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Updated: 09 अक्टूबर, 2022 02:39 PM
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केसीआर के नाम से तेलंगाना में जाने जाने वाले मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) के लिए 2023 की लड़ाई पिछले साल की बंगाल की जंग जैसी ही लग रही है. लिहाजा बंगाल जैसे नतीजे चाहिये तो केसीआर को भी ममता बनर्जी जैसी लड़ाई लड़नी होगी - क्योंकि मुकाबला उसी मोदी-शाह (Modi-Shah) की जोड़ी से ही होने वाला है.

ये तो केसीआर भी महसूस कर ही रहे होंगे कि किस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी नेता अमित शाह तेलंगाना (Telangana) की रणनीति पर बहुत पहले से ही काम शुरू कर चुके हैं. हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाये जाने से पहले से ही प्रधानमंत्री परिवारवाद की राजनीति पर जोरदार हमला बोल रहे हैं - ये बात अलग है कि परिवारवाद की राजनीति पर होने वाले हमले की चपेट में देश के कई नेता एक साथ आ जाते हैं, लेकिन तेलंगाना के मामले में तो टारगेट पर केसीआर और उनका परिवार ही है.

केसीआर का रुख राष्ट्रीय राजनीति की तरफ अगर बीजेपी से तेलंगाना को बचाने के लिए है, तो कोशिशें ठीक ही समझी जानी चाहिये, लेकिन अगर अभी से ही वो ममता बनर्जी की तरह प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे हैं तो ज्यादा ही हड़बड़ी समझी जाएगी.

अगर केसीआर को लगने लगा है कि तीन बार मुख्यमंत्री बन जाने के बाद कोई भी नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो जाता है, तो भी वो हड़बड़ी में ही माने जाएंगे. बेशक नरेंद्र मोदी इस फॉर्मूले के लिए उदाहरण हैं, लेकिन केसीआर को वहां पहुंचने के लिए अभी एक और चुनावी वैतरणी पार करनी होगी.

केसीआर को ये नहीं भूलना चाहिये कि मोदी के दिल्ली की तरफ निगाह करने से पहले उनके लिए एक स्थापित राष्ट्रीय पार्टी का पूरे देश में संगठन रहा. भारतीय जनता पार्टी एक बार केंद्र में सरकार का नेतृत्व भी कर चुकी थी. बीजेपी के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा मजबूत सपोर्ट भी पहले से ही मौजूद रहा.

ये ठीक है कि केसीआर ने भी एक ऐसा इंतजाम कर लिया है. तेलंगाना राष्ट्र समिति को अब भारत राष्ट्र समिति घोषित कर दिया है. जाहिर है जरूरी कागजी खानापूर्ति के बाद ही केसीआर ने दशहरे पर अपनी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की घोषणा किये होंगे.

ये भी याद जरूर रखना चाहिये कि पार्टी का नाम बदल लेने भर से कोई पार्टी राष्ट्रीय राजनीतिक दल नहीं हो जाता. चुनाव आयोग किसी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बाकायदा तब देता है जब वो पार्टी अपने मूल राज्य के अलावा कम से कम चार और राज्यों में जरूरी निर्धारित सीटें हासिल कर ले. कहने का मतलब है कि केसीआर की पार्टी को चुनाव आयोग की जरूरी शर्तों को पूरा करना ही होगा - बाकी रही बात जोश में होश गंवाने वाले कार्यकर्ताओं की और उनकी तरफ से मुर्गे और शराब बांटने जैसी हरकतों की, तो ये सब चलता रहेगा. कम से कम चुनाव आयोग की तरफ से आदर्श आचार संहिता लागू होने तक तो चल ही सकता है.

ममता बनर्जी के मुकाबले देखा जाये तो केसीआर की हिंदी बेहतर है, लेकिन उनकी राजनीति भी तृणमूल कांग्रेस की ही तरह कांग्रेस और बीजेपी दोनों की विरोधी रही है. जैसे ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता में किसी न किसी मोड़ पर पहुंच कर अलग थलग हो जाती हैं, केसीआर के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही संकट लगता है. यही वजह है कि केसीआर हमेशा ही गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी विपक्षी मोर्चे के पैरोकार के रूप में देखे गये हैं - मतलब, उनको तो तीसरा मोर्चा ही पंसद है, लेकिन तीसरा मोर्चा विपक्ष की राजनीति करने के लिए ही ठीक रहता है, सत्ता की राजनीति के लिए तो बिलकुल नहीं.

रही बात केसीआर के मोदी की तरह ही राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक देने की तो सबसे पहले उनको अपनी क्षेत्रीय नेता की छवि से बाहर निकलना होगा. निश्चित तौर पर ऐसी ही छवि मोदी की भी रही, लेकिन संघ और बीजेपी ने मिल कर उनका ये काम भी आसान कर दिया था. केसीआर के लिए ये सब अभी काफी मुश्किल टास्क हैं.

kcr, modi, shah and jp naddaमोदी-शाह से मुकाबले के लिए केसीआर को आगे बड़े मौके मिलेंगे - अभी चूके तो न घर के रहेंगे, न...

