के.

प्रशांत किशोर का बयान तो बड़ा ही विरोधाभासी है, खासकर उनके हालिया इंटरव्यू के जरिये उनकी रणनीति समझने के बाद. प्रशांत किशोर का कहना है कि मोदी के खिलाफ कोई तीसरा या चौथा मोर्चा खड़ा नहीं हो सकता - और माजिद मेमन का भी बयान उसी रणनीति का हिस्सा जैसा लगता है. दिल्ली में मीटिंग को लेकर ऐसे समझाते हैं जैसे शरद पवार (Sharad Pawar) ने तो बस जगह मुहैया करायी थी और चाय-नाश्ते का इंतजाम भर किया था. मानते हैं कि नेता लोग जनता को मूर्ख समझते हैं, लेकिन इतना भी क्या?

असल बात तो ये है कि ताजा और तेज हो चली विपक्षी गतिविधियों के हर इनकार में इकरार की गंध आती है - और हर सफाई किसी रहस्यमय रणनीति के संकेत देती है.

विपक्ष के निशाने पर कौन है?

दिल्ली में हुई विपक्षी नेताओं की चर्चित मुलाकात को लेकर तृणमूल कांग्रेस उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा मीडिया से मुखातिब हुए और एक जानकारी देकर चलते बने. सवाल पूछे जाते रहे लेकिन अनसुना करके निकल गये. जाते जाते बता गये कि मीटिंग को लेकर माजिद मेमन, पवन वर्मा और घनश्याम तिवारी पूरी जानकारी देंगे.

एनसीपी नेता माजिद मेमन डिस्क्लेमर के साथ ही जानकारी देनी शुरू की. बोले, 'मीडिया में कहा जा रहा है कि राष्ट्र मंच की बैठक शरद पवार ने बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों को एक साथ लाने के लिए बुलाई है - ये पूरी तरह गलत है. मैं साफ कर देना चाहता हूं मीटिंग शरद पवार के निवास पर जरूर हुई, लेकिन मीटिंग उन्होंने नहीं बुलाई...'

Narendra modi, sharad pawar, rahul gandhiमोदी के खिलाफ लड़ाई में पवार आखिर राहुल को किनारे करके क्यों चल रहे हैं?

लगे हाथ, माजिद मेमन ने दूसरी गलतफहमी भी दूर करने की कोशिश की - ये बैठक न तो केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चे बंदी है और न ही इसमें कांग्रेस को अलग-थलग रखा गया है.'

फिर नाम लेकर गिनाये भी कि कांग्रेस के नेताओं को भी वो खुद बुलावा भेजे थे. बारी बारी नाम भी बताये - 'मैंने खुद विवेक तनखा, मनीष तिवारी, शत्रुघ्न सिन्हा, अभिषेक मनु सिंघवी, कपिल सिब्बल जैसे नेताओं को आमंत्रित किया था, लेकिन इनमें से कोई भी नेता इस समय दिल्ली में नहीं है... इसलिए कांग्रेस मीटिंग में नहीं आ सकी...'

गजब! क्या बुलावे की लिस्ट बनायी है - चुन चुन कर उन नेताओं को ही बुलाया जो या तो कांग्रेस नेतृत्व को मौके बेमौके जैसे तैसे बर्दाश्त करने लायक सलाहियत देते रहते हैं या सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखे जाने पर हस्ताक्षर करते हैं या फिर चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस की हार पर सवालिया टिप्पणी किया करते हैं. कपिल सिब्बल और विवेक तनखा तो गुलाम नबी आजाद के साथ जम्मू-कश्मीर की जमीन से भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ के सुर में सुर मिला चुके हैं.

और उसमें भी बुलाने के बावजूद नहीं पहुंचे. मीटिंग के लिए जम्मू-कश्मीर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन विपक्ष की बैठक के लिए किसी ने भी दिल्ली लौटने की जहमत नहीं उठायी - न मनीष तिवारी, राष्ट्र मंच को जिनके दिमाग की उपज बतायी जाती है और न शत्रुघ्न सिन्हा राष्ट्र मंच की स्थापना के समय भी मौजूद रहे.

