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Updated: 12 नवम्बर, 2019 01:57 PM
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Maharashtra government formation live news updates: महाराष्‍ट्र में सरकार (Maharashtra government) बनाने के लिए शिवसेना (Shiv Sena) की मुहिम को एनसीपी (NCP) और कांग्रेस (Congress) ने सस्‍पेंस में डाल दिया है. शिवसेना अभी उसी स्थिति में खड़ी है, जिसमें कुछ दिन पहले तक बीजेपी थी. इस पूरी उठापटक में सबसे दिलचस्‍प स्थिति कांग्रेस की है. महाराष्‍ट्र में चौथे क्रम पर खड़ी इस पार्टी की स्थिति किंगमेकर की है, लेकिन अंतिम फैसला लेने से पहले कांग्रेस के भीतर काफी कन्‍फ्यूजन है.

अगर आप संयुक्त परिवार का हिस्सा रहे हैं तो आपको इस बात का इल्म होगा कि किस तरह से जब परिवार का मुखिया कमजोर होता है तो परिवार में बिखराव हो जाता है. लोग इसे बिखराव का नाम देते हैं मगर बिखराव के जो कारण और कारक होते हैं वह इसे विकास की प्रक्रिया का रूप मानते हैं. ऐसा नहीं है कि परिवार का मालिक कमजोर होने से घर में एक दूसरे के खिलाफ साजिशों का दौर शुरू हो जाता है, बल्कि लोग अपने बेटे और बेटी के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए सिर उठाने लगते हैं. और फिर परिवार आगे की तरफ बढ़ जाता है.

कांग्रेस की सियासत को समझाने से पहले यह बातें कहने का मतलब यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व के कमजोर होने से पार्टी के अंदर जीते हुए विधायकों की पूछ बढ़ी है. अब लोग कुछ कह सकते हैं कि परिवार की जो पहचान थे उसे रखने के लिए मुखिया विचारधारा की बातें करता है मगर इससे इतर घर के लोग अपना जीवन जीना चाहते हैं. इसमें कई बार फायदा होता है और कई बार नुकसान होता है. कांग्रेस इसी द्वंद मैं चौराहे पर खड़ी है, जहां पर पार्टी अपनी विरासत को लेकर बेहद संजीदा है कि शिवसेना जैसी पार्टी के साथ हम कैसे चले जाएं. तो दूसरी तरफ जयपुर के पांच सितारा रिसॉर्ट में महाराष्ट्र कांग्रेस के 40 से ज्यादा विधायक इस बात को लेकर व्याकुल हैं कि हम अपने आप को कैसे आगे बढ़ाएं. यह संघर्ष पार्टी और पार्टी के विधायकों के बीच का है. यह सच्चाई है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की जीत में दिल्ली में बैठे कांग्रेस के बड़े नेताओं का योगदान नहीं रहा है.

congress in maharashtraकांग्रेस पार्टी अपनी विरासत को लेकर बेहद संजीदा है

दिल्ली में बैठे बुजुर्ग नेता यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि पार्टी की नई पीढ़ी के विधायक विरासत का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं हैं. अगर पहले का वक्त होता तो कांग्रेस आलाकमान का एक लाइन का फरमान आता कि हम विपक्ष में बैठेंगे और विधायक महाराष्ट्र विधानसभा में. विधायक विपक्षी की कुर्सी अलॉट करा लेते. लेकिन वक्त बदलता है तो सोचने का तरीका भी बदल जाता है. कांग्रेस के साथ मजबूरी है कि अगर विधायकों को अपना फरमान सुनाती है तो नई पीढ़ी के यह लोग अपना रास्ता चुन लेंगे. पार्टी में टूट हो सकती है. यहां पर रिजॉर्ट में बैठे विधायकों ने दिल्ली के अपने नेताओं को दो टूक कह दिया है कि राष्ट्रपति शासन अगर महाराष्ट्र में लागू हुआ तो कांग्रेस खत्म हो जाएगी, और अगर चुनाव हुआ तो यह सीटें भी नहीं आएंगी. राम मंदिर का मुद्दा जनमानस में है, ऐसे में बिना किसी एजेंडे के बीजेपी से मुकाबला करना आसान नहीं होगा.

मगर दिल्ली में बैठे नेताओं के साथ समस्या ये है कि अहमद पटेल और गुलाम नबी आजाद जैसे नेता शिवसेना के इतिहास को भुला नहीं पा रहे हैं. और यही बात सोनिया गांधी को समझाई जा रही है कि हिंदुस्तान महाराष्ट्र के अलावा और भी है. अभी हाल ही में झारखंड में चुनाव होने जा रहे हैं, उसके बाद बिहार में चुनाव हैं, पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं. हम किस मुंह से वोटरों के पास जाएंगे. जब घर में समस्या सुलझ नहीं रही हो तो बेहतर होता है किसी सरपंच को नियुक्त कर पंचायत में फैसला करें. लिहाजा एनसीपी के नेता शरद पवार की पंचायत में फैसला छोड़ा गया है. इसका एक फायदा यह भी है कि शिवसेना जैसी पार्टी के साथ गठबंधन के फैसले के बोझ से हलकान कांग्रेस कुछ हल्का महसूस करेगी.

कांग्रेस के अंदर शिव सेना के साथ जाने का विरोध करने वाले नेताओं की एक लंबी फौज है, जो कह रहे हैं कि हम बाल ठाकरे के उन बयानों को कैसे भूल सकते हैं जिसमें वह मुसलमानों को हरा जहर कहा करते थे. अपने मुस्लिम वोटरों को अगर हम नहीं समझा पाए तो महाराष्ट्र में ओवैसी की पार्टी एक बड़ा जनाधार तलाशने में लगी है और हम उन्हें खाली मैदान दे देंगे.

मगर पार्टी का एक बड़ा तबका यह भी कह रहा है कि जनसंघ ने जब मधु लिमए जैसे समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर सरकार बना ली और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं के साथ बीजेपी ने सरकार चला ली तो फिर कांग्रेसी इतना क्यों डरी हुई है. उनके समाजवादी और हिंदू वोटर नाराज नहीं हुए हैं तो फिर कांग्रेस ऐसा क्यों सोचती है कि उनके वोटर पार्टी की मजबूरी को नहीं समझेंगे.

shivsenaकांग्रेस के वरिष्ठ नेता शिवसेना के इतिहास को भुला नहीं पा रहे हैं

जिस तरह से उस वक्त के समाजवादियों ने अपने वोटरों को समझाया कि कांग्रेस इस देश की बड़ी समस्या है और उसे रोकने के लिए हमें हिंदूवादी पार्टी बीजेपी के साथ जाना जरूरी है, क्या उसी तरह से कांग्रेस अपने वोटरों को नहीं समझा सकती कि मौजूदा दौर में बीजेपी देश के लिए एक बड़ी समस्या है और उसे रोकने के लिए हमें शिवसेना जैसी पार्टियों के साथ जाना पड़ रहा है. हिंदुत्व के कट्टर विरोधी रहे समाजवादियों के साथ जाने के दौरान बीजेपी ने भी अपने वोटरों को ही समझाया था कि कांग्रेस को रोकने के लिए हमें हिंदू विरोधी समझे जाने वाले समाजवादियों के साथ जाने की मजबूरी है. मगर कांग्रेस के सामने समस्या यह है कि वह जनता को अपने किसी भी बात को समझा पाने की स्थिति में नहीं है. जब आपके भीतर द्वंद चल रहा हो और आप खुद समझ नहीं पा रहे हो कि जो हम करने जा रहे हैं वह सही है या गलत है तो आप दूसरे को समझा नहीं सकते हैं. कांग्रेस शिवसेना के साथ जा रही है यह एक अर्ध सत्य है. पूरा सत्य तो यह है कि कांग्रेस अगर शिवसेना के साथ जाती है तो कांग्रेस के विधायक जाना चाहते हैं और पार्टी टूटने के डर से जा रही है. कांग्रेस को अर्ध सत्य और सत्य से ऊपर उठकर पार्टी के भविष्य को लेकर फैसला करना होगा.

महात्मा गांधी कहा करते थे कि अस्पृश्यता हिंसा का एक स्वरुप है और इस नजरिए से हम कांग्रेस को देखने की कोशिश करें तो कांग्रेस कम से कम अस्पृश्यता के मामले में एक हिंसक पार्टी है. जो विचारधारा को लेकर इतनी कट्टर है कि किसी भी बाहर के नेताओं के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाती है. इसके साथ भी यही समस्या है जो शिवसेना के साथ फिलहाल जारी है. महाराष्ट्र में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में रही है लिहाजा बीजेपी को खुद से आगे नहीं देख पाती है. इसी तरह से कांग्रेस भुला नहीं पाई है कि किसी जमाने में वह एकक्षत्र राज करती थी, अब उसे क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पानी है. जैसे बीजेपी ने बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन जमाई और जम्मू-कश्मीर में महूबा मुफ्ती के साथ मिलकर बीजेपी ने अपने आप को मजबूत किया. बीजेपी के आचरण में लचीलापन, प्रयोगधर्मिता और प्रायोगिकता तीनों ही दिखाई देती हैं जबकि कांग्रेस एक जंग लगी हुई पार्टी की तरह नजर आती है जो गल जाना चाहती है मगर खुद को परिमार्जित नहीं करना चाहती है.

रिसॉर्ट के अंदर बैठे विधायकों से बात करें तो उनका साफ कहना है कि महाराष्ट्र के अंदर चाहे शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो या बीजेपी हो या शिवसेना हो, सबने अपनी अपनी राजनीति करके अपनी जगह तलाशी है इसलिए यह कहना कि हम किसी के साथ जा सकते हैं और किसी के साथ नहीं जा सकते हैं यह ठीक बात नहीं है. हठधर्मिता के बजाय हमें सुविधा की राजनीति की तरफ भी सोचना होगा. शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने उस वक्त इंदिरा गांधी का साथ दिया था जब पूरा देश उनके खिलाफ था. बाल ठाकरे ने इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के कदमों की तारीफ की थी और उस पुराने बिछड़े हुए सिरे को थामकर आगे बढ़ा जा सकता है. इन बातों को लेकर आप यह भी कह सकते हैं कि जो व्यक्ति अपनी सुविधा की राजनीति करता है तो अपने अनुसार उसको सही ठहराने के लिए कई तर्के भी गढ लेता है. इंदिरा गांधी और बाल ठाकरे की जो तस्वीर वायरल हुई है उसके पीछे की कहानी यही है.

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