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Updated: 21 सितम्बर, 2022 02:09 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस साल बाद नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को भी दिल्ली के लिए यूपी का रास्ता अच्छा लगने लगा है. 2024 के आम चुनाव में तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के यूपी के फूलपुर से लोक सभा चुनाव लड़ने की भी जोरदार चर्चा है - और अब तो बीजेपी की तरफ से तगड़ा रिएक्शन भी आ गया है.

2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात से यूपी का ही रास्ता अख्तियार किया - और फिलहाल वाराणसी लोक सभा सीट से दूसरी बार लोक सभा पहुंचे हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी गुजरात की वडोदरा संसदीय सीट से भी चुनाव लड़े थे, लेकिन बाद में छोड़ दिये.

कहते हैं कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने नीतीश कुमार को यूपी की किसी भी सीट से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया है और समाजवादी पार्टी की तरफ से समर्थन का भरोसा भी दिलाया है. ऐसे ही अखिलेश यादव ने 2018 में फूलपुर सीट पर उपचुनाव से पहले मायावती के भी चुनाव लड़ने की सूरत में समर्थन का ऐलान कर दिया था - लेकिन अब वही मायावती, अखिलेश यादव और नीतीश कुमार दोनों के प्रयासों पर पानी फेरने में लगी हुई हैं.

माना जा रहा है कि दिल्ली में नीतीश कुमार से मुलाकात के दौरान समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने ही उनके सामने ये प्रस्ताव रखा था - और जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने ये कह कर चर्चा को आगे बढ़ा दिया कि न तो वो इकरार कर रहे हैं, न ही इनकार कर रहे हैं. और फिर बातों बातों में जेडीयू अध्यक्ष ये भी दावा कर बैठे कि अगर अखिलेश यादव और नीतीश कुमार साथ आ गये तो यूपी में बीजेपी 20 सीटों पर सिमट कर रह जाएगी.

नीतीश कुमार के चुनाव लड़ने की चर्चाओं पर बीजेपी की तरफ से सुशील मोदी ने प्रतिक्रिया दी है. बिहार में बीजेपी खेमे से नीतीश कुमार के सबसे करीबी साथी माने जाने वाले सुशील मोदी ने ट्विटर पर अपना बयान जारी किया है - 'फूलपुर हो या मिर्जापुर नीतीश जी आपकी जमानत नहीं बचेगी... बिहार से इतना डर गये हैं कि उत्तर प्रदेश जाने की सोच रहे हैं.'

राज्य सभा सांसद सुशील मोदी तो मजबूरी में रस्मअदायगी कर रहे हैं, यूपी में बीजेपी की असली मददगार तो बीएसपी नेता मायावती हैं - और सुशील मोदी ने तो सिर्फ बयान जारी किया है, मायावती तो नीतीश कुमार के सारे ही प्रयासों पर पानी फेर देने वाली हैं.

ऐसा तो नहीं कह सकते कि मायावती (Mayawati) की नीतीश कुमार से कोई सीधी दुश्मनी है, लेकिन जेडीयू नेता का यूपी की राजनीति में अखिलेश यादव को आगे करना बीएसपी नेता को बहुत बुरा लगा होगा, ऐसा लगता है. विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशों के तहत दिल्ली पहुंचे नीतीश कुमार ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि अखिलेश यादव ही यूपी में महागठबंधन के नेता होंगे.

खबर ये भी आयी है कि अपने प्रस्तावित यूपी दौरे के वक्त नीतीश कुमार ने मायावती से मुलाकात का समय मांगा है. मायावती ने नीतीश कुमार से मिलने के लिए हामी भी भर दी है - लेकिन मुस्लिम वोटों को लेकर जो चालें मायावती चल रही हैं उसमें नीतीश कुमार की कौन कहे, अखिलेश यादव के आगे भी नयी मुसीबत खड़ी होने वाली है.

मुस्लिम वोटर की तरफ मायावती का झुकाव किसलिए?

