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Updated: 27 मार्च, 2018 12:46 PM
अमित अरोड़ा
अमित अरोड़ा
  @amit.arora.986
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त्रिपुरा की नव निर्वाचित विधान सभा का पहला सत्र अध्यक्ष रेबती मोहन दास के चुनाव से शुरू हुआ। प्रतापगढ़ विधान सभा से भाजपा के विधायक रेबती मोहन दास को निर्विरोध इस पद के लिए चुना गया. 23 मार्च, सुबह 11 बजे जैसे ही प्रो-टेम स्पीकर रतन चक्रवर्ती विधान सभा अध्यक्ष का चुनाव कराने के लिए आये, तो उसी समय भारत का राष्ट्रगान बजाया गया. विधान सभा के सदस्यों, मंत्री मंडल, विधान सभा में उपस्थित राज्य के अधिकारियों, दर्शकों ने खड़े हो कर राष्ट्रगान को सम्मान दिया.

राष्ट्रगान, त्रिपुरा विधानसभा, मोदी सरकार, भाजपा

राष्ट्रगान बजाने का उद्देश्य देश का आदर करना और भारत भूमि को सम्मान देने का होता है. किसी राज्य विधानसभा के अंदर राष्ट्रगान बजाने का भी यही उद्देश्य होता है. भारत की विभिन्न विधानसभाओं में राष्ट्रगान सामान्य स्थिति में कई बार बजा होगा. तो इस खबर में ख़ास बात क्या है? यहां हैरानी की बात यह है की 23 मार्च, शुक्रवार को त्रिपुरा विधानसभा में पहली बार राष्ट्रगान बजाया गया.

सुनने में यह बात बड़ी अजीब सी लगती है कि आज से पहले कभी त्रिपुरा विधानसभा में राष्ट्रगान नहीं बजाया गया. राष्ट्रगान भारत की राष्ट्रीयता के सर्वोच्च प्रतीकों में से एक है. विधानसभा में राष्ट्रगान न बजाने का अर्थ, राष्ट्रगान के महत्व को नज़रअंदाज़ करना है.

राष्ट्रगान, त्रिपुरा विधानसभा, मोदी सरकार, भाजपा

2014 में भाजपा की केंद्र में सरकार बनने के बाद राष्ट्रवाद और उससे जुड़े मुद्दे देश में बहस के कारण बने है. 2014 से पहले त्रिपुरा की जनता को शायद राष्ट्रगान के महत्व का इतना अहसास नहीं था. हाल के विधानसभा चुनाव का परिणाम यह दर्शाता है कि त्रिपुरा के मतदाताओं को पिछली सरकारों द्वारा राष्ट्रगान को नज़रअंदाज़ करना पसंद नहीं आया. यदि वामपंथ की पिछली सरकार, अपने समय त्रिपुरा में राष्ट्रीयता के मुद्दों और प्रतीकों को महत्व देती तो शायद प्रतीकों पर आधारित राजनीति में वह कुछ अंक कमा लेती.

प्रश्न देश के पत्रकार वर्ग पर भी उठते है. भारत की मीडिया अपने आपको बहुत प्रखर मानती है. इस घटना ने देश के पत्रकारों पर भी सवाल खड़े कर दिए है. देश के महानगरों में बैठे पत्रकारों को दूर-सुदूर त्रिपुरा की कभी याद नहीं आई. त्रिपुरा विधानसभा में आज से पहले कभी राष्ट्रगान नहीं बजा और इस विसंगति पर किसी पत्रकार ने सवाल नहीं उठाया. यह स्थिति यदि दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात विधानसभा की होती तो क्या पत्रकार वर्ग इस पर आवाज़ नहीं उठाता? उत्तर-पूर्व के लोगों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है. भारत के प्रत्येक राज्य के मुद्दे उठाए बिना देश के महानगरों में बैठे वरिष्ट पत्रकारों की पत्रकारिता अधूरी है.

राष्ट्रीयता और उससे जुड़े प्रतीकों का महत्व मोदी सरकार बनेने के बाद बहुत बढ़ गया है. माणिक सरकार को इस सच्चाई का पता चुनाव हारकर लगा है.

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लेखक

अमित अरोड़ा अमित अरोड़ा @amit.arora.986

लेखक पत्रकार हैं और राजनीति की खबरों पर पैनी नजर रखते हैं.

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