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Updated: 10 अगस्त, 2022 09:07 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बिहार में राजनीति की आखिरी पारी खेल रहे हैं - और राष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से एक बार फिर खुद को महत्वपूर्ण बना लिये हैं. राजनीति में ये नीतीश कुमार के अभिलाक्षणिक गुण माने जाते हैं - ऐसी पैंतरेबाजी हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है.

रामविलास पासवान के बाद नीतीश कुमार में भी कुछ लोग राजनीति के मौसम वैज्ञानिक वाली खासियतें महसूस करने लगे थे. रामविलास पासवान अपने राजनीतिक जीवन में ज्यादातर केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के साथ बने रहे, लेकिन नीतीश कुमार की राजनीति बिलकुल अलग है.

नीतीश कुमार जब भी पाला बदलते हैं तो जिसका साथ छोड़ते हैं वो भी और जिसके साथ हो लेते हैं वो भी अपने हिसाब से काफी मजबूत होता है. मतलब, नीतीश कुमार जब मजबूत बीजेपी (BJP) के साथ होते हैं तो एक मजबूत लालू यादव को दुश्मन बनाये रखते हैं - और अब जबकि बिहार की राजनीति में मजबूत जनाधार वाले लालू यादव के साथ फिर से गये हैं, बीजेपी जैसे देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक पार्टी से सीधी दुश्मनी मोल ली है.

और बीजेपी से राजनीति दुश्मनी मोल लेने का खामियाजा कैसा होता है सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लेकर उद्धव ठाकरे तक हर कोई मिसाल है. अपनी साफ सुधरी छवि के साथ राजनीति करते आ रहे नीतीश कुमार के सामने अब वैसी ही चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं, जैसी मुश्किलों से ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जूझ रहे हैं.

राजनीति में भी चीजें प्यार और जंग की तरह ही सही होती हैं - हर किसी का अपना सत्यमेव जयते होता है. नीतीश कुमार को जैसे 2017 में तब के मैंडेट के खिलाफ जाने के लिए निशाना बनाया जाता रहा, 2022 में बीजेपी भी नीतीश कुमार पर लालू परिवार की ही तरह बिहार के लोगों से वादाखिलाफी के आरोप लगा रही है - लेकिन नीतीश कुमार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. तब भी वो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बने थे, अब भी वो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बन गये हैं.

ये नीतीश कुमार ही हैं जिनकी पार्टी जेडीयू 2015 में गठबंधन साथी आरजेडी से पिछड़ जाती है, फिर भी मुख्यमंत्री वही बनते हैं - और 2020 में तो जेडीयू के करीब करीब किनारे लग जाने के बाद भी बीजेपी ने लालू यादव की ही तरह एहसान जताते हुए मुख्यमंत्री बनने दिया था क्योंकि नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से बिहार की राजनीति में अपना विकल्प किसी को नहीं बनने दिया.

नीतीश कुमार के लिए एक चुनावी स्लोगन गढ़ा गया था - बिहार में बहार हो, 'नीतीशे' कुमार हो. बातचीत के खांटी बिहारी लहजे रचा गया ये नारा अब भी बदला हुआ नहीं लगता. ये कह सकते हैं कि थोड़ी हेरफेर जरूर हुई है - 'बिहार में बदला हो, नीतीशे कुमार हो!'

अभी तो ये लालू यादव को लेकर प्रचलित नारे जैसा ही लगता है - 'जब तक रहेगा में आलू, बिहार में रहेगा लालू'. नीतीश कुमार की राजनीति समोसे जैसी हर दिल अजीज भले न हो, लेकिन बिहार की राजनीति में वो वैसे ही रच बस गये हैं जैसे समोसे में आलू होता है.

खास बात ये है कि लालू यादव की राजनीतिक विरासत संभाल रहे तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) अब नीतीश कुमार के भी उत्तराधिकारी होने के दावेदार नजर आने लगे हैं. अब तक बीजेपी की भी यही कोशिश रही, लेकिन वो सही मौके का इंतजार कर रही थी. बीजेपी चाहती थी कि लालटेन युग से घर घर बिजली पहुंचाने का क्रेडिट नीतीश के बाद बीजेपी अपने पास रखे लेकिन वो फिर से 'जंगलराज के युवराज' के साथ हो गये.

Nitish Kumar, tejashwi yadavनीतीश कुमार ने एक बार फिर पाला बदला है, लेकिन ये आखिरी बार नहीं हुआ है

मुद्दे की बात ये है कि बिहार के तात्कालिक बदलाव के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार ही बैठे हुए हैं. हालांकि, पहले की ही तरह ही अब भी 'कब तक?' जैसा खतरा बरकरार है. बहरहाल, बदले हालात में ये समझना बेहद जरूरी हो गया है कि बदलाव से किसी न किसी तरीके से जुड़े हर घटक के लिए ये सब क्या मायने रखता है?

