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Updated: 07 सितम्बर, 2022 08:02 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की बातों से ये तो साफ है कि राष्ट्रीय राजनीति में कदम बढ़ाने की तैयारी कर चुके हैं. नीतीश कुमार भी 2024 में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra modi) को चैलेंज करने की बातें कर रहे हैं, लेकिन ये नहीं साफ हो पा रहा है कि ये सब वो ममता बनर्जी की तरह करेंगे या अरविंद केजरीवाल की तरह?

जिस तरीके से नीतीश कुमार खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने से इनकार कर रहे हैं और सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने की बातें करते हैं, लगता है एनसीपी नेता शरद पवार भी तो ऐसी ही बातें करते आ रहे हैं - फिर नीतीश कुमार और शरद पवार के मिशन में क्या फर्क है? अगर दोनों का मकसद सिर्फ विपक्ष को एकजुट करना है तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के लिए किसे तैयार कर रहे हैं?

जैसे पश्चिम बंगाल का चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी दिल्ली रवाना हुई थीं, नीतीश कुमार भी एनडीए छोड़ कर महागठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेकर दिल्ली कूच करने वाले हैं.

नीतीश कुमार के दिल्ली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और लेफ्ट के नेताओं से भी मिलने का कार्यक्रम बताया जा रहा है. जेडीयू नेता के हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला से भी मिलने की संभावना है. 25 सितंबर, 2021 को चौधरी देवीलाल की स्मृति में ओम प्रकाश चौटाला ने एक रैली बुलायी थी, जिसमें नीतीश कुमार सहित तमाम बड़े नेताओं को न्योता दिया गया था. तभी बिहार में कुछ ऐसा हुआ कि नीतीश कुमार ने हामी भरने के बाद भी अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया. उस विपक्षी जमघट से महीने भर पहले नीतीश कुमार ने चौटाला के साथ दिल्ली में लंच भी किया था - और मालूम हुआ कि ओम प्रकाश चौटाला विपक्षी दलों की वो रैली नीतीश कुमार के ही नेतृत्व में करना चाहते थे, ताकि वक्त आने पर उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सके. एनडीए में होने के कारण नीतीश कुमार तब मन मसोस कर रह गये थे.

नीतीश कुमार की तैयारी अपनी जगह है, लेकिन ये भी तो जरूरी नहीं कि विपक्ष के सभी नेता उनसे मिलने को तैयार भी बैठे हों. जैसे ममता बनर्जी को मिलने के लिए शरद पवार ने टाइम नहीं दिया था, नीतीश कुमार के साथ भी तो हो सकता है.

ममता बनर्जी तो नोटबंदी के टाइम से ही नीतीश कुमार से खफा हैं. वो तो पटना जाकर लालू यादव की मदद से रैली भी कर आयी थीं. जहां ठहरी थीं, सामने ही नीतीश कुमार रहते हैं, लेकिन वो झांकने तक नहीं गयीं. अरविंद केजरीवाल के भी नाराज होने का मौका नीतीश कुमार ने पहले ही दे रखा है - दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान अमित शाह के साथ आम आदमी पार्टी के खिलाफ रैली करके. तब नीतीश कुमार ने क्या क्या कहा नहीं कहा था, अरविंद केजरीवाल भूले तो होंगे नहीं. ये बात अलग है कि राजनीति में ये सब कोई स्थायी भाव तो होता नहीं.

ये किस तरह का डिस्क्लेमर है?

'देश का प्रधानमंत्री कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो' - जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने पटना के जेडीयू ऑफिस पहुंचे तो उनके समर्थक यही नारा लगा रहे थे. ये नारा तब भी लग रहा था जब जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह साफ तौर पर बता चुके हैं कि नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे. आगे के लिए ऐसा कोई आश्वासन अभी तक किसी ने नहीं दिया है. खुद नीतीश कुमार भी इस बात से लगातार इनकार करते आ रहे हैं कि वो देश के अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार या उम्मीदवार हैं.

nitish kumar, narendra modiनीतीश कुमार अगर प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार नहीं, तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ 2024 के लिए किसे तैयार कर रहे हैं?

फिर भी जेडीयू कार्यकर्ताओं में इतना जोश भर चुका है कि वे पार्टी दफ्तर और बाकी जगह भी बैनर, पोस्टर और होर्डिंग लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं. और ऐसे पोस्टर पर लिखा जा रहा है - 'बिहार में दिखा, भारत में दिखेगा', 'प्रदेश में दिखा, देश में दिखेगा', 'जुमला नहीं, हकीकत', 'मन की नहीं, काम की', आश्वासन नहीं सुशासन'.

आखिर ये किस तरह का डिस्क्लेमर है?

और लगे हाथ कार्यकारिणी की बैठक में जेडीयू कार्यकर्ताओं के सामने नीतीश कुमार दावा करते हैं, 'अगर सभी विपक्षी दल एक साथ लड़ेंगे... तो 2024 के चुनाव में भाजपा 50 सीटों पर आ जाएगी'.

जैसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने पटना ने 'भाजपा मुक्त भारत' का नारा दिया था, 'बीजेपी के 2024 में 50 सीटों पर सिमट जाने' का दावा भी वैसा ही हवा हवाई लगता है. नीतीश कुमार पहले भी कह चुके हैं - जो 2014 आये थे क्या पता 2014 में आएंगे भी या नहीं?

जेडीयू की कार्यकारिणी ऐसे मौके पर हुई है जब ठीक पहले मणिपुर में पार्टी के 6 में से 5 विधायक बीजेपी ज्वाइन कर चुके होते हैं. बिलकुल उसी अंदाज में जैसे 2020 में भी अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के 7 में से 6 विधायक बीजेपी के साथ चले गये थे. तब तो एनडीए में ही होने के नाते नीतीश कुमार साफ साफ और सार्वजनिक तौर पर ऊंची आवाज में कुछ कह भी नहीं पाये थे, लेकिन अब तो वो बात रही नहीं.

जैसे तैसे गुस्से पर काबू पाते हुए, लेकिन पूरे तैश में आये नीतीश कुमार कहते हैं, 2024 के चुनाव के बाद इनको सबक सिखाएंगे... दूसरी पार्टी के चुने हुए लोगों को तोड़ना क्या कोई संवैधानिक काम है?

नीतीश का दावा ममता-केजरीवाल से कितना अलग है: 2024 में बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी को लेकर जैसे दावे नीतीश कुमार कर रहे हैं, उनके समानांतर ही अरविंद केजरीवाल भी कर रहे हैं. पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मुंह से भी ऐसी ही बातें सुनने को मिलती थीं.

अब तो ऐसा लग रहा है कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल 'एकला चलो' के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं - और विपक्ष से उन्हें किसी भी तरह की मदद की अपेक्षा नहीं रह गयी है. अरविंद केजरीवाल के मामले में स्पष्टता कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रही है.

नीतीश कुमार ने जब से महागठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है, बस यही समझा रहे हैं कि वो बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं - और शायद यही नीतीश कुमार की लाइन में ममता और केजरीवाल से फर्क भी है.

नीतीश का रोल पवार से कितना अलग होगा: नीतीश कुमार बिहार से बाहर अपने लिए जिस तरह की भूमिका बता रहे हैं, महाराष्ट्र से बाहर शरद पवार पहले से ही उसी भूमिका में देखे जा सकते हैं - सवाल ये है कि क्या दोनों मिल कर अब काम करेंगे?

सवाल ये भी है कि क्या दोनों का मिशन और एजेंडा अलग अलग है?

और सवाल ये भी है कि क्या दोनों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अलग अलग हैं - या अंदर अंदर किसी एक ही नेता के लिए अलग अलग कवायद चल रही है?

तो इसलिए नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं

जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने भी अपने नेता नीतीश कुमार की ही बात दोहरायी है. नीतीश कुमार भी बार बार यही कह रहे हैं कि वो सिर्फ विपक्ष को एकजुट करना चाहते हैं, प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं - यहां तक कि केसीआर के साथ प्रेस कांफ्रेंस में भी वो इसी बात पर उठ खड़े हुए थे.

क्या नीतीश कुमार अब जो कुछ भी कर रहे हैं वो सब सिर्फ दूसरों के लिए ही है? अगर वास्तव में नीतीश कुमार बिलकुल ऐसा ही कर रहे हैं तो मान कर चलना होगा कि वो सिर्फ नरेंद्र मोदी से बदला लेना चाहते हैं. 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिये जाने के विरोध में ही नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था. जब नीतीश कुमार ने कहा था कि एनडीए को भी 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने की मांग की थी, तो वो मान कर चल रहे थे कि गुजरात दंगों की वजह से मोदी तो दावेदार बनने से रहे - ऐसे वो खुद को भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने की अपेक्षा कर रहे थे.

शक शुबहा इस बात को लेकर तो कतई नहीं है कि नीतीश कुमार बिहार की गद्दी छोड़ने की स्थिति में तेजस्वी यादव को सौंपने की तैयारी कर रहे हैं - लेकिन संदेह इस बात को लेकर हो रहा है कि कहीं ऐसा ही कुछ वो राहुल गांधी के लिए भी तो नहीं सोच रहे हैं?

अगर नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने में जुटते हैं तो भी राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने रहने से आपत्ति तो उनको हो ही सकती है - जैसे ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को है.

हाल फिलहाल ये भी देखा गया है कि राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर तेजस्वी यादव ने पहले की तरह सपोर्ट नहीं किया है - और न ही एमके स्टालिन जैसी बातें कही है. एमके स्टालिन की बातों से तो लगता है वो देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी के अलावा किसी को चाहते ही नहीं. ऐसा तो नहीं कि नीतीश कुमार के मन में चल कुछ और रहा है और वो बाहर से मैसेज कुछ और देने की कोशिश कर रहे हैं. नीतीश कुमार की राजनीति की एक ये भी खासियत तो है ही.

आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को छोड़ दें तो बाकी दलों में शायद ही कोई नेता हो जिसे राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने से दिक्कत हो. अपवाद के रूप में राहुल गांधी के खिलाफ मायावती विरोध की एक आवाज हो सकती हैं, लेकिन पहले उनको खुद अपने पैरों तले जमीन देखनी होगी. अगर अमित शाह के बीएसपी को प्रासंगिक बताये जाने के बाद भी पूरे उत्तर प्रदेश में मायावती का एक ही विधायक बनता है तो क्या कहा जाये. वैसे बीएसपी के एकमात्र विधायक बनने में मायावती से ज्यादा खुद उसकी अपनी ही भूमिका है.

अव्वल तो नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा खुशी इसी बात से होगी कि वो आम चुनाव में विपक्षी गठबंधन के नेता के रूप में नरेंद्र मोदी को शिकस्त दें, लेकिन ये सब मुमकिन तो तब होगा जब विपक्ष वास्तव में एकजुट हो.

अगर ऐसी कोई सूरत नहीं बन पा रही है. जैसा नीतीश कुमार महसूस कर रहे होंगे कि अगर एनडीए में होते तो एक नया मार्गदर्शक मंडल बना कर उनको भेज देने की कोशिश हो रही होती. ऐसे में नयी मुश्किलें मोल लेते हुए नीतीश कुमार ने अपने भाई जैसे दोस्त के बेटे के साथ डील पक्की करना ही बेहतर समझा. ये तो बिहार के ज्यादातर लोग मानते हैं कि तेजस्वी यादव को एक बार मुख्यमंत्री बनने का मौका तो मिलेगा ही, लेकिन देर भी हो सकती है - और क्या पता अंधेर भी हो जाये?

नीतीश कुमार की मदद से तेजस्वी यादव की राह थोड़ी आसान हो सकती है. महागठबंधन में नीतीश कुमार की वापसी में सबसे बड़ा फैक्टर भी यही लगता है - हो सकता है ये आखिरी विकल्प हो, लेकिन लालू यादव को तो यही लग रहा होगा कि नीतीश कुमार ये सब तेजस्वी यादव को बिहार में अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए कर रहे हैं. सौदा भी इसी बात पर पक्का भी हुआ होगा.

क्या नीतीश, राहुल को किस्तमतावाला मानते हैं: अगर नीतीश कुमार को ये लगने लगा है कि जैसे बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उनके गिने चुने दिन बचे थे - और देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी से वो काफी दूर हो चुके हैं तो नया रास्ता निकालना ही होगा. हो सकता है ऐसा कोई नया रास्ता निकाल भी चुके हों. ये भी नीतीश कुमार का ही कहना है कि प्रधानमंत्री तो कोई किस्मतवाला ही बनता है.

ऐसे में एक ही रास्ता बचता है, तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के साथ साथ वो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश में भी जुट जायें! ये आइडिया काफी अजीब भी है, लेकिन अगर रास्ते नजर न आ रहे हों तो बदलना ही या यू टर्न लेना पड़ता है. अगर ऐसा प्लान हो तो जैसे लालू यादव उनको राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ने में मदद कर रहे हैं, सोनिया गांधी उनको राष्ट्रपति भवन पहुंचा देने का वादा कर सकती हैं.

2022 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले वैसे भी प्रशांत किशोर, नीतीश कुमार को राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी का प्रस्ताव दे ही चुके हैं. ये प्रस्ताव प्रशांत किशोर, तेजस्वी यादव और केसीआर की मुलाकात के बाद लेकर नीतीश के पास पहुंचे थे - और अब तो केसीआर भी पटना जाकर नीतीश कुमार के साथ मिल ही चुके हैं.

कांग्रेस से डील पक्की न होने के बाद प्रशांत किशोर बिहार में जन-सुराज यात्रा पर निकले हैं, लेकिन ध्यान से देखें तो कांग्रेस के भारत जोड़ो यात्रा से लेकर ज्यादातर कार्यक्रम उनके ही आइडिया पर आधारित लगते हैं - क्या पता सारे खेल के परदे के पीछे के सूत्रधार वही बने हुए हों. वैसे भी अब तो ज्यादातर काम वर्चुअल हो रहे हैं. ये जरूरी तो है नहीं कि प्रशांत किशोर सार्वजनिक रूप से बतायें ही कि वो किसके लिए काम कर रहे हैं - बताने के लिए ये क्या कम है कि बिहार की जनता के लिए काम कर रहे हैं.

कहीं ऐसा तो नहीं कि केसीआर ने नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार इसलिए नहीं बताया क्योंकि अंदर ही अंदर उनके लिए राष्ट्रपति भवन भेजने का इंतजाम किया जा रहा है - लेकिन ये सवाल तो किसी ने पूछा ही नहीं!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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