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Updated: 27 अगस्त, 2021 08:54 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नारायण राणे (Narayan Rane) को महाराष्ट्र की राजनीति में हुए फायदे को कैसे समझ सकते हैं - अगर छप्पर-फाड़ नहीं तो महाराष्ट्र की राजनीति (Maharashtra Politics) में कुछ हद तक लॉटरी लगने जैसा ही है.

छप्पर फाड़ कर मिलने वाला इसलिए नहीं क्योंकि कुछ दिन बाद राजनीति आगे बढ़ जाएगी और राणे को दूसरी चुनौतियों से जूझना होगा. लॉटरी लगने जैसा इसलिए क्योंकि उद्धव ठाकरे ने सोच विचार कर राजनीतिक स्टैंड लिया होता तो मामला ये रूप शायद नहीं ले पाता.

शिवसेना छोड़ने के बाद नारायण राणे कांग्रेस सरकार में मंत्री जरूर बने थे, लेकिन बाद में चाहे अपनी पार्टी बनायी हो या फिर उसका बीजेपी में विलय कर दिया हो, संघर्षों का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था.

बीजेपी शिवसेना गठबंधन के वक्त नारायण राणे के लिए राज्य सभा जाने का रास्ता भी दूभर साबित हो रहा था. बीजेपी नेतृत्व के चाहने के बावजूद उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) हमेशा ही अड़ंगा लगा देते रहे.

बीजेपी में नारायण राणे को मंत्री बनने के लिए भी काफी इंतजार करना पड़ा. अगर बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन नहीं टूटा होता और 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बने होते तो महाराष्ट्र सरकार में भी राणे के लिए मंत्री बनना मुश्किल हो जाता.

देखा जाये तो शिवसेना से बीजेपी का गठबंधन टूटना भी नारायण राणे के लिए फायदे की ही बात रही - और कैबिनेट मंत्री बनने के बाद शिवसेना नेतृत्व के एक कदम से जन आशीर्वाद यात्रा के जरिये जो फायदा मिला है, वो नारायण राणे की राजनीति के लिए नेट प्रॉफिट है.

थ्योरी तो ये है कि किसी सौदे में एक पार्टी को फायदा होता है तो दूसरे को नुकसान, लेकिन नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच हुए ताजा मुकाबले में नफा-नुकसान को समझने की कोशिश करें तो, शिवसेना के खाते में नफा और नुकसान दोनों दर्ज हुआ लगता है.

साइड इफेक्ट तो झेलने ही पड़ेंगे

मान लीजिये उद्धव ठाकरे ने नारायण राणे के थप्पड़ मारने वाले बयान को इग्नोर कर दिया होता - जैसे कंगना रनौत के तू-तड़ाक पर कहा था, 'ऐसा नहीं कि जवाब नहीं है, जवाब देना नहीं चाहता.'

उद्धव ठाकरे ने ये बात कंगना रनौत के वीडियो जारी करने के बाद कही थी, लेकिन ये भी ध्यान रहे कि उसके पहले बीएमसी की कार्रवाई में फिल्म स्टार के दफ्तर में तोड़ फोड़ हो चुकी थी. तोड़ फोड़ भी तभी जब वो मुंबई के रास्ते में रहीं - और कंगना का वीडियो बीएमसी के एक्शन पर ही गुस्से में दिया हुआ रिएक्शन रहा.

देखा जाये तो जवाब तो उद्धव ठाकरे का नारायण राणे के बयान पर अब भी नहीं आया है, लेकिन पुलिस एक्शन और मामला गिरफ्तारी तक पहुंच जाना भी तो एक बयान ही है. एक्शन भी तो बोलता ही है. शब्द नहीं होते, एक्शन में लेकिन आवाज काफी तेज होती है और दूर तक सुनायी देती है.

narayan rane, uddhav thackerayतात्कालिक हिसाब से देखें तो निजी तौर पर उद्धव ठाकरे भी फायदे में हैं, दूरगामी परिणामों की बात और है - लेकिन राणे की तो बल्ले बल्ले है

अगर ये सब नहीं हुआ होता तो क्या होता - बात आई गई हो जाती. राणे जन आशीर्वाद यात्रा में मोदी सरकार की उपब्धियां गिनाते. डबल इंजिन की सरकार न होने से महाराष्ट्र के लोगों को होने वाले नुकसान के कुछ किस्से सुनाते और फिर नारायण राणे दिल्ली लौट जाते. थोड़ा बहुत संजय राउत ही शेरो शायरी सुना देते.

