New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 09 सितम्बर, 2022 08:59 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की बातों से लगता है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के मार्केट में आ जाने से उनका जोश फिर से हाई हो गया है. जैसे पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद देखा गया था, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव आते आते लगा जैसे वो हथियार भी डालने वाली हैं.

गांधी परिवार की निजी मुश्किलों की वजह से राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी विपक्षी दलों की मीटिंग तो ममता बनर्जी ही होस्ट कर रही थीं - लेकिन बीजेपी की तरफ से एनडीए का उम्मीदवार घोषित करते ही, लगा जैसे मैदान छोड़ कर भाग खड़ी हुईं.

और उसके बाद जिस तरीके से ममता बनर्जी ने उपराष्ट्रपति चुनाव से दूरी बनाने की घोषणा कर दी थी, ऐसा लगा जैसे वो भी नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी के रास्ते ही आगे बढ़ने की तैयारी करने लगी हैं. यूपीए या एनडीए का हिस्सा न होते हुए भी ओडिशा और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री लगातार केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के पक्ष में खड़े नजर आते रहे हैं.

ममता बनर्जी का विपक्षी साथियों से दूरी बना लेने से तो ऐसा ही लग रहा था कि कहीं वो भी फिर से एनडीए की तरफ लौटने के बारे में तो नहीं सोच रही हैं. सोनिया गांधी से प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के खिलाफ विपक्ष के साझा बयान से दूरी बना लेना और शरद पवार के फोन का जवाब न देना - ये दो वाकये तो ऐसे ही संकेत दे रहे थे.

अब ममता बनर्जी फॉर्म में वापस आ गयी हैं - और फिर से कहने लगी हैं कि '2024 का खेल बंगाल से शुरू' होगा. नीतीश कुमार के साथ खेल में सपोर्ट करने वाले कुछ नेताओं का नाम भी लेने लगी हैं, लेकिन ऐन उसी वक्त सूची में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं का नाम न होना मिशन के पूरा होने में संदेह भी पैदा करता है.

सवाल ये है कि क्या विपक्ष का नया पैंतरा बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए आगे चल कर किसी तरह की मुश्किल खड़ी कर सकता है? या फिर ऐसी चीजें कुछ दूर तक रफ्तार भरने के बाद बीच रास्ते में ही फिर से लुढ़क जाएंगी?

ये सब निर्भर इस बात पर करता है कि विपक्ष के प्रयास किस दिशा में और किस तरीके से आगे बढ़ते हैं? विपक्ष वास्तव में एकजुट हो पाता है, या उसीकी तरफ से कोई कमजोर कड़ी प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के लिए मददगार साबित होती है?

अब तक ये तो समझ में आ चुका है कि नीतीश कुमार ने पुरानी दुश्मनी का बदला लेने के लिए विपक्षी खेमे में जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सवाल वहीं जाकर ठहर जाता है कि क्या नौ मन तेल होगा भी? मतलब, वास्तव में बीजेपी और मोदी के खिलाफ सारे भेदभाव भूल कर प्रधानमंत्री पद के तमाम दावेदार मिल कर लड़ने को तैयार हो जाएंगे - मोदी की सेहत पर 2024 में ऐसी चीजों का असरदार होना और बेअसर रह जाना ऐसी ही चीजों पर निर्भर करता है.

नीतीश और ममता का साथ आना

शुरू में तो ऐसा लगा जैसे नीतीश कुमार सबको मना लेते हैं तो भी ममता बनर्जी नेटवर्क से बाहर ही पायी जाएंगी. जब शरद पवार के साथ ऐसा हो सकता है, तो भला नीतीश कुमार कौन बड़े तोप होते हैं. वो भी तब जब दिल्ली में समय देने के बाद शरद पवार से मिलने के लिए ममता बनर्जी कोलकाता से मुंबई जा सकती हैं, और पटना जाकर भी नीतीश कुमार की तरफ झांकने तक नहीं जातीं - लेकिन राजनीति की कुछ मजबूरियां ऐसी ही होती हैं.