दलित वोटों के दम पर ही मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं, लेकिन बाद में वो ब्राह्मण और मुस्लिम वोट बैंक को बारी बारी आजमाती रही हैं. अपने बूते मायावती ने सिर्फ 2007 में यूपी में बीएसपी की सरकार बनायी थी - और उसे सोशल इंजीनियरिंग की मिसाल माना जाता है.

mayawati, akhilesh yadav, nitish kumarनीतीश कुमार की दिल्ली की राह में मायावती यूपी की अरविंद केजरीवाल हैं

जब 2012 में सत्ता में वापसी करने में मायावती असफल रहीं तो दलितों के साथ साथ मुस्लिम वोटों को साधने की कोशिश की. 2017 के लिए पश्चिम यूपी के साथ साथ पूर्वांचल में मुस्लिम वोट के लिए मायावती ने मुख्तार अंसारी को ये कह कर साथ लिया था कि वो उनको सुधरने का मौका देना चाहती हैं.

लेकिन 2022 आते आते मायावती मुस्लिम वोटों से मोह भंग हो गया - और वो नये सिरे से ब्राह्मण वोटों के चक्कर में पड़ गयीं. सतीशचंद्र मिश्रा को पूरे यूपी से ब्राह्मणों के वोट बटोरने का टास्क दिया. फिर पूरे यूपी में प्रबुद्ध सम्मेलन के नाम पर जगह जगह ब्राह्मणों का सम्मेलन कराया गया - शंख ध्वनि और जय श्रीराम के उद्घोष के बीच मायावती मंच पर हाथ में त्रिशूल लिये भी देखी गयीं - लेकिन जब यूपी चुनाव के नतीजे आये तो 403 में से बीएसपी को सिर्फ एक सीट मिल पायी थी.

अब ये देखने को मिल रहा है कि मायावती का ब्राह्मण वोटर से भी मोहभंग हो गया है - और वो फिर से मुस्लिम वोटर की तरफ शरणागत होने की कोशिश में जुट गयी हैं. यूपी चुनाव 2022 के नतीजे आने के बाद मायावती ने कहा था कि मुस्लिम वोटों के समाजवादी पार्टी की तरफ चले जाने की वजह से ही बीएसपी यूपी चुनाव हार गयी.

मायावती दरअसल, ये समझाने की कोशिश कर रही थीं कि बीजेपी ने वोटों का ध्रुवीकरण करा दिया और उनके सारे वोट बीएसपी को न मिल कर सपा को मिल गये. तभी मायावती ने ये संकेत दे दिये थे कि चुनावों में पार्टी ने जो सबक सीखा है, उस पर सोच विचार के बाद बीएसपी अपनी रणनीति बदलेगी.

कार्यकर्ताओं का जोश कम न हो, इसके लिए तब मायावती ने यूपी चुनाव के नतीजों की पश्चिम बंगाल चुनाव से जोड़ कर पेश करने की कोशिश की थी. मायावती ये समझाना चाह रही थीं कि अगर दलितों के साथ मुस्लिम वोट बीएसपी को मिल जाते तो पश्चिम बंगाल की तरह बीजेपी सत्ता से बाहर हो जाती.

और जब आजमगढ़ संसदीय सीट पर उपचुनाव हुआ तो मायावती ने मुस्लिम उम्मीदवार को ही टिकट दिया था. एक वजह तो यही हो सकती है कि मायावती मुस्लिम वोट को लेकर खुद को आजमाने की कोशिश कर रही होंगी. दूसरी राजनीतिक वजह तो वही लगी जो यूपी विधानसभा चुनाव में महसूस किया गया था.

मुस्लिम वोटर की तरफ बीएसपी के बढ़ते रुझान को लेकर इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से मायावती और बीएसपी की तरफ से जो बयान आते रहे हैं उनमें मुसलमानों से जुड़े मुद्दे 21 बार उठाये गये हैं. ठीक वैसे ही चुनाव के पहले के छह महीनों में मुस्लिम समुदाय से संबंधित मुद्दों का जिक्र सिर्फ आठ बार दर्ज किया गया था - और तब ब्राह्मणों को खुश करने वाले काफी बयान दिये जाते रहे.