तब तो नारायण राणे ही घाटे में रहते. जिस मकसद से नारायण राणे को कैबिनेट में शामिल किया गया, उसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके परम सहयोगी अमित शाह को और भी इंतजार करना होता. किसी और मौके की तलाश होती. फिर तो नारायण राणे को भी वो भाव नहीं मिलता जो अब मिलने लगा है - मोदी-शाह भले चुप हों, लेकिन बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा तो मोर्चे पर आ डटे हैं ही.

उद्धव ठाकरे अगर सोच समझ कर कोई कदम उठाये होते या तूल देने से बच गये होते तो कम से कम नारायण राणे रातोंरात स्टार तो नहीं ही बन पाते - वो भी उम्र के इस पड़ाव पर जिस राजनीतिक संघर्ष के दौर से वो गुजर रहे थे.

लेकिन उद्धव ठाकरे की भी मजबूरी थी. इंसान ही तो हैं. बरसों से खार खाये हुए थे. थप्पड़ मारने की बात सुने तो गुस्सा फूट पड़ा. वो भी देश की आजादी से जुड़ी जानकारी के मामले में अज्ञान बता कर मजाक उड़ाये जाने पर, लेकिन उद्धव ठाकरे के अनसुना कर दिये जाने पर भला किसका ध्यान जाता. ज्यादा से ज्यादा खबरों में एक लाइन चलती - नारायण राणे के बिगड़े बोल, विवादित बयान या जबान फिसली - और किस्सा खत्म.

नारायण राणे ने जो कुछ कहा या किया वो तो उनकी नैसर्गिक प्रतिभा मानी जा रही है - वो बिलकुल अपने नेचुरल अंदाज में थे. शुरू से वैसी ही राजनीति करते हैं. और किसी जमाने में ये सब शिवसेना को भी पूरी तरह सूट भी करता था.

नारायण राणे पले बढ़े और यहां तक कि बड़े भी तो शिवसेना की राजनीतिक लाइन पर ही हुए हैं - बाल ठाकरे की छत्रछाया में ही तो राजनीति भी सीखी है.

बल्कि ये कहना बेहतर होगा कि बाल ठाकरे ने नारायण राणे के इस खास टैलेंट को देखते हुए शिवसैनिक बनाया होगा - और एक दिन वो भी आया ही जब मनोहर जोशी को हटा कर बाल ठाकरे ने नारायण राणे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था.

भला उद्धव ठाकरे से बेहतर नारायण राणे को और कौन जानता होगा?

हो सकता है थप्पड़ से ज्यादा चोट पुरानी अदावत भी नहीं, बल्कि राणे पिता-पुत्र की ठाकरे पिता-पुत्र के प्रति हालिया आक्रामकता ज्यादा कचोटने लगी हो. थप्पड़ की गूंज में बेबी पेंग्विन का इको सुनाई पड़ने लगा हो. सुशांत सिंह राजपूत केस को लेकर जांच पड़ताल के दौरान राणे के विधायक बेटे नितेश राणे, महाराष्ट्र सरकार में मंत्री और ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को इसी नाम से संबोधित करते थे.

अपनी गिरफ्तारी को गलत ठहराने के लिए भी नारायण राणे ने फिर से सुशांत सिंह राजपूत केस वाला इल्जाम दोहरा दिया. बोले, सुशांत सिंह राजपूत और दिशा सालियन केस में उनका बेटा शामिल था - तब उसकी गिरफ्तारी नहीं हुई तो मुझे क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है?

उद्धव ठाकरे ने नारायण राणे को गिरफ्तार करा कर बीजेपी ही नहीं अपनी सरकार के गठबंधन सहयोगी दलों के बीच भी कोई अच्छा मैसेज नहीं दिया है. एनसीपी नेता शरद पवार की बातों से तो ऐसा ही लगता है.

नारायण राणे की गिरफ्तारी के मामले में भी शरद पवार ने तूल न देने की बात वैसे ही कही है जैसे कंगना रनौत के केस में बीएमसी के तोड़ फोड़ वाले एक्शन की.

