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Updated: 30 अप्रिल, 2022 08:24 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मायावती (Mayawati) का ताजा बयान काफी हैरान करने वाला है. मायावती ने वैसे तो अखिलेश यादव को लेकर भड़ास निकाली है, लेकिन लगे हाथ देश के राष्ट्रपति को लेकर भी अजीब बात बोल दी है. बेशक मायावती ने राष्ट्रपति पद को लेकर अपने मन की इच्छा बतायी है, लगे हाथ अपना नजरिया भी जाहिर कर दिया है.

समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के एक बयान पर अपनी प्रतिक्रिया में मायावती ने दो बातें कही है - एक, समाजवादी पार्टी का यूपी में आगे से कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सकता और दो, वो खुद राष्ट्रपति (President Election 2022) कभी नहीं बनना चाहेंगी.

मायावती के रिएक्शन को समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है - आखिर मायावती अखिलेश यादव से ज्यादा खफा हैं और श्राप दे रही हैं, या फिर राष्ट्रपति पद को लेकर ही उनको चिढ़ है?

राष्ट्रपति पद से इतनी चिढ़ क्यों?

चुनावों की बात और होती है, लेकिन आम दिनों में तो नेताओं के आपसी व्यवहार सामान्य देखे जाते हैं. एक तरफ बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव हफ्ते भर में दो बार इफ्तार पार्टी के नाम पर मिल लेते हैं - और दूसरी तरफ, मायावती और अखिलेश यादव हैं कि लड़ाई खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है.

हाल ही में मैनपुरी पहुंचे समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने बीजेपी से नजदीकियों को लेकर बीएसपी नेता मायावती को घेरने की कोशिश की थी. और यहां तक इल्जाम लगा डाला कि उत्तर प्रदेश में बीएसपी ने बीजेपी को वोट दिया है.

मायावती को लेकर अखिलेश यादव चुनावों के दौरान या बाद में भी ऐसी बातें बोलने से परहेज करते देखे गये थे. जबकि मायावती शुरू से ही अखिलेश यादव पर हमलावर देखी गयीं - और बीएसपी की हार का ठीकरा कुछ ऐसे फोड़ा कि मुस्लिम वोटों के समाजवादी पार्टी के खाते में चले जाने से बीजेपी की सरकार बन गयी. मायावती की अपने वोटर को ये समझाने की कोशिश रही कि अगर मुसलमानों का वोट मिल गया होता तो यूपी में बीजेपी की जगह बीएसपी की सरकार बनी होती. बीजेपी को बीएसपी का वोट मिलने का दावा करते हुए, अखिलेश यादव ने पूछा डाला, 'अब सवाल ये है कि क्या बीजेपी मायावती को को राष्ट्रपति बनाएगी?'

देश के प्रथम नागरिक के बारे में ये कैसी सोच है? हो सकता है, अखिलेश यादव ने ये शिगूफा राष्ट्रपति चुनाव की तारीख नजदीक आते देख छोड़ा हो, लेकिन ये भी तो है कि मायावती बीजेपी के लिए राष्ट्रपति पद की बेहतरीन उम्मीदवार हो सकती हैं. हो सकता है, अखिलेश यादव को कहीं से भनक लगी हो कि बीजेपी के संभावित उम्मीदवारों की लॉन्ग लिस्ट में मायावती का भी नाम शुमार है.

mayawati, akhilesh yadavमायावती के निशाने पर जो भी आ जाये, लेकिन ये सब बीएसपी का भला नहीं करने वाला है

अखिलेश यादव की बात सुनकर मायावती गुस्से से भर गयीं और रिएक्शन के लिए लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस भी बुला लिया - और अखिलेश यादव को खूब खरी खोटी भी सुना डाला, लेकिन राष्ट्रपति पद को लेकर मायावती की अनिच्छा काफी अजीब लगती है.

मायावती ने कहा, "मैं आने वाले दिनों में सिर्फ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और देश की प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकती हूं - लेकिन राष्ट्रपति बनने का सपना कभी नहीं देख सकती.”

मानते हैं कि देश के संविधान ने जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के नेता प्रधानमंत्री को ज्यादा शक्तियां दे रखी हैं, लेकिन क्या राष्ट्रपति पद वाकई ऐसा है कि कोई नेता राष्ट्रपति भवन जाने का सपना तक न देख पाता हो.

