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Updated: 05 दिसम्बर, 2021 04:16 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और राहुल गांधी के बीच वर्चस्व की लड़ाई तो खुलेआम चल रही है, लेकिन अब इस खेल एक और किरदार की अंदर ही अंदर एंट्री हो चुकी है - ये हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal).

ये तो ऐसा लगता है जैसे ममता के 'खेला होबे' मुहिम के साथ परदे के पीछे अलग ही खेल चल रहा है. फ्रंट पर तो ममता बनर्जी और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही एक दूसरे को प्रैक्टिस मैच में ही शिकस्त देने की कोशिश करते आ रहे हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल भी कहीं न कहीं अपने हिसाब से समानांतर लाइन खींच रहे हैं.

विपक्षी खेमे में अरविंद केजरीवाल के साथ अब तक जो ट्रीटमेंट होता आया है, उसे अछूत कहना ही ज्यादा ठीक लगता है - और ये तस्वीर तब ज्यादा साफ लगी जब देश में पिछला राष्ट्रपति चुनाव होने वाला था. सत्ताधारी एनडीए के खिलाफ सोनिया गांधी ने चुनावी जंग को दलित बनाम दलित बनाने की कोशिश की, लेकिन अरविंद केजरीवाल को दूर ही रखा. विपक्षी गठबंधन से दूर रखे जाने के बावजूद अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार को ही वोट दिया था.

ममता बनर्जी का केजरीवाल से मोहभंग क्यों: तब से लेकर अगस्त, 2021 में सोनिया गांधी की तरफ से बुलायी गयी विपक्षी दलों की मीटिंग में ममता बनर्जी ने हर बार अरविंद केजरीवाल को न सिर्फ साथ लेने की बात की, बल्कि दूरी बनाने पर कड़ी आपत्ति भी जतायी. हालांकि, संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन कांग्रेस की तरफ से विपक्षी दलों की बुलायी मीटिंग में न तो ममता बनर्जी और न ही अरविंद केजरीवाल पहुंचे न ही उनका कोई प्रतिनिधि. ममता बनर्जी तो जानबूझ कर गयी नहीं होंगी और अरविंद केजरीवाल को बुलाया ही नहीं गया होगा.

अभी तक तो यही देखने को मिलता रहा कि ममता बनर्जी को काउंटर करने के लिए राहुल गांधी दिल्ली में तो विपक्षी दलों के साथ ब्रेकफास्ट या मार्च करते रहे, जब तृणमूल कांग्रेस नेता गोवा पहुंची तो वो वहां भी जा डटे, लेकिन शरद पवार से ममता बनर्जी की मुलाकात के बाद से कई नयी चीजें सामने आने लगी हैं. जहां तक विपक्ष में कांग्रेस की भूमिका को लेकर सामना के संपादकीय का सवाल है, वो तो वही पॉलिटिकल लाइन है जो शरद पवार के घर बनर्जी बुआ-भतीजे से मुलाकात को लेकर सामने आयी थी.

हैरानी की बात ये है कि अब अरविंद केजरीवाल के साथ भी ममता बनर्जी वैसा ही व्यवहार करने लगी हैं, जिसके लिए पहले कांग्रेस नेतृत्व को हमेशा ही खरी खोटी सुनाती रहीं - और ये बात किसी और नहीं बल्कि खुद अरविंद केजरीवाल ने एजेंडा आज तक कार्यक्रम में शेयर की है.

केजरीवाल के बयान के बाद तो ये सवाल भी खड़ा हो रहा है कि क्या ममता बनर्जी AAP नेता में भी राहुल गांधी की ही छवि देखने लगी हैं - जो तृणमूल कांग्रेस नेता के साथ 2024 के आम चुनाव में एक और प्रतियोगी की भूमिका में खड़े होने की कोशिश कर रहा है?

2014 - केजरीवाल आगे, ममता पीछे

1. ममता बनर्जी बंगाल तक सीमित रहीं: ममता बनर्जी के मन में 2014 में भी मोदी लहर ने हल्की ही सही, दहशत तो पैदा की ही होगी, लेकिन उनके सामने बड़ा चैलेंज 2016 में सत्ता में वापसी रहा होगा. फिर भी उससे दो साल पहले नतीजे अगर 2019 की तरह आ गये होते तो मुश्किलें बढ़ सकती थीं. ममता बनर्जी ऐसी सारी चीजों को अपने कंट्रोल में रखने में सफल रहीं.