यशवंत सिन्हा को माजिद मेमन भी राष्ट्र मंच का नेता बता रहे हैं, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मनीष तिवारी और पूर्व राजनयिक केसी सिंह ने मिल कर राष्ट्र मंच की परिकल्पना की थी - और तब साथ में यशवंत सिन्हा, पवन वर्मा, दिनेश त्रिवेदी ने 2017 के आखिर में इसे आगे बढ़ाने की कोशिश की.

2019 के आम चुनाव से करीब साल भर पहले जनवरी, 2018 में राष्ट्र मंच का औपचारिक तौर पर गठन हुआ. तब कांग्रेस की तरफ से रेणुका चौधरी भी शामिल हुई थीं. आम आदमी पार्टी की तरफ से संजय सिंह, आरएलडी नेता जयंत चौधरी भी मौके पर मौजूद थे. तब पवन वर्मा जेडीयू में और दिनेश त्रिवेदी टीएमसी में हुआ करते थे. पवन वर्मा को भी प्रशांत किशोर के साथ ही नीतीश कुमार ने जेडीयू से बाहर कर दिया था.

तब भी यशवंत सिन्हा ने कहा था कि राष्ट्र मंच गैर राजनीतिक एक्शन ग्रुप होगा - राष्ट्र मंच किसी पार्टी विशेष के खिलाफ तो नहीं होगा, लेकिन राष्ट्रीय मुद्दों को हाइलाइट करने की कोशिश जरूर करेगा. ये तभी की बात है जब यशवंत सिन्हा मोदी विरोधी की आवाज बुलंद किये हुए थे.

राष्ट्र मंच की दिल्ली में हुई ताजा बैठक में नेशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला और आरएलडी नेता जयंत चौधरी के अलावा गीतकार जावेद अख्तर सहित कई बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के शिरकत बतायी जा रही है.

राष्ट्र मंच के होस्ट शरद पवार को लेकर माजिद मेमन की ही तरह प्रशांत किशोर का भी बयान लग रहा है. प्रशांत किशोर ने 2024 में होने वाले लोक सभा चुनाव के मकसद से खड़ा करने की कोशिश वाले किसी भी विपक्षी मोर्चे में अपने रोल से इनकार किया है.

पश्चिम बंगाल चुनाव के वक्त से ही प्रशांत किशोर क्लब हाउस चैट हो या कोई इंटरव्यू हमेशा ही प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ ही करते देखे जाते हैं. अमित शाह से तुलना के सवाल पर भी खुद को अदना सा बच्चा बताते हैं, लेकिन मौका मिलते ही ये याद दिलाना भी नहीं भूलते कि तीन बार तो चुनावी शिकस्त दे चुके अब क्या बाकी है.

जब राहुल गांधी को लेकर मोदी से जुड़ा सवाल होता है तो प्रशांत किशोर कहते हैं कि दोनों नेताओं में कोई तुलना ही नहीं है. लोकप्रियता के मामले, पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान प्रशांत किशोर ने कहा था कि ममता बनर्जी भी मोदी की तरह लोकप्रिय हैं, लेकिन ये बताना भी नहीं भूले कि बीजेपी 100 सीटें भी नहीं जीत पाएगी.

प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के खिलाफ तीसरे मोर्चे की संभावना को लेकर भी प्रशांत किशोर करीब करीब वैसी ही बातें कर रहे हैं. एनडीटीवी से बातचीत में कहते हैं, 'मैं तीसरे या चौथे मोर्चे में विश्वास नहीं करता कि ये मोर्चा बीजेपी को चैलेंज कर सकता है.'

तीसरे मोर्चे को प्रशांत किशोर पुराना मॉडल और मौजूदा राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से मिसफिट मानते हैं, लेकिन, इंडिया टुडे टीवी के अनुसार, प्रशांत किशोर और शरद पवार की दो हफ्ते के भीतर तीसरी मुलाकात भी हो चुकी है - आखिर शरद पवार को प्रशांत किशोर इतना तेजी से क्यों समझना चाहते हैं?