1. 2014 में केंद्र में फिर से बीजेपी की सरकार बनने के बाद सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी के समर्थक उम्मीद कर रहे थे कि वो प्रधानमंत्री न बन सके तो क्या हुआ, राष्ट्रपति तो बन ही सकते हैं. 2009 में जिन्ना पर बयान देने को लेकर संघ की नाराजगी के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में ही बीजेपी चुनाव मैदान में उतरी थी, लेकिन जनता ने यूपीए को सत्ता में वापसी का जनादेश दे दिया - और बात खत्म हो गयी. आडवाणी के लिए 2017 में राष्ट्रपति बनने का मौका जरूर था, लेकिन मार्गदर्शक मंडल में चले जाने के बाद से वो तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों में पूरी तरह मिसफिट हो चुके थे.

2. कांग्रेस शासन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाते हुए बरसों तक सीनियर पोजीशन में रहे प्रणब मुखर्जी के सामने प्रधानमंत्री बनने के कई मौके आये, लेकिन प्रतिकूल तात्कालिक राजनीति परिस्थितियों के चलते रेस से बाहर हो जाते रहे - आखिरकार 2012 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन भेजने का फैसला किया - और प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को बड़े सम्मान के साथ याद किया जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रणब मुखर्जी दोनों ही एक दूसरे के प्रति सम्मान और आभार प्रकट करते रहे - वो भी तब जब दोनों ही विरोधाभासी वैचारिक पृष्ठभूमि के होकर भी एक साथ काम किये.

ये तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ही रहे जिन्होंने 2014 के आम चुनावों से पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्र के नाम संबोधन में लोगों से अपील की थी कि वो एक मजबूत सरकार के लिए जनादेश देने की कोशिश करें - और लोगों ने उनकी बात सुनी, किया भी बिलकुल वैसा ही. तब शायद यूपीए 2 की सरकार के कार्यकाल के आखिरी दौर में भ्रष्टाचार के मामलों के लिए गठबंधन की कमजोर सरकार का होना भी एक वजह समझा गया जा रहा था.

देश के राष्ट्रपति को लेकर मायावती का नजरिया काफी अजीब लगता है, जब वो कहती हैं, 'मैं आगे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनूं या न बनूं, लेकिन मैं अपने कमजोर व उपेक्षित वर्गों के हितों में देश का राष्ट्रपति कतई भी नहीं बन सकती.'

आखिर मायावती को क्यों लगता है कि देश का राष्ट्रपति समाज में हाशिये पर के लोगों की आवाज नहीं बन सकता? क्या ऐसा बयान देकर वो राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की तरफ इशारा कर रही हैं - क्योंकि वो समाज के उसी तबके से आते हैं, जहां से मायावती आयी हैं?

2017 के राष्ट्रपति चुनाव में तो दलित मुद्दा ही हावी देखा गया, जब एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के खिलाफ विपक्षी दलों की तरफ से कांग्रेस की दलित नेता मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया गया था.

मायावती की बातें सुनकर तो बार बार यही लगता है कि राष्ट्रपति पद को लेकर उनकी क्या भावना है, कहती भी हैं - 'दबे कुचले लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने का ये काम मैं देश का राष्ट्रपति बन कर नहीं, बल्कि यूपी का सीएम और देश की प्रधानमंत्री बन कर ही कर सकती हूं.'

सपा से ऐसी नाराजगी क्यों?

मायावती का ये दावा भी अजीब ही है कि 'अब यूपी में सपा का सीएम बनने का सपना कभी भी पूरा नहीं हो सकता.'

मायावती अगर बीएसपी के चुनावी प्रदर्शन से निराश होकर और अखिलेश यादव के प्रति निजी खुन्नस की वजह से ऐसे श्राप दे रही हों तो और बात है, लेकिन आंकड़े तो उनकी पार्टी से बेहतर स्थिति समाजवादी पार्टी की ही बताते हैं. पैमान चाहे सीटों की संख्या हो या फिर वोट शेयर.

मायावती की दलील भी देख लीजिये, 'सपा मुखिया यूपी में मुस्लिम और यादव समाज का पूरा वोट लेकर, कई पार्टियों से गठबंधन करके भी जब अपना मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं कर सके हैं, तो फिर वो दूसरों का प्रधानमंत्री बनने का सपना कैसे पूरा कर सकते हैं?