मुख्यमंत्री बनने से पहले ममता बनर्जी दिल्ली से ही बंगाल की राजनीति करती रहीं और जब सत्ता मिली तो जाहिर है किसी का भी सारा फोकस उसी पर होगा. मुंहमांगी मुराद मिलने पर होता तो ऐसा ही है. उन दिनों ममता बनर्जी का पूरा ध्यान इस बात पर होता था कि कैसे लेफ्ट फिर से पांव न फैला ले और कांग्रेस कैसे पूरी तरह कमजोर हो जाये.

arvind kejriwal, mamata banerjee, rahul gandhiममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की तकरार का असर राहुल गांधी के लिए कैसा होने वाला है?

दिल्ली पर दोबारा नजर भी ममता बनर्जी की चुनाव जीतने के बाद जब हालात सेटल होने लगे तभी पड़ी. फिर वो राष्ट्रीय राजनीति में थोड़ी थोड़ी दिलचस्पी लेने लगीं - और हिंदी भाषा सीखने का ख्याल भी पहली बार तभी ममता बनर्जी के मन में आया था.

2. केजरीवाल तो मोदी से ही जा भिड़े: रामलीला आंदोलन के बाद अगर सामने कोई साफ सुथरा, इमानदार और उम्मीदें जगाने वाला चेहरा नजर आता तो अन्ना हजारे के बाद अरविंद केजरीवाल का ही रहा - और उसी के बल पर वो राजनीति में वसूली पर निकले थे.

2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को सत्ता से ही बेदखल नहीं किया, तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी उनके इलाके में घुस कर शिकस्त दे डाली - और जोश इतना हाई रहा कि 2014 में वाराणसी सीट से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम आते ही मैदान में कूद पड़े. हो सकता है तब भी केजरीवाल को दिल्ली जैसी ही उम्मीद रही हो, लेकिन न तो चमत्कार बार बार होते हैं और न ही लॉटरी खुलती है - पंजाब में आम आदमी पार्टी का संसद पहुंच जाना भी तो कुछ कुछ वैसा ही रहा.

देखा जाये तो दिल्ली से ही दिल्ली की बड़ी कुर्सी पर अरविंद केजरीवाल की नजर लग गयी थी, लेकिन ममता बनर्जी तब तक अपने घर बंगाल में ही खुश रहीं.

2019 - ममता आगे, केजरीवाल पीछे

1. केजरीवाल जनाधार बढ़ाने में जुटे रहे: 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में सत्ता की सीढ़ी तक न पहुंच पाने और गोवा में खाता भी न खुल पाने के चलते अरविंद केजरीवाल की हिम्मत राष्ट्रीय स्तर पर बाजी खेलने लायक नहीं बची थी - और यही वजह थी कि वो जैसे भी संभव हो सके, पहले संसदीय सीटें बढ़ाने और जनाधार जुटाने के बारे में सोच रहे थे.

दिल्ली में कांग्रेस के साथ और हरियाणा में भी चुनावी गठबंधन को लेकर अरविंद केजरीवाल की तरफ से जीतोड़ कोशिशें हुईं - लेकिन कहीं भी बात नहीं बनी. दिल्ली में तो शीला दीक्षित ही कांग्रेस और आप के चुनावी गठबंधन के बीच दीवार बन कर खड़ी हो गयी थीं.

निश्चित तौर पर तब शीला दीक्षित के चुनावी हार का गम कम नहीं हुआ होगा, लेकिन दलील वो केजरीवाल के खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर को लेकर दे रही थीं और नतीजे आये तो वो सही भी साबित हुईं. कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को तीसरे नंबर पर तो पछाड़ ही दिया था, कई सीटों पर तो केजरीवाल के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गयी थी.

2. ममता बनर्जी विपक्ष के भरोसे मन बना लीं: 2019 के आम चुनाव से पहले दिल्ली की गद्दी को लेकर ममता बनर्जी के मन में लड्डू फूटने की वजह विपक्षी खेमे के सीनियर नेताओं का मिल रहा सपोर्ट था. कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में जिस तरह ममता को समर्थन देने सभी दलों के नेता पहुंचे थे, ये सब स्वाभाविक भी था.

ममता बनर्जी के मन में क्या चल रहा था ये उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर संबोधन से समझा जा सकता है - एक्सपाइरी डेट पीएम. ममता तो मन बना ही चुकी थीं, कांग्रेस को छोड़ कर विपक्षी खेमे से सपोर्ट भी आखिर तक मिल रहा था. यहां तक कि नतीजे आने के ठीक दो दिन पहले तक. एग्जिट पोल से जो माहौल बना था, विपक्ष कई रणनीतियों पर काम करने लगा था, लेकिन ममता बनर्जी को सबसे बड़ा धक्का तब लगा जब बीजेपी ने बंगाल में भी अपना स्कोर दो से 18 कर लिया.

अब तो अरविंद केजरीवाल जहां 2020 का चुनाव जीतने के बाद, वहीं ममता बनर्जी 2021 के बाद नये मिशन पर निकल पड़ी हैं - और मंजिल एक होने की वजह से आपस में ही जंग शुरू होना स्वाभाविक भी है.