Nitish Kumar, mamata banerjeeनीतीश और ममता के साथ औरों के आ जाने से भी बीजेपी 2024 में सत्ता तो नहीं गंवाने वाली, लेकिन नुकसान काफी हो सकता है.

अगर नीतीश कुमार कई जगह मजबूर हैं, तो ममता बनर्जी की भी अपनी मजबूरियां हैं. तीन दशक की संघर्ष भरी राजनीति के बाद ममता बनर्जी ने फाइटर की जो छवि बना रखी है, वो भी अक्सर उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर देती है. पश्चिम बंगाल से बाहर ममता बनर्जी का प्रभाव न के बराबर है. ये ठीक है कि ममता बनर्जी और नीतीश कुमार दोनों ही केंद्र में मंत्री रहने के बाद ही अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन नीतीश कुमार कई मामलों में ममता बनर्जी पर भारी भी पड़ते हैं.

नीतीश कुमार से ममता बनर्जी की चिढ़ का एक कारण कांग्रेस से उनका मेल मिलाप हो सकता था. ये तो लालू यादव के साथ नीतीश कुमार के हाथ मिलाने के साथ ही साफ हो गया था कि नीतीश कुमार के आगे की राजनीति कांग्रेस के साथ ही मिल कर आगे बढ़ने वाली है.

वैसे भी महागठबंधन का नेता बनते ही नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से फोन पर बात की ही थी. दिल्ली पहुंचने पर भी सबसे पहले राहुल गांधी से ही मिले. बेशक ममता बनर्जी को ये सब खटक रहा होगा, लेकिन कर भी क्या सकती हैं.

राहुल गांधी के अलावा प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के खिलाफ प्रमुख रूप से तीन ही मुखर स्वर नजर आते रहे हैं - ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार. एनडीए में दोबारा लौट जाने के बाद नीतीश कुमार को खामोशी जरूर अख्तियार करनी पड़ी थी, लेकिन अब वो फिर से पुराने अंदाज में नजर आने लगे हैं.

बीजेपी के बहाने कांग्रेस पर निशाना: ममता बनर्जी का कहना है कि 2024 का 'खेला' पश्चिम बंगाल से ही शुरू होगा. विपक्षी नेताओं का नाम लेते हुए ममता बनर्जी कहती हैं, अगर सब मिल गये तो बीजेपी 2024 में सरकार कैसे बना पाएगी? ममता बनर्जी का भी दावा है कि बीजेपी सरकार नहीं बना पाएगी.

नीतीश कुमार तो एनडीए छोड़ने के बाद से ही कहने लगे हैं कि 2014 में जो आये थे वो 2024 में आ पाएंगे या नहीं कौन जानता है? ममता बनर्जी अब अपने शब्दों में नीतीश कुमार की बातों को ही एनडोर्स कर रही हैं.

पश्चिम बंगाल के एक कार्यक्रम में ममता बनर्जी कह रही थीं, 'अब हम सभी साथ साथ हैं... नीतीश कुमार भी साथ हैं... अखिलेश यादव साथ हैं... हेमंत सोरेन साथ हैं... और मैं भी वहां हूं... हमारे मित्र भी वहीं खड़े हैं... हम एक साथ आएंगे.'

बीजेपी को लेकर ममता बनर्जी समझा रही हैं कि उनको बहुत घमंड करने की जरूरत नहीं है. कहती हैं, 275-300 सीटें पाकर वो इतने इतरा रहे हैं, राजीव गांधी के पास 400 सांसद थे, लेकिन वो आगे तक कायम नहीं रख सके.

ममता बनर्जी के मुंह से सुनने को मिली ये ऐसी मिसाल है, जिसमें बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस भी निशाने पर स्वाभाविक रूप से आ जाती है. क्या ममता बनर्जी बीजेपी के बहाने कांग्रेस नेतृत्व को भी ताने मार रही हैं? या ममता बनर्जी ये जताने की कोशिश कर रही हैं कि नीतीश कुमार की वजह से वो भले साथ खड़ी हो गयी हों, लेकिन कांग्रेस ये कतई न समझे कि उसे बख्श दिया है?