संभावित विपक्षी गठबंधन का नेता कौन है?

एनसीपी नेता शरद पवार के साथ लंबी मुलाकात को लेकर प्रशांत किशोर ने यही समझाने की कोशिश की थी कि दोनों ने कभी साथ मिल कर काम नहीं किया है. इसलिए एक दूसरे को समझने के लिए मिले थे, लेकिन मुलाकातें इतनी जल्दी जल्दी और ज्यादा हो रही हैं कि ये बातें बहानेबाजी लगती हैं, लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता.

पॉलिटिक्स में बहानेबाजी लगने वाली बातें, दरअसल, एक राजनीतिक बयान होती हैं. प्रशांत किशोर भी, दरअसल, अपने राजनीतिक बयान ही जारी कर रहे हैं. वैसे भी पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद तो वो बोल ही दिये थे कि आगे से वो इलेक्शन कैंपेन का काम नहीं करेंगे. फिर खबर आयी कि तृणमूल कांग्रेस ने प्रशांत किशोर की कंपनी I-PAC का कॉन्ट्रैक्ट 2026 तक बढ़ा दिया है. मतलब, ये हुआ कि पश्चिम बंगाल में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव तक के लिए - समझने वाली बात ये है कि इसी पीरियड में 2024 के आम चुनाव भी होंगे.

ध्यान खींचने वाला वाकया है कि महज एक पखवारे के भीतर प्रशांत किशोर, शरद पवार से तीन बार मिल चुके हैं - आखिर एक दूसरे को कितना जल्दी समझना है कि ताबड़तोड़ मुलाकातें करनी पड़ रही हैं. शरद पवार से सबसे पहले प्रशांत किशोर ने मुंबई जाकर 11 जून को मुलाकात की थी और ये मीटिंग करीब तीन घंटे तक चली थी.

एक बात और भी हुई है जो इन घटनाक्रम के बीच विशेष रूप से ध्यान अपनी तरफ खींच रही है - कमलनाथ ने भी शरद पवार से मुलाकात की है. कांग्रेस नेता कमलनाथ काफी दिनों से सोनिया गांधी के साथ काम कर रहे हैं. कमलनाथ ने ही सोनिया गांधी को G23 नेताओं से मिल कर उनकी बातें सुनने का प्रस्ताव रखा था. सोनिया गांधी को भी लग रहा था कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने में बागी हो चले कांग्रेस नेता रोड़ा न खड़ा करने की कोशिश करने लगें.

सोनिया गांधी ने सीनियर नेताओं की एक मीटिंग बुलायी थी जिसमें G23 चिट्ठी की अगुवाई करने वाले गुलाम नबी आजाद भी बुलाये गये थे और फिर कांग्रेस अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनावों तक टाल दी गयी थी. बाद में अपडेट आया कि कांग्रेस अध्यक्ष का जून में होने वाला संभावित चुनाव भी टल गया है.

विपक्षी नेताओं की मुलाकातों का सवाल राहुल गांधी के सामने भी उठ चुका है. मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने के क्रम में राहुल गांधी कोरोना वायरस और वैक्सीनेशन को लेकर श्वेत पत्र भी पेश कर चुके हैं, लेकिन मीटिंग को लेकर सवाल टाल देते हैं, 'दिल्ली में जो भी बैठकें हो रही हैं... सही वक्त आने पर उन मुद्दों पर भी बात करेंगे... मैं मुद्दों से न खुद भटकना चाहता हूं - और न ही आपको भटकाना चाहता हूं.'

बाद में विपक्ष की ये चाल चाहे जो करवट ले, फिलहाल तो ऐसा ही लगता है कि मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने की ही ये कोशिश चल रही है. आम चुनाव के दौरान भी ऐसी ही कोशिश हुई थी, लेकिन तब देखने में यही आया कि राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी आड़े आ जा रही है.

