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Updated: 27 मई, 2019 04:46 PM
कौशिक डेका
कौशिक डेका
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मुस्लिम वोट बैंक (Muslim vote bank), 'मुस्लिम तुष्टीकरण' और न जाने क्या-क्या. जब कभी चुनाव आते हैं, तो इस तरह के शब्द खूब सुनाई देते हैं. यूं लगने लगता है कि हर पार्टी के लिए मुस्लिम समुदाय के लोग एक वोट बैंक हैं, जिन्हें हर कोई लुभाने की जुगत में लगा रहता है. कम से कम मोदी सरकार के आने से पहले तो यही ट्रेंड था, लेकिन मोदी सरकार के आने के साथ ही ये ट्रेंड बदल सा गया है.

17वीं लोकसभा में 27 मुस्लिम सांसद संसद में पहुंचेंगे, जो 16वीं लोकसभा के 23 सांसदों से थोड़ा अधिक हैं, लेकिन फिर भी ये भारत की संसद के इतिहास में दूसरा सबसे छोटा आंकड़ा है. 2011 की मतगणना के अनुसार देश में करीब 14 फीसदी आबादी मुस्लिम है. यानी अनुपात के हिसाब से संसद में कम से कम 76 मुस्लिम सांसद होने चाहिए. संसद में सबसे अधिक मुस्लिम सांसद 1980 में संसद पहुंचे थे, जिनकी संख्या भी सिर्फ 49 ही थी. उसके बाद से अब तक ये आंकड़ा गिरता ही गया. 2014 में भाजपा बहुमत के साथ जीतने वाली पहली ऐसी पार्टी बनी, जिसके पास एक भी निर्वाचित मुस्लिम सांसद नहीं था.

मुस्लिम, चुनाव, लोकसभा चुनाव 2019, राजनीतिमोदी सरकार के आंकड़ों को देखें तो 'मुस्लिम वोट बैंक' एक मिथ से ज्यादा कुछ नहीं है.

गैर-जरूरी हुआ मुस्लिम वोट बैंक !

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार मिला है. भाजपा ने पश्चिम बंगाल के विष्णुपुर से सौमित्र खान को टिकट दिया था. अब सौमित्र खान अकेले मुस्लिम हैं, जो लोकसभा चुनाव में जीतकर संसद पहुंचे हैं. मोदी सरकार का नारा है 'सबका साथ, सबका विकास'. भाजपा दावा करती है कि वह धर्म और जाति की राजनीति नहीं करते. हो सकता है कि ये सब बिल्कुल सच हो, लेकिन इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि भाजपा के पक्ष में हिंदुओं के वोट काफी बढ़े हैं. और एक कड़वा सच ये भी है कि हिंदुओं के वोटों का भाजपा की ओर खिंचा चला आना मुस्लिम वोटबैंक को गैर-जरूरी बना देता है.

मुस्लिम, चुनाव, लोकसभा चुनाव 2019, राजनीति2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारा था.

'मुस्लिम बहुल' इलाकों में भी भाजपा ही जीती

देश भर की कुल 543 लोकसभा सीटों में से 80 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी से अधिक है. 2019 में भाजपा ने इस 80 में से 58 सीटों पर जीत हासिल की है. अगर बात सिर्फ उत्तर प्रदेश की हो तो यहां 80 में से 62 सीटें भाजपा ने जीती हैं, जबकि उसने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा था. दिलचस्प ये है कि उत्तर प्रदेश की करीब 20 फीसदी आबादी मुस्लिम है. 2017 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने यूपी में कोई भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा था, लेकिन फिर भी भाजपा को 403 में से 325 सीटों पर जीत मिली.

मुस्लिम, चुनाव, लोकसभा चुनाव 2019, राजनीति543 लोकसभा सीटों में से 80 पर मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है, जिनमें से 58 सीटों पर भाजपा जीती है.

क्या वाकई मुस्लिम वोट बैंक जैसा कुछ होता है?

अगर चुनावी आंकड़ों को देखा जाए तो मुस्लिम वोटबैंक एक मिथक से अधिक कुछ नहीं है. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मुस्लिम समुदाय के लोग सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार को ही वोट डालते हैं. यूपी और पूरे देश में भाजपा के हिंदू उम्मीदवारों का जीतना ये साबित करता है. अगर ऐसा नहीं होता तो यूपी की 80 में से उन 36 सीटों पर भाजपा कभी नहीं जीतती, जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी से अधिक है. जहां एक ओर हिंदू वोट एकजुट होकर भाजपा की ओर खिंच रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम वोट कांग्रेस और विभिन्न स्थानीय पार्टियों में बंट रहे हैं.

जिन राज्यों में कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से है, वहां अधिकतर मुस्लिम वोट कांग्रेस को ही मिलते हैं. लेकिन यूपी, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम और दिल्ली में मुस्लिम वोटर्स कांग्रेस को समर्थन देना कम कर रहे हैं और वह मजबूत स्थानीय पार्टी का रुख कर रहे हैं. मुस्लिम वोटर्स के साथ एक बड़ी दिक्कत ये रही है कि उन्हें प्रतिनिधित्व के लिए पूरे देश में कोई एक नेता नहीं मिला. आजादी के बाद से अब तक उन्होंने कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल और आरजेडी जैसी पार्टियों को ही अपना समर्थन दिया है. इन पार्टियों ने मुस्लिमों के हितों की रक्षा की बात तो की, लेकिन कभी उन्हें आगे आने का मौका नहीं मिला. 1952 से 1977 तक देश में कांग्रेस थी, तब भी लोकसभा में मुस्लिम सांसद सिर्फ 2-7 फीसदी ही थे. सबसे अधिक मुस्लिम सांसद हुए 1980 में. यहां तक कि 1984 में जब राजीव गांधी जीते तब भी संसद में सिर्फ 46 मुस्लिम सांसद पहुंचे थे.

चुनावों में मुस्लिम वोटर्स का बर्ताव सिर्फ एक मिथ है कि वह कैसे धार्मिक गुरुओं की बातों में आ जाते हैं और कैसे वह वोटिंग करते समय सिर्फ धर्म के बारे में सोचते हैं. बहुत सी स्टडी हुई हैं, जिन्होंने ये साबित कर दिया है कि उलेमाओं के विचारों पर मुस्लिमों की सोच अलग-अलग है. साथ ही, यह बात भी सामने आई है कि अगर ये उलेमा राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं तो मुस्लिम मतदाता उनका स्वागत नहीं करते. 2015 में सीएसडीएस की एक स्टडी के अनुसार 43 फीसदी मुस्लिमों ने उन धार्मिक नेताओं को नकारा है, जो राजनीतिक पार्टियों का समर्थन करते हैं. दिलचस्प ये है कि संसद में मुस्लिम समुदाय के लोगों का कम होना उन्हें कभी भी चिंतित नहीं करता है, जो अक्सर ही अपने हिंदू प्रतिनिधि को वोट देकर जिताते हैं. भारत के लोकतंत्र की यही तो खूबसूरती है.

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लेखक

कौशिक डेका कौशिक डेका @deka.kaushik

लेखक इंडिया टुडे में सीनियर एसोसिएट एडिटर हैं.

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