उत्तर प्रदेश में बीएसपी का वोट शेयर 2022 में सीधे 10 फीसदी घटा हुआ दर्ज किया गया है. 2012 में बीएसपी का वोट शेयर यूपी में जहां 22 फीसदी रहा, 2022 में वो 12 फीसदी रह गया. हो सकता है बीएसपी के कुछ वोट समाजवादी पार्टी को मिले हों, लेकिन वोट शेयर में जो इजाफा दर्ज हुआ है वो तो मुस्लिम वोट के कारण ही रहा. समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 2017 के मुकाबले 10 फीसदी बढ़ा पाया गया. 2017 में सपा का वोट शेयर 22 फीसदी था जो 2022 में करीब 32 फीसदी पहुंच गया.

मायावती ऐसे ही कभी ब्राह्मण तो कभी मुस्लिमों के चक्कर में पड़ीं रहती हैं तो दलित वोटर धीरे धीरे दूरी तो बनाएगा ही - लेकिन बीएसपी के मुस्लिम वोटर की तरफ नये सिरे से झुकाव की वजह वो तो बिलकुल नहीं लगती जो मायावती की तरफ से बतायी जा रही है.

सवाल ये है कि मुस्लिम वोटर की तरफ मायावती का ये झुकाव सत्ता की राजनीति में वापसी की ही कोशिश है या फिर अपनी तरह अखिलेश यादव को भी बर्बाद करने की?

अखिलेश-नीतीश की बैंड बजाने की ये है तैयारी

दलितों के मुद्दे पर मायावती ने 2017 में राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. तब मायावती का कहना रहा, 'अगर मैं दलितों के खिलाफ हो रही ज्यादतियों को लेकर अपनी बात ही सदन में नहीं रख सकती तो मुझे इस सदन में बने रहने का नैतिक अधिकार भी नहीं है.'

ये यूपी में बीजेपी की सरकार बन जाने के बाद की बात है. तभी फूलपुर सीट पर उपचुनाव लड़ने को लेकर मायावती की चर्चा चल रही थी क्योंकि डिप्टी सीएम बन जाने के बाद केशव प्रसाद मौर्य को लोक सभा की सीट छोड़नी पड़ी थी. तब तो अखिलेश यादव ने मायावती का सपोर्ट किया ही था, 2019 के लिए जब सपा-बसपा गठबंधन बना तो वो मायावती के प्रधानमंत्री बनने में मददगार बन गये थे.

रोहित वेमुला के मुद्दे पर संसद में बीजेपी नेता स्मृति ईरानी और मायावती के बीच बड़ी ही तीखी बहस हुई थी, लेकिन जरूरी नहीं कि मायावती दलितों से जुड़े हर मुद्दे पर बिलकुल वैसे ही रिएक्ट करें - तब तो बिलकुल भी नहीं जब कोई मुद्दा या घटना उनकी पॉलिटिकल लाइन को सूट नहीं करती हो. यूपी में सोशल इंजीनियरिंग के जरिये बगैर किसी गठबंधन के मुख्यमंत्री बन चुकी मायावती को अरसे से ब्राह्मण और मुस्लिम वोटर के बीच झूलते देखा गया है - और ये उलझन लखीमपुर की हाल की घटना पर उनके ट्वीट से भी साफ हो जाती है.

यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान मायावती को बीजेपी की मददगार के रूप में देखा गया. खास कर पश्चिम यूपी में जहां किसान आंदोलन और जाटों की नाराजगी से बीजेपी बुरी तरह जूझ रही थी. राहुल गांधी ने हाल ही में खुल कर मायावती पर बीजेपी की मदद करने का आरोप लगाया था.

विधानसभा चुनाव ही नहीं आजमगढ़ लोक सभा सीट पर उपचुनाव भी एक मिसाल है. आजमगढ़ सीट अखिलेश यादव के विधायक बन जाने की वजह से खाली हुई थी और उपचुनाव में अखिलेश यादव ने परिवार के ही सदस्य धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतार दिया था.

2019 के चुनाव में अखिलेश यादव से हार चुके बीजेपी उम्मीदवार दिनेश लाल यादव निरहुआ को फिर से टिकट मिलने के संकेत मिलने लगे थे. ऐसे में मायावती ने शाह आलम गुड्डू को बीएसपी का टिकट देकर मुकाबले में उतार दिया. मायावती के पास मुस्लिम उम्मीदवार के अलावा भी एक तर्क था. दरअसल, 2014 में शाह आलम को मुलायम सिंह यादव ने हराया था. 2019 में सपा-बसपा गठबंधन की वजह से अखिलेश यादव के कोटे में आजमगढ़ सीट होने से बीएसपी ने उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था. जब गठबंधन खत्म हो गया तो मायावती ने अपने पुराने कैंडिडेट को ही मोर्चे पर उतार दिया.

बीएसपी प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में आजमगढ़ के नतीजे को बीएसपी को मिलने वाले मुस्लिम सपोर्ट के हिसाब से समझाने की कोशिश कर रहे हैं. कहते हैं, 'आजमगढ़ उपचुनाव देखिये... समाजवादी पार्टी जो खुद को मुसलमानों की फिक्रमंद बताती है, उसने अपने परिवार के ही सदस्य को मैदान में उतारा... केवल हमने मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया... हम हार जरूर गये लेकिन हमें करीब 30 फीसदी वोट मिले... अब मुसलमान कह रहे हैं कि अगर वे हमें ज्यादा वोट किये होते तो बीजेपी आजमगढ़ में हार जाती.'

ऐसे भी कह सकते हैं कि मुस्लिम वोट के सपा की तरफ न जाने और बीएसपी के खाते में पड़ जाने से ही निरहुआ जीत पाये - क्योंकि शाह आलम की जगह मायावती ने किसी दलित उम्मीदवार को टिकट दिया होता तो उपचुनाव के भी नतीजे 2019 और 2014 के आम चुनावों जैसे ही होते.

और ये बात यूं ही नहीं है, तीनों उम्मीदवारों को मिले वोटों की संख्या पर नजर डालें तो सब कुछ साफ साफ नजर आता है. आजमगढ़ उपचुनाव में बीजेपी के निरहुआ को 3,12, 768 वोट मिले थे - और सपा के धर्मेंद्र यादव को 3,04,089, जबकि बीएसपी के शाह आलम को 2,66,210 वोट - हार और जीत का फैसला करीब साढ़े आठ हजार वोटों के चलते हुआ था.

क्या शाह आलम की जगह कोई दलित उम्मीदवार होता तो भी बीएसपी को उतने ही वोट मिले होते? यूपी विधानसभा चुनावों के नतीते तो कहते हैं - बिलकुल नहीं.

उपचुनाव से पहले ही मायावती का बयान भी मिलता जुलता ही रहा. मायावती का कहना था कि जब भी मुसलमान समाजावादी पार्टी के साथ गये हैं, बीजेपी चुनाव जीत जाती है - और ये भी कि जब भी मुस्लिम समुदाय ने बीएसपी पर भरोसा जताया बीजेपी को मुश्किल हुई है.

लेकिन आजमगढ़ के मामले में मायावती की ये दलील सही नहीं साबित हुई - क्योंकि मुस्लिम वोटर के बीएसपी के साथ आ जाने पर भी बीजेपी उम्मीदवार निरहुआ जीत गये. ये तो पूरी तरह साफ है मायावती मुस्लिम वोट किसके लिए बटोर रही हैं?

भले ही अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव में 2019 के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर चुके हों, लेकिन जिस तरीके से मायावती समाजवादी पार्टी से मुस्लिम वोट हथियाने में जुटी हैं - अखिलेश यादव को यूपी में महागठबंधन का नेता बनाने का नीतीश कुमार का प्लान तो फेल हो ही जाएगा.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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