शरद पवार तब भी ऐसी बैठकों में हुआ करते थे और यशवंत सिन्हा भी खासे एक्टिव थे. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव भी ऐसा ही मोर्चा खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे जो बीजेपी के खिलाफ भी हो और कांग्रेस भी दूर रहे. टीडीपी नेता एन चंद्रबाबू नायडू ने भी आखिरी वक्त तक अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन ममता बनर्जी के राहुल गांधी को लेकर कुछ रिजर्वेशन आड़े आ गये.

अब तो ऐसा लगता है जैसे प्रशांत किशोर पुराने वाकयों से सबक लेते हुए ऐसी व्यूह रचना करने की कोशिश कर रहे हैं कि हर चुनाव से पहले तीसरा मोर्चा खड़ा करने जैसा हाल फिर से न हो जाये.

बीजेपी के खिलाफ तीसरे या चौथे मोर्चे को चुनौती नहीं मानने के पीछे भी कोई रणनीति ही लगती है. तीसरे मोर्चे का साफ तौर पर तो मतलब यही हुआ कि सत्ताधारी बीजेपी और सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस को छोड़ कर बनाया गया विपक्षी दलों का मंच.

ऐसे में तीसरा मोर्चे की चुनौती तो खत्म हो ही जाएगी जब कांग्रेस बाहर रहेगी और बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में विपक्ष के ही वोट काटने लगेगी. आम चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की भूमिका मिसाल है. तब अखिलेश यादव ने मायावती के साथ सपा-बसपा गठबंधन किया था, लेकिन कांग्रेस को दूर रखा था. चुनाव बाद अखिलेश और मायावती दोनों ने ही सीधा सीधा इल्जाम लगाया कि कांग्रेस ने उनके वोट काटे और कई उम्मीदवारों की हार की वजह भी बनी. अब भला प्रशांत किशोर फिर से ऐसा मौका ही क्यों आने देंगे.

ममता बनर्जी की पार्टी के साथ भले ही कॉन्ट्रैक्ट बढ़ा दिया गया हो, लेकिन प्रशांत किशोर ने इशारा तो यही किया है कि वो मुख्यधारा की राजनीति में फिर से कोशिश करना चाहेंगे. जेडीयू ज्वाइन करने के बाद की अपनी भूमिका में वो खुद को पूरी तरह फेल भी बताते हैं. हालांकि, एक बात दोहराते भी हैं कि उनकी राजनीति का केंद्र बिंदु बिहार ही रहेगा.

शरद पवार का राजनीतिक अनुभव और विपक्षी दलों के बीच होस्ट बनने की ये क्षमता ही है जो ममता बनर्जी के नाम पर प्रशांत किशोर को भी आकर्षित करती होगी. विपक्षी गठबंधन की ये कोशिश भी आम चुनाव के दौरान यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी की पहल के हिसाब से आगे बढ़ती नजर आ रही है, जिसमें क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का फॉर्मूला पहले ही खोजा जा चुका है, लेकिन वो कांग्रेस को मंजूर नहीं है. ममता बनर्जी को वो नुस्खा शुरू से ही कारगर लगता है, लेकिन राहुल गांधी पेंच फंसा देते हैं.

हो सकता है पहले विपक्ष को कॉमन एजेंडे के साथ एकजुट कर लेने के बाद कांग्रेस से डील करने का विचार हो. जब कांग्रेस को छोड़ कर सारे क्षेत्रीय नेता एकजुट हो जाएंगे उसके बाद कांग्रेस के सामने में व्यापक हित में बात मान लेने की मजबूरी देखने को मिल सकती है - और फिलहाल ऐसी ही रणनीति पर ये सब आगे बढ़ता नजर आ रहा है.

मुश्किल ये है कि बड़े नेता या प्रमुख चेहरे या तो चुप हैं या राजनीतिक बयानों से गुमराह कर रहे हैं, लेकिन मिशन में शामिल छोटे नेता वे सारी बातें बता दे रहे हैं जिसका शक हो रहा है - ये तो साफ है कि ममता बनर्जी को खड़ा करने की कोशिश हो रही है, लेकिन शरद पवार या प्रशांत किशोर की असली भूमिका अभी सामने आना बाकी है.

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