और तभी ममता बनर्जी ये दावा भी करती हैं कि पांच राज्यों में बीजेपी 100 सीटें गंवाने जा रही है, फिर पूछ बैठती हैं, बताओ बीजेपी 2024 में सरकार कैसे बना पाएगी?

ममता की राजनीति में नीतीश बनाम पवार: ममता बनर्जी और नीतीश कुमार की अभी आमने सामने की मुलाकात नहीं हो पाई है. हो सकता है 25 सितंबर को होने वाली हरियाणा की रैली में ये मुमकिन हो पाये. नीतीश कुमार तो रैली में शामिल होंगे ही, लेकिन ममता बनर्जी मंच पर मौजूद रहेंगी या नहीं अभी कहना मुश्किल है.

फिर भी ममता बनर्जी के बयान से साफ हो चुका है कि नीतीश कुमार की पहल में वो शामिल हो चुकी हैं - क्या ममता बनर्जी को नीतीश कुमार की बदौलत वो ताकत वापस मिल गयी है, जिसे शरद पवार ने छीन ली थी?

शरद पवार के ममता बनर्जी का साथ न देने का सिर्फ एक ही कारण रहा, कांग्रेस को अलग रखने की शर्त. लेकिन ये शर्त तो नीतीश कुमार भी पूरा नहीं कर पाएंगे? फिर ममता बनर्जी के लिए शरद पवार और नीतीश कुमार में क्या फर्क बचता है?

थोड़ा ध्यान से देखें तो अरविंद केजरीवाल का चेहरा उभरता है. हालांकि, अरविंद केजरीवाल भी अपनी राह चल पड़े हैं. शायद उनकी राह में ममता बनर्जी के लिए भी अब कोई जगह नहीं बची है.

ममता बनर्जी के कांग्रेस के बहिष्कार की एक छोटी वजह ही सही, लेकिन अरविंद केजरीवाल को अछूत समझना भी रहा होगा. आपको याद होगा सोनिया गांधी के साथ आखिरी वर्चुअल मुलाकात में भी ममता बनर्जी ने सबको साथ लेकर चलने की बात जोर शोर से कही थी - और नीतीश कुमार की विपक्षी राजनीति में किसी भी नेता का अछूत न होना ही ममता बनर्जी की नजर में उनको शरद पवार से अलग करता है.

शरद पवार ने कांग्रेस को किनारे रखने की ममता बनर्जी की बात तो टाल गये, लेकिन उनका भी इतना प्रभाव कभी नहीं दिखा कि वो सोनिया गांधी को समझा सकें कि ममता बनर्जी सबको साथ लेने की बात कर रही हैं, उस पर ध्यान देना चाहिये - और ये बात अरविंद केजरीवाल के लिए वो कह पाते.

बाधाएं और भी हैं: ममता बनर्जी और नीतीश कुमार भले साथ आ चुके हों, लेकिन अब भी उनकी राह में कई बाधाएं हैं. और कम से कम दो बाधाएं तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को साथ लेना ही है.

हो सकता है, कांग्रेस मान भी जाये, लेकिन जिस रफ्तार से अरविंद केजरीवाल और उनके साथी कदम बढ़ा रहे हैं - अभी तो नहीं लगता है कि वो नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की बातों में आने वाले हैं. मनीष सिसोदिया के घर सीबीआई की रेड के बाद कांग्रेस नेताओं ने AAP के दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन करके अरविंद केजरीवाल को चिढ़ाया ही है.

कैसे परेशान हो सकती है बीजेपी

बीजेपी के लिए 2024 की राह तभी आसान रह सकती है जब तक विपक्ष बिखरा रहे - और अखिलेश यादव का नाम लेकर जैसे महागठबंधन का संकेत नीतीश कुमार ने दिया है, वो तो कतई हकीकत न बन पाये.