नीतीश कुमार के लिए

सबसे बड़ी बात है कि नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में फिर से पहले की ही तरह काफी महत्वपूर्ण हो गये हैं. एनडीए में बीजेपी के साथ रहते हुए वो बिहार की राजनीति तक सीमित रह गये थे. नीतीश कुमार ने 2022 में भी वैसा ही किया है जैसे 2017 में महागठबंधन तोड़ कर बीजेपी से हाथ मिला लिया था.

1. इसे नीतीश कुमार के यू-टर्न लेना मान लेने से बेहतर ये कहना होगा कि जेडीयू नेता ने बीजेपी के साथ ठीक वैसा ही किया है जैसा 2019 में उद्धव ठाकरे ने किया था. फर्क बस ये है कि उद्धव ठाकरे ने विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ही गठबंधन तोड़ लिया था, नीतीश कुमार ने कुछ दिन गठबंधन की सरकार चलाने के बाद वही काम किया है.

2. 2013 में नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने और 2022 में बीजेपी के साथ छोड़ने को एक जैसे ही नहीं देखा जाना चाहिये. तब की बात और थी. तब नीतीश में इतनी ताकत और हिम्मत थी कि वो बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए गुजरात की तत्कालीन मोदी सरकार की मदद लौटा सकते थे. वो बीजेपी नेताओं के लिए अचानक डिनर कैंसल कर सकते थे - जिसे लेकर 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'थाली छीन लेने' और 'डीएनए में खोट' जैसी तोहमत लगायी थी.

3. नीतीश का अब पाला बदलना अहम इसलिए है क्योंकि अब मोदी-शाह वाली बीजेपी को छोड़ा है. ये नयी बीजेपी का ही दबदबा रहा जब मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपनी ही सरकार में उनको बीजेपी से पूछ पूछ कर काम करने पड़ते थे और मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर सार्वजनिक तौर पर ये बात वो खुद ही कबूल भी कर चुके थे. तभी तो प्रोटोकॉल तोड़ कर उनको अमित शाह से मिलने के लिए एयरपोर्ट जाना पड़ता था. तब भी जबकि पटना में उनका कोई कार्यक्रम नहीं था. जिस मुद्दे पर उनकी राजनीतिक सहमति नहीं होती थी, मोदी-मोदी करने के अलावा कोई रास्ता न बचा था - लेकिन ऐसा भी नहीं कि अब ये सब बंद हो जाएगा. बस थोड़ी देर के लिए ताजगी भरा माहौल रहेगा, फिर तो सब वैसे ही चलने लगेगा. जो बात नीतीश कुमार अभी बीजेपी के लिए बोल रहे हैं, महागठबंधन छोड़ने के बाद भी तो वैसी ही शिकायतें रहीं.

4. एनडीए की दूसरी पारी में नीतीश कुमार ने सारे सिद्धांतों को छोड़ दिया था. हालांकि, बीजेपी में रहते हुए वो हनुमान चालीसा, लाउडस्पीकर और यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर अपने स्टैंड पर अडिग भी दिखे. लेकिन राम मंदिर, तीन तलाक से लेकर धारा 370 तक - नीतीश कुमार चुपचाप सब होते हुए देखते रहने के कुछ कर भी नहीं पा रहे थे. सार्वजनिक तौर पर बीजेपी के साथ खड़े रहने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. बस मंच पर नारेबाजी होने पर खामोशी के साथ बैठे रहते थे.

5. अब बीजेपी नेतृत्व के मन में उबल रहे गुस्से के हिसाब से देखें तो हो सकता है वो नीतीश कुमार के साथ उद्धव ठाकरे जैसा ही हाल करे - या फिर सारी बातें भूल कर आने वाले तीन विधानसभा चुनावों पर फोकस करे - गुजरात, हिमाचल और कर्नाटक. जैसे पश्चिम बंगाल की हार के बाद यूपी विधानसभा चुनाव होने तक महाराष्ट्र या झारखंड जैसे राज्यों से आंखें मूंद ली थी.

तेजस्वी यादव के लिए

बिहार की राजनीति को पटना में बैठ कर देखने वाले लोग मानते हैं कि तेजस्वी यादव एक बार तो मुख्यमंत्री बनेंगे ही. 2020 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के लिए मुहाने पर पहुंच कर तरस कर रह जाने जैसा ही रहा. मजबूरी में ही सही, लेकिन नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव को तिनके का सहारा तो दे ही दिया है. भले ही तेजस्वी यादव की राजनीति डूब नहीं रही थी, लेकिन मझधार में तो फंसी ही हुई थी. अगर नीतीश कुमार ने तत्परता नहीं दिखायी होती तो तोड़फोड़ के बादल मंडराते तो महसूस किये ही जा रहे थे.

तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार न सिर्फ सत्ता में शामिल कर फिर से डिप्टी सीएम की कुर्सी पर बहाल करने जा रहे हैं. बल्कि, तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़े सारे शक-शुबहे और आरोप लगाने वालों के साथ सहमति भी वापस ले ली है.

हाल फिलहाल खबरें आ रही थीं कि जेडीयू और आरजेडी में कई सारे नेता नीतीश कुमार के साथ फिर से ऐसी ही व्यवस्था के पक्षधर थे, लेकिन तेजस्वी यादव किसी भी सूरत में नीतीश कुमार के साथ नहीं आना चाहते थे, सिवाय एक स्थिति के - ऐसा तभी संभव था जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी बिना शर्त आरजेडी के हवाले कर देते.

यूपी विधानसभा चुनाव से थोड़ा ही पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और तेजस्वी यादव की मुलाकात के बाद प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार से मिल कर विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति पद का ऑफर दिया था - क्योंकि तेजस्वी यादव ही नहीं राबड़ी देवी भी चाहती थीं कि नीतीश कुमार के साथ गठबंधन तो तभी हो जब तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाया जाये.

बहरहाल, राजनीति की हकीकत समझते हुए तेजस्वी यादव ने भी नीतीश कुमार की ही राह अख्तियार कर ली है, जैसे नीतीश कुमार ने जहर का घूंट पीकर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था. 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले लालू यादव ने भी नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता स्वीकार करते हुए जहर का घूंट पीने की ही बात कही थी.

एक बात तो पक्की है, नीतीश कुमार के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तेजस्वी की दावेदारी तो करीब करीब पक्की हो ही गयी है, बशर्ते, वक्त रहते राजनीतिक तौर पर वो आरजेडी को कमजोर न पड़ने दें.

वैसे 2024 के आम चुनाव के ठीक बाद ऐसी प्रबल आशंका लगती जरूर है. वैसे तब ये भी हो सकता है कि तेजस्वी यादव के दोनों हाथों में लड्डू जैसी स्थिति हो - नीतीश कुमार के हटने पर या फिर बीजेपी से हाथ मिला कर.

कांग्रेस के लिए

कांग्रेस सत्ता में दो राज्यों में तो है ही, लेकिन हिस्सेदारी वाला स्टेटस नंबर के हिसाब से एक कम हो गया था. महाराष्ट्र में सरकार गिर जाने के बाद - अब बिहार में उसकी भरपायी हो गयी है.

ऊपर से नीतीश कुमार के विपक्षी खेमे में वापस आ जाने से एक नया बैलेंस बनने लगा है. जिस तरह अरविंद केजरीवाल कांग्रेस और गांधी को भाव नहीं दे रहे और ममता बनर्जी भी गच्चा दे चुकी हैं - कांग्रेस के लिए नीतीश कुमार की भूमिका अभी के हिसाब से तो एक बड़े सपोर्ट सिस्टम जैसा है.

अब तक सोनिया गांधी के लिए, और अनमने से राहुल गांधी के लिए भी, बिहार में सिर्फ लालू यादव का सहारा था - लेकिन नीतीश कुमार की वापसी के साथ उम्मीदें तो बढ़ ही गयी होंगी. नीतीश कुमार के बयान का वजन राहुल गांधी से तो ज्यादा ही होता है. बीजेपी नेतृत्व के लिए भी.

बीजेपी के लिए

बीजेपी नेता अमित शाह ऐंड कंपनी ने नीतीश कुमार की ऐसी घेराबंदी की थी कि राजनीतिक तौर पर 2020 के चुनाव के बाद काफी देर तक वो कश्मीरी नेताओं की तरह वो खुद को नजरबंद जैसी स्थिति में ही पा रहे होंगे - क्योंकि तब ऐसी स्थिति बन पड़ी थी कि हर बात के लिए कई बार सोचना पड़ रहा था और बात बात पर बीजेपी का मुंह देखना पड़ रहा था.

बीजेपी ने चुनावों से पहले जहां चिराग पासवान को पीछे लगा दिया, वहीं चुनाव नतीजे आते ही नीतीश कुमार के हमसाया बन चुके सुशील कुमार मोदी को उनके आस पास से हटा दिया. वो आपस में मिल भी न सकें, इसलिए पटना की जगह राज्य सभा के रास्ते दिल्ली ही भेज दिया.

नीतीश कुमार को सही मौके का इंतजार था. बीजेपी की मंशा वो पहले ही भांप चुके थे. जो कुछ महाराष्ट्र में हुआ, वैसा बिहार में पहले ही उनको आशंका हो चुकी थी. तभी तो इफ्तार करने राबड़ी देवी के सरकारी आवास पहुंच गये - और अब तो तेजप्रताप यादव तक को सही साबित कर चुके हैं. तेजप्रताप ने तभी दावा किया था कि नीतीश चाचा से सेटिंग हो चुकी है.

भले ही नीतीश कुमार को कोई 'पलटू राम' कहे या 'पलटू चाचा', नीतीश अपनी जगह बने हुए हैं - और हमेशा की तरह अपने सहयोगियों के लिए निर्विकल्प और राजनीतिक विरोधियों के लिए पहले की ही तरह चुनौती बन कर उभरे हैं - ये बात अलग है कि एक बार फिर सहयोगी और विरोधी दोनों ही बदल गये हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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