अब तो लगने लगा है जैसे शरद पवार को लग रहा हो कि उद्धव ठाकरे व्यक्तिगत वैमनस्य को भी राजनीतिक रूप देने लगे हैं - और मुख्यमंत्री होते हुए अपनी एनर्जी ऐसे कामों में जाया होने दे रहे हैं जो गैर जरूरी हैं, जबकि दूसरे मामलों में ऐसे एक्शन की ज्यादा जरूरत है.

और ऐसा भी नहीं कि नारायण राणे के बढ़ते कद से की वजह से सिर्फ उद्धव ठाकरे की राजनीति पर ही असर पड़ने वाला है - देवेंद्र फडणवीस और उनके साथी नेताओं की भी बेचैनी बढ़ी हुई है.

असर तो महाराष्ट्र बीजेपी पर भी हुआ है

महाराष्ट्र में मराठा अस्मिता भावनात्मक तौर पर सर्वोपरि तो है ही, वो आबादी भी सूबे की राजनीति को दबदबे से प्रभावित करती रही है. मराठा समुदाय में दबदबा बनाये रखने के मकसद से ही बाल ठाकरे ने 90 के दशक के आखिर में नारायण राणे को मराहाष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था.

नारायण राणे की उसी खासियत और जनाधार को देखते हुए बीजेपी भी खास रणनीति के तहत महाराष्ट्र की राजनीति में वापसी की कोशिश करने लगी है. चुनावों में नंबर गेम में पिछड़ने के बाद सत्ता का नया गठबंधन बन जाने के बाद से बीजेपी खुद को काफी पीछे महसूस करने लगी है.

नारायण राणे के ताजा उभार से बीजेपी नेतृत्व को जो उम्मीद जगी है, ऐन उसी वक्त दूसरी छोर पर उद्धव ठाकरे की टीम के माथे पर चिंता की लकीरें देखी जाने लगी हैं - और एक बड़ी वजह आने वाले निकायों के चुनाव हैं.

नारायण राणे की गिरफ्तारी पर बीजेपी की तरफ से ही दो तरह के रिएक्शन आये - एक केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से और दूसरा महाराष्ट्र बीजेपी की ओर से. महाराष्ट्र बीजेपी के नेता जहां नाप तौल कर शब्द खर्च कर रहे थे, वहीं केंद्रीय नेतृत्व सीधे तौर पर खुला खेल खेल रहा था.

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का फौरी रिएक्शन गौर करने लायक है, 'महाराष्ट्र सरकार द्वारा केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी संवैधानिक मूल्यों का हनन है... ऐसी कार्रवाई से ना तो हम डरेंगे, ना दबेंगे.'

जबान भले ही जेपी नड्डा के हों, लेकिन शब्द तो साफ तौर पर अमित शाह के ही लग रहे हैं. निश्चित तौर पर जेपी नड्डा ने अमित शाह के कहने पर ही ऐसा किया होगा - और मराठा अस्मिता के नाम पर बचाव का जिम्मा राज्य के नेताओं पर छोड़ दिया होगा.

पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने भी नारायण राणे के खिलाफ पुलिस एक्शन पर विरोध प्रकट किया था, लेकिन वो रस्मअदायगी जैसा ही लगा था.

महाराष्ट्र बीजेपी नेता जब ये कह रहे थे कि वे नारायण राणे के बयान का समर्थन नहीं करते तो ऐसा लग रहा था जैसे बचाव की मुद्रा में हों, जैसे सफाई पेश कर रहे हों - और केंद्रीय नेतृत्व बेपरवाह होकर नारायण राणे की गिरफ्तारी का विरोध कर रहा हो.

जाहिर है, देवेंद्र फडणवीस या चंद्रकांत पाटिल जैसे नेता नारायण राणे का प्रभाव बढ़ते देख कर खुश तो नहीं ही होंगे, लेकिन बीजेपी नेतृत्व तो बहुत दूर तक सोच रहा होगा और उसी हिसाब से रणनीति तैयार कर रहा होगा. काश, उद्धव ठाकरे भी मोदी-शाह से बीजेपी वाले अंदाज में ही निबटते - कम से कम नयी चुनौतियों से जूझने से तो बच जाते.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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