2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद जब बीजेपी ने महसूस किया कि सपा-बसपा गठबंधन से नुकसान हो रहा है तो परदे के पीछे से ऐसा खेल खेला गया कि मायावती अंदर ही अंदर सपोर्टर बन गयीं - राहुल गांधी का तो ये खुला आरोप है, मीडिया रिपोर्ट भी यही कहती हैं. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के दौरान टीवी बहसों में भी कई एक्सपर्ट ऐसी ही आशंकाएं जता रहे थे.

ये तो खुलेआम देखा गया कि बीजेपी नेता अमित शाह कैसे अखिलेश यादव और जयंत चौधरी को अलग करने की कोशिश कर रहे थे. जब बीजेपी जोड़ी नहीं तोड़ पायी तो तो मायावती को ही मददगार बन कर मैदान में कूदना पड़ा और तभी बीजेपी चुनावी वैतरणी पार कर पायी.

अब अगर यूपी में अखिलेश यादव ही महागठबंधन के नेता होते हैं तो वोट बंटेंगे नहीं. ऐसे में बीजेपी भले ही अपना दल, निषाद पार्टी और मित्र दल बीएसपी के साथ मिल कर मैदान में कूदे, लेकिन उसके सामने तो यूनाइटेड विपक्ष ही होगा - और तब मुकाबला बेहद मुश्किल होगा. यही पैटर्न अगर बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे राज्यों में संभव हो पाया तो बीजेपी के लिए निश्चित तौर पर काफी मुश्किल हो सकती है.

ममता बनर्जी जिन 100 सीटों की बात कर रही हैं, अगर अपने दावे के मुताबिक वास्तव में वो खेल कर पाती हैं तो बीजेपी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है. वैसे भी ममता बनर्जी को तो बंगाल में भी 2019 में गवां चुकी सीटें हासिल करनी ही है.

और यही वो चीज है जिसकी वजह से अरविंद केजरीवाल भी शायद गठबंधन के लिए राजी हो सकते हैं. पंजाब में तो 2014 से ही आम आदमी पार्टी के सांसद बनते रहे हैं - लेकिन दिल्ली में तो अब तक खाता भी नहीं खुल सका है.

दिल्ली में लोक सभा की सात सीटें हैं - और 2019 में भी अरविंद केजरीवाल देख ही चुके हैं कि कैसे कांग्रेस ने तीसरे स्थान पर भेज दिया था. कुछ सीटों पर तो जमानत भी जब्त हो गयी थी. अगर कांग्रेस और आप मिल कर लड़ें - मतलब, नेतृत्व आप करे और कांग्रेस सहयोगी की भूमिका में रहे, दोनों मिल कर बीजेपी की दो सीटें भी कम कर दें तो बड़ा फायदा ही समझा जाएगा.

आप और कांग्रेस में ऐसा ही पेंच पंजाब में भी फंसेगा. सत्ता में होने के नाते नेतृत्व का हक तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी का ही बनता है. ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को मिल कर ऐसी ही समस्याओं से जूझना है - और मोदी-शाह के सामने भी सबसे बड़ी चुनौती इसे ही न्यूट्रलाइज करना है. लंबे अरसे बाद विपक्षी दलों के नेता जिस तरह एक्टिव हुए हैं - 2024 में विपक्ष को बड़ी कामयाबी भले न मिले, लेकिन बीजेपी कुछ कमजोर जरूर हो सकती है.

इन्हें भी पढ़ें :

नीतीश का किसी भी पार्टी को अछूत न मानना ही मोदी की सबसे बड़ी मुश्किल है

कांग्रेस और केजरीवाल की यात्राओं का मकसद एक है, बाकी बातें बिल्कुल जुदा!

नीतीश कुमार दिल्ली में लेकिन 'दिल्ली अभी बहुत दूर' है

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय