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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 26 मई, 2019 05:55 PM
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को फेमिली-पॉलिटिक्स से ही दो-चार होना पड़ रहा है. परिवारवाद की राजनीति को लेकर राहुल गांधी को दो-दो मोर्चों पर एक साथ जूझना पड़ रहा है - चुनाव मैदान में राजनीतिक विरोधियों से और पार्टी के भीतर सीनियर नेताओं की जिद से.

बीजेपी नेतृत्व तो राहुल गांधी को परिवारवाद की राजनीति के नाम पर हर वक्त कठघरे में खड़ा किये ही रहता है, कांग्रेस के कई सीनियर नेता अपने बेटे-बेटियों को आगे बढ़ाने की सिफारिश में जुटे रहते हैं.

नतीजा ये हो रहा है कि सीनियर नेताओं के अपनी औलाद को लेकर पैदा हुआ मोह कांग्रेस पर भारी पड़ने लगा है - और ये बात खुद राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सबके सामने कही है. वो भी तब जब वो कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफे की पेशकश किये थे, हालांकि, वो नामंजूर हो गया.

राहुल गांधी ने इस कहानी के दो किरदारों के नाम भी भरी सभा में लिये - कमलनाथ और अशोक गहलोत और पी. चिदंबरम. आम चुनाव में कमलनाथ के बेटे नकुल नाथ और चिदंबरम के बेटे कार्ती चिदंबरम तो चुनाव जीत गये लेकिन अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत हार गये.

कांग्रेस की मुश्किल पार्टी बड़ी या परिवार?

परिवारवाद की जिस राजनीतिक परंपरा से राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं - और प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी होते हैं - वही परंपरा कांग्रेस के दूसरे नेताओं के आगे बढ़ाने से बेहद नाराज हैं. अगर सोनिया गांधी खुद राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने और स्थापित करने में शिद्दत से जुटी हैं तो कांग्रेस के दूसरे नेताओं का भी तो हक बनता ही है. आखिर प्रियंका गांधी वाड्रा की भी कांग्रेस में निर्णायक भूमिका भी तो इसीलिए है क्योंकि वो सोनिया गांधी की बेटी हैं. भले ही कांग्रेस नेतृत्व प्रियंका गांधी को बैठकों में आम महासचिवों के बीच बैठाये या फिर एक राज्य के आधे हिस्से की जिम्मेदारी सौंप कर कोई मैसेज देना चाहे - लेकिन इससे हकीकत को तो नहीं ही झुठलाया जा सकता.

हालांकि, राहुल गांधी को परिवारवाद की राजनीति से वैसा कोई ऐतराज नहीं है. बर्कले यूनिवर्सिटी में पूछे गये एक सवाल में राहुल गांधी ने खुद ही माना था कि ये भारतीय राजनीति का हिस्सा है और उसी क्रम में वो अखिलेश यादव और अभिषेक बच्चन का नाम भी ले बैठे थे. राहुल गांधी के इस बयान पर दबी जबान ही सही लेकिन कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी. ऐसा लगता है राहुल गांधी फेमिली पॉलिटिक्स को एक आवश्यक बुराई के तौर पर ही देखते हैं.

CWC की बैठक में इस्तीफे की पेशकश के बीच राहुल गांधी ने भरी सभा में कई चौंकाने वाली बातें रखीं. राहुल गांधी ने बताया कि किस तरह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सीनियर कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम अपने बेटों को टिकट दिलवाने को लेकर जिद पर उतर आये थे.

कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ छिंदवाड़ा से और पी. चिदंबरम के बेटे कार्ती चिदंबरम शिवगंगा से चुनाव लड़े और जीत गये लेकिन राजस्थान से अशोक गहलोत के बेटे वैभव को हार का मुंह देखना पड़ा.

cwc meetingराहुूल गांधी के इस्तीफे की पेशकश पर रो पड़े पी. चिदंबरम!

ऐसा लगता है कार्ती चिदंबरम पर चल रहे प्रवर्तन निदेशालय की जांच की वजह से राहुल गांधी को संकोच हो रहा होगा. खुद पी. चिदंबरम भी भ्रष्टाचार के आरोपों में ED की जांच के घेरे में चल रहे हैं. वैसे राहुल गांधी कह रहे हैं कि भई परिवार के लिए टिकट लो लेकिन पार्टी की कीमत पर नहीं - पार्टी से ऊपर परिवार को मत रखो.

कांग्रेस के लिए तो ये बहुत ही चिंताजनक है कि नेतृत्व को सीनियर नेताओं के दबाव में उनकी जिद के आगे झुकना पड़ रहा है. अगर पार्टी नेतृत्व ऐसे ही दबाव और मजबूरी में फैसले लेता रहा फिर तो हो चुका कल्याण. पहले दबाव बनाकर मुख्यमंत्री पद हथिया लिया - और दोबारा दबाव बनाकर बेटे को भी टिकट दिला लिया!

तो क्या समझा जाये राहुल गांधी की बात नहीं मानी जा रही है?

या उनकी भलमनसाहत का फायदा उठाया जा रहा है?

जिम्मेदारी तो इसमें राहुल गांधी की भी बनती है. या तो मुख्यमंत्री बनाते वक्त ही अपनी बात मनवाये होते - या फिर बाद में इतनी छूट नहीं देते. हो सकता है, मुख्यमंत्री बनाते वक्त कोई और मजबूरी रही होगी - लेकिन टिकट देते वक्त तो डांट कर चुप करा देना चाहिये था. आखिर अनुशासनहीनता भी तो कोई चीज होती है - होती है कि नहीं?

राहुल गांधी ही नहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी को भी लगता है सारे सीनियर नेता रस्मअदायगी करते रहे - और पूरा भार दोनों भाई बहन पर छोड़ दिया था. खास तौर पर यूपी में. टिकट को लेकर राज बब्बर और जितिन प्रसाद ने जो बवाल किया था वो भी तो इसी का सबूत लगता है. इतने बवाल के बाद जमानत गंवाने वाले यूपी के 67 नेताओं राज बब्बर और जितिन प्रसाद भी तो शुमार हैं ही.

परिवारवाद की राजनीति पर राहुल गांधी का ये बयान बता रहा है कि वो कितने दबाव में काम कर रहे हैं. राहुल गांधी के साथी भी ऐसा लगता है कि सिर्फ अपना लाभ देखते हैं और सारी तोहमत खुद कांग्रेस अध्यक्ष अपने सिर पर लेनी पड़ती है.

राहुल गांधी के करीबी और युवा कांग्रेस नेताओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा और गौरव गोगोई जैसे नेताओं के नाम लिये जाते हैं. गौरव गोगोई असल में मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई के बेटे हैं और कलियाबोर लोक सभा सीट से चुनाव जीत चुके हैं. चुनाव जीतने के बाद गौरव गोगोई ने कांग्रेस पार्टी को लेकर जो राय रखी उसमें भी कई संदेश छुपे हुए लगते हैं. वैसे ये गौरव गोगोई ही रहे जिन्हें असम कांग्रेस में तरजीह दिये जाने के चलते हिमंता बिस्वा सरमा जैसा नेता पार्टी के हाथ से फिसल कर बीजेपी में जा मिले - और नॉर्थ ईस्ट में लगातार भगवा फहरा रहे हैं.

गौरव गोगोई ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा, 'निश्चित तौर पर कांग्रेस देश का नब्ज टटोलने में नाकाम रही, जिसका खामियाजा लोकसभा चुनाव मे भुगतना पड़ा.'

इतना ही नहीं, गौरव गोगोई ने यहां तक कह दिया - 'जनता ने बीजेपी को बहुमत देकर अपना फैसला साफ तौर पर रख दिया कि वो चाहते थे कि बीजेपी वापस सत्ता में लौटे - और अपना दूसरा टर्म पूरा करे. बीजेपी को इस जीत के लिए सैल्यूट.'

जब रो पड़े चिदंबरम

सीनियर कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम राहुल गांधी के निशाने पर होने के चलते तो दुखी थे ही, कांग्रेस अध्यक्ष पद से उनके इस्तीफे की पेशकश से दुख दुना हो गया.

CWC की मीटिंग में जब राहुल गांधी अपने इस्तीफे पर अड़ गये तो पी. चिदंबरम खुद पर काबू नहीं पा सके और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े. रुआंसे से चिदंबरम इस्तीफा वापस लेने की राहुल गांधी से मिन्नतें करने लगे और यहां तक कह डाला कि ऐसा हुआ तो लोग खुदकुशी कर लेंगे. दक्षिण भारत की राजनीति में लोगों का नेताओं से भावनात्मक लगाव जबर्दस्त होता है. नेताओं को कुछ हुआ तो वो फौरन आखिरी रास्ता अपना लेते हैं.

राहुल गांधी से चिदंबरम बोले, 'आपको नहीं पता कि दक्षिण भारत के लोग आपसे कितना प्यार करते हैं. आपके इस्तीफा देने से लोग खुदकुशी कर लेंगे.' मालूम नहीं चिदंबरम खुद भी अपनी भावनाएं नहीं रोक पा रहे थे या टारगेट पर आ जाने के बाद बचाव का रास्ता तलाश रहे थे - या फिर भविष्य में किसी तरह के नुकसान की आशंका से सेफगार्ड का इंतजाम कर रहे थे. ये सब इसलिए लगता है क्योंकि राजनीति में ऐसा अक्सर होता है. राजनीति का वो रूप भी देखा गया है जब एक नेता लाइव टीवी पर फूट फूट कर रोते पाये गये थे. वैसे बाद में उन्होंने राजनीति ही छोड़ दी.

यूपी में फेल और सिंधिया घराने के गढ़ गुना से खुद भी चुनाव हार चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब आग में घी डालने की कोशिश की तो राहुल गाधी उन पर भी बिफर उठे. जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ध्यान दिलाना चाहा कि तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा तो राहुल गांधी की टिप्पणी थी - 'क्या आप राज्य के नेता नहीं हैं?'

दरअसल, सिंधिया को कमलनाथ से खास तौर पर खीझ रही कि एक तो मुख्यमंत्री की कुर्सी हड़प लिया और जब वो पश्चिम यूपी में कांग्रेस का कामकाज देख रहे थे तो अपने ही इलाके से चुनाव हार गये. 2018 में पूरे विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी को राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों जगह नेताओं को लोगों के बीच एकजुट दिखाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी थी.

कांग्रेस के वे नेता जिन्हें पुत्र/पुत्री-मोह ले डूबा

कांग्रेस नेताओं ने औलाद के मोह में पार्टी का जितना भी नुकसान किया हो, खामियाजा तो कई नेताओं को भी भुगतना पड़ा है. कई राज्यों में तो बाप-बेटे दोनों अलग अलग सीटों से चुनाव लड़े और हार गये - एक नाम इनमें मल्लिकार्जुन खड्गे भी है.

1. मल्लिकार्जुन खड्गे : कांग्रेस का दलित चेहरा मल्लिकार्जुन खड्गे लोक सभा में पार्टी के नेता भी रहे, लेकिन मोदी लहर में कर्नाटक से चुनाव हार गये. 1972 में पहला चुनाव लड़ने वाले मल्लिकार्जुन खड्गे के नाम के आगे 23 मई से पहले कभी हार दर्ज नहीं हुई थी. वो नौ बार विधानसभा और लगातार दो लोक सभा चुनाव जीते थे. मल्लिकार्जुन खड्गे की हार की वजह ढूंढने पर पुत्रमोह का मामला ही सामने आ रहा है.

मल्लिकार्जुन खड्गे को हराने वाला भी कोई और नहीं बल्कि किसी दौर में रहा उन्हीं का एक शिष्य ही है - डॉ. उमेश जाधव. उमेश जाधव ने कर्नाटक की कुमारस्वामी सरकार में मंत्री न बनाये जाने से नाराज होकर दो महीने पहले ही कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और बीजेपी में शामिल हो गये. उमेश जाधव के कांग्रेस छोड़ने की वजह मल्लिकार्जुन खड्गे के बेटे प्रियांक खड्गे रहे, जिन पर पुत्र मोह में कांग्रेस को हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में बर्बाद करने का वो आरोप लगाते रहे. कांग्रेस ने उमेश जाधव को कुमारस्वामी सरकार में एंट्री भी दिलानी चाही थी लेकिन मल्लिकार्जुन के जिद पर अड़ जाने के कारण बात नहीं बन पायी.

2. निरंजन पटनायक : ओडिशा में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष निरंजन पटनायक दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़े और दोनों से हार गये. निरंजन पटनायक ने अपने बेटे नवज्योति पटनायक को भी बालासोर लोकसभा सीट से कांग्रेस का टिकट दिलाया था लेकिन बेटा तीसरे स्थान पर पहुंच गया. जाहिर है बेटे को जिताने के चक्कर में खुद की भी सीट गंवाये और पार्टी का जो हाल हुआ वो तो जगहजाहिर है ही.

3. भक्तचरण दास : कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भक्तचरण दास ओडिशा की कालाहांडी लोक सभा सीट से खुद तो चुनाव हारे ही, बेटा भी विधानसभा का चुनाव हार गया. भक्तचरण दास के बेटे सागर दास भवानी पटना विधानसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार थे.

4. जॉर्ज तिर्की : ओडिशा में जॉर्ज तिर्की चुनावों से पहले ही समता क्रांति दल छोड़ कर कांग्रेस ज्वाइन किया था. अपने लिए लोक सभा और बेटे के लिए विधानसभा का टिकट लिया था. जॉर्ज तिर्की तो सुंदरगढ़ सीट पर तीसरे स्थान पर रहे, उनके बेटे रोहित जोसेफ तिर्की भी बिरामित्रपुर से चुनाव हार गये.

5. अनंत प्रसाद सेठी : ओडिशा से ही एक और कांग्रेस नेता ने ऐसी ही मिसाल पेश की है. सिमुलिया विधानसभा से अनंत प्रसाद सेठी खुद तो चुनाव हारे ही उनकी बेटी भद्रक लोक सभा सीट से किस्मत आजमा रही थीं लेकिन नाकाम रहीं.

ओडिशा जैसी कहानी तो हरियाणा में भी दिखी जहां पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा दोनों लोक सभा का चुनाव लड़े और हार गये. दीपेंद्र हुड्डा को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने पर तुले भूपेंद्र सिंह हुड्डा शक्ति प्रदर्शन का कोई भी मौका नहीं चूकते और दिल्ली में कांग्रेस की होने वाली रैलियों में कांग्रेस की गुटबाजी साफ नजर आती है. राहुल गांधी ने अशोक तंवर को हरियाणा कांग्रेस की कमान सौंप रखी है लेकिन ये हुड्डा परिवार को फूटी आंख भी नहीं सुहाता - और खामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ता है.

कांग्रेस की पूरे देश में एक जैसी ही कहानी है - मुश्किल ये है कि जब तक गांधी परिवार खुद फेमिली पॉलिटिक्स से मुकाबले का कोई कारगर नुस्खा नहीं ढूंढता कोई उम्मीद की वजह भी तो नहीं बनती.

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