मायावती का ये रिएक्शन 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों के बाद का है, लेकिन 2019 में सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के वक्त मीडिया ने अखिलेश यादव के मन की बात जानने की कोशिश की तो बगल में बैठीं मायावती मुस्कुरा रही थीं. क्या तब मायावती को भरोसा था कि अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन करके वो प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा कर सकती हैं.

आंकड़े तो मायावती के दावों को गलत बताते हैं मायावती 2019 के चुनाव नतीजों का भी हवाला दे रही हैं, 'जो पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी से गठबंधन करके भी खुद 5 सीटें ही जीत सके हैं, तो फिर वो बीएसपी की मुखिया को कैसे पीएम बना पाएंगे? ऐसे बचकाने बयान देना बंद करना चाहिए.'

मायावती सपा की पांच सीटों की तरफ ध्यान दिलाते वक्त ये भूल जाती हैं कि गठबंधन की बदौलत ही बीएसपी को उस चुनाव में 10 सीटें मिली थीं. अगर ऐसा नहीं था तो क्यों 2014 में बीएसपी का खाता जीरो बैलेंस पर पहुंच गया था - और 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी सिर्फ एक सीट हासिल कर पायी. जो सीट बीएसपी को मिली भी है वो उम्मीदवार ने अपनी बदौलत ही जीत सुनिश्चित की है.

2022 के चुनाव में भी बीएसपी और समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में काफी फासला दर्ज किया गया. 2017 के मुकाबले जहां सपा के वोट शेयर में करीब 10 फीसदी इजाफा देखा गया, बीएसपी का वोट शेयर उतने ही नीचे गिर गया.

हालिया यूपी चुनाव में बीएसपी को महज 12.7 फीसदी वोट मिले, जबकि सपा को 31.9 फीसदी वोट मिले थे. 2017 में सपा और बसपा का वोट शेयर आस पास ही दर्ज किया गया था.

मायावती के राष्ट्रपति पद के मुकाबले प्रधानमंत्री बनने को तरजीह देने को लेकर पूछे जाने पर अखिलेश यादव ने भी 2019 के चुनाव का ही हवाला दिया. मायावती के बयान पर अखिलेश यादव ने कहा, ‘मैं इससे से खुश हूं... मैं भी यही चाहता था... पिछली बार गठबंधन इसी के लिए बनाया था.'

अखिलेश यादव ने जोर देकर ये भी कहा कि अगर गठबंधन जारी रहता तो बसपा और डॉ भीम राव अंबेडकर के अनुयायियों ने देखा होता कि कौन प्रधानमंत्री बनता.

जयंत चौधरी और चंद्रशेखर आजाद की मुलाकात: अखिलेश लगातार कहते रहे हैं कि समाजवादियों के साथ अंबेडकरवादियों को आ जाना चाहिये, ताकि बीजेपी को शिकस्त दी जा सके. चुनावों के दौरान अखिलेश यादव के इस बयान को दलित वोटर को नाखुश न करने की कोशिश के तौर पर देखा गया था.

मायावती के लगातार हमलावर रहने के बाद अखिलेश यादव ने स्टैंड तो नहीं बदला है, लेकिन अंबेडकरवादियों में मायावती या उनके समर्थकों की जगह भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर को खड़ा करने की तैयारी करते लगते हैं. कुछ दिन पहले आरएलडी नेता जयंत चौधरी और भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद की मुलाकात को ऐसे ही प्रयासों से जोड़ कर देखा गया था. हालांकि, चुनावों में सपा गठबंधन में चंद्रशेखर को एंट्री नहीं मिल पायी थी.

मायावती वैसे तो काफी कुछ बर्दाश्त कर लेती हैं, लेकिन चंद्रशेखर आजाद से जब भी कोई मिलता है या सपोर्ट करता है, तो तत्काल प्रभाव से आपे से बाहर हो जाती हैं. जैसे 2019 के चुनावों से पहले प्रियंका गांधी वाड्रा और चंद्रशेखर की मुलाकात से मायावती नाराज हुई थीं, फिलहाल अखिलेश यादव से खफा होने की वजह भी यही लगती है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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