2024 - तीन नेताओं में रेस चालू है

कांग्रेस नेतृत्व के इरादे से तो ममता बनर्जी पहले से ही वाकिफ होंगी, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में राहुल गांधी की तरफ से जो स्पेस मिला था, उसे लेकर थोड़ी गलतफहमी भी रही होगी. हालांकि, एक ही रैली में राहुल गांधी ने गलतफहमी खत्म भी कर दी थी, लेकिन दिल्ली पहुंचते ही राहुल गांधी ने विपक्षी नेताओं जिस तरह से ममता बनर्जी के सामने से हाइजैक कर लिया - उनके तो पैरों तले जमीन भी हिलती महसूस हुई होगी.

अरविंद केजरीवाल से ममता बनर्जी के मोहभंग होने के पीछे तो 2024 से पहले गोवा विधानसभा चुनाव लग रहा है. केजरीवाल की गोवा पर पहले से नजर रही है. जीरो बैलेंस ही सही लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पंजाब के साथ साथ 2017 में भी गोवा विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है - और उसके बाद से ही नये सिरे से तैयारी चल रही थी. भला ममता बनर्जी का त्रिपुरा के बाद गोवा पर भी धावा बोल देना केजरीवाल को भी कैसे हजम हो पाता.

1. गोवा की तकरार: अब तक गोवा में केजरीवाल की पार्टी बीजेपी को चैलेंज करते हुए कांग्रेस को पछाड़ कर पंजाब की तरह कम से कम विपक्ष का नेता बनने की कोशिश में होगी, लेकिन इस बार बीच में ममता बनर्जी आ टपकीं - और अब केजरीवाल को एक साथ दो मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है - फिर तो तकरार होगी ही.

ममता और केजरीवाल दोनों के बीच शुरू से ही अच्छी दोस्ती रही है - और अभी तो राहुल गांधी के बाद ममता और केजरीवाल ही ऐसा नेता बचे हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुल कर चैलेंज करते रहे हैं. फर्क बस ये है कि केजरीवाल जहां जय श्रीराम का नारा लगाने लगे हैं, ममता बनर्जी का विरोध जगह पर कायम है.

2. अब तो 2024 पर टिकी हैं नजरें: ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही के लिए आदर्श तो नरेंद्र मोदी ही हैं. ममता और मोदी जितना केजरीवाल का कार्यकाल भले न हुआ हो, लेकिन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की हैट्रिक तो वो लगा ही चुके हैं.

आखिरी बार अगस्त में हुई मीटिंग में भी ममता बनर्जी, सोनिया गांधी से अरविंद केजरीवाल को विपक्ष में साथ रखने के लिए लड़ती ही नजर आयी थीं - और अभी तक ममता बनर्जी की तरफ से केजरीवाल के खिलाफ न तो कोई कदम उठाते देखा गया है, न ही कोई ऐसा बयान ही आया है - लेकिन एजेंडा आज तक में एक सवाल के जवाब में केजरीवाल ने जो कुछ कहा है वो तो हैरान करने वाला ही लगता है.

अरविंद केजरीवाल से ममता बनर्जी की सक्रियता और हालिया महाराष्ट्र दौरे, शरद पवार से मुलाकात को लेकर जब पूछा गया तो, बोले - ' मैं परे हूं. मैं बाहर हूं इस सब चर्चा से. मुझे ये सब राजनीति समझ नहीं आती. जोड़ तोड़ की राजनीति मुझे समझ नहीं आती.'

फिर सवाल उठा कि ममता बनर्जी की लीडरशिप केजरीवाल को मंजूर है कि नहीं?

केजरीवाल के रिस्पॉन्स से तस्वीर और भी साफ होती गयी - 'मेरी उनसे बात नहीं हुई तो मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.'

और गोवा के सवाल पर जो अरविंद केजरीवाल ने कहा वो तो यही बता रहा है कि तकरार नेक्स्ट लेवल पर पहुंच चुकी है. अरविंद केजरीवाल का कहना है, "मेरे हिसाब से तो टीएमसी को कोई वोट नहीं मिल रहा है... पोस्टर से चुनाव नहीं जीते जाते... अगर ऐसा होता तो बहुत सारे करोड़पति लोग चुनाव जीत जाते."

और जब प्रधानमंत्री पद को लेकर उनकी दावेदारी समझने की कोशिश होती है तो टाल जाते हैं.

केजरीवाल से सवाल - 'अगर विपक्ष कल कोई एक ग्रुप बनाये तो क्या आप उसको लीड कर सकते हैं?'

केजरीवाल का जवाब - "मैं बहुत छोटा आदमी हूं. मैं कहां उन्हें लीड कर सकता हूं."

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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