और हां, मोदी ने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद दिल्ली का रुख किया था. ममता बनर्जी ने भी बिलकुल ऐसा ही किया था. फिर तो केसीआर को अभी 2023 में चुनाव जीत कर दोनों की बराबरी हासिल करनी होगी - और तब कहीं जाकर आगे के बारे में सोचना ठीक होगा.

ये तो याद होगा ही कि ममता बनर्जी ने भी पहले पश्चिम बंगाल फिर दिल्ली की जंग जीतने की बात कही थी. ममता ने प्रयास भी वैसे ही किये. अभी उनकी राजनीति में थोड़ा ठहराव जरूर महसूस किया जा रहा है. केसीआर का मामला थोड़ा उलटा लगता है, पहले राष्ट्रीय राजनीति और फिर तेलंगाना की राजनीति - ध्यान रहे ये दांव उलटा भी पड़ सकता है.

तेलंगाना पर भी बीजेपी की बंगाल जैसी ही नजर है

बीजेपी नेतृत्व सत्ता विरोधी लहर को काउंटर करने के लिए कई तरकीबें आजमाता रहा है, और उसमें अक्सर सफल भी रहा है. हालांकि, बीजेपी की कामयाबी की वजह अक्सर उसके संगठन का नेटवर्क, जमीन पर काम कर रहा संघ और ब्रांड मोदी की सबसे बड़ी भूमिका होती है - अब अगर केसीआर ने भी टीआरएस का नाम अपने खिलाफ सत्ता विरोधी लहर खत्म करने के लिए किया है तो चलेगा. हक तो उनको कुछ भी कर लेने का है, लेकिन कारगर लगने वाले उपाय भी फायदा दिला सकते हैं.

तेलंगाना से आ रही खबरों से मालूम होता है कि केसीआर के नये पैंतरे को सभी लोग अलग अलग तरीके से देख रहे हैं. भारत राष्ट्र समिति बनाये जाने को लेकर भी मिली जुली प्रतिक्रिया ही देखी जा रही है. निश्चित तौर पर टीआरएस कार्यकर्ता और केसीआर समर्थक उनको मोदी के विकल्प के तौर पर वैसे ही पेश करने लगे हैं जैसे आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को - लेकिन उसी तेलंगाना में ऐसे लोग भी मिल रहे हैं जो सारी कवायत को प्रोपेगैंडा करार देते हैं.

और केसीआर के लिए सबसे फिक्र वाली बात है कि ऐसे हालात में उनको और उनकी टीम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उनकी टीम के अलावा जमीनी स्तर पर पहले से ही काम कर रहे RSS कार्यकर्ताओं से भी जूझना है.

ये भी नहीं भूलना चाहिये कि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में तो विरोध की रस्मअदायगी ही निभायी थी, बाकी ममता बनर्जी के लिए वैसे ही खुला मैदान छोड़ दिया था, जैसे 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के लिए - ताकि बीजेपी को ज्यादा फायदा न मिल सके. चुनाव प्रचार तो राहुल गांधी ने दिल्ली में भी किया था, और एक रैली पश्चिम बंगाल में भी लेकिन बहुत बाद में - और तेलंगाना का दौरा तो राहुल गांधी काफी पहले से करने लगे हैं.

तेलंगाना पर बीजेपी अगर पहले से ही नजर टिकाये है, तो मान कर चलना होगा कि मोदी-शाह और उनकी टीम ममता बनर्जी की ही तरह केसीआर और उनकी कायनात पर भी वैसे ही धावा बोलने की तैयारी कर रही है - जाहिर है केसीआर को भी लड़ाई बिलकुल उसी तरीके से लड़नी होगी.

पहले तो शुभेंदु अधिकारी की तलाश करनी होगी: अगर बीजेपी तेलंगाना के लिए भी बंगाल की तरह ही तैयारी कर रही है तो मान कर चलना चाहिये कि तोड़ फोड़ भी वैसी ही होगी. या फिर उससे बीहड़ रूप ले सकती है - क्योंकि बंगाल की लड़ाई का नतीजा तो बीजेपी के लिए ठीक नहीं रहा.

मतलब, केसीआर को अभी से मन बना लेना चाहिये कि जरूरत पड़े तो खुद भी ममता बनर्जी की ही तरह चुनाव लड़कर हारने तक का अभी से मन बना लेना चाहिये. मतलब, पहले से ही अपने बीच से केसीआर को भी विभीषण की फटाफट खोज भी कर ही लेनी चाहिये - अगर अभी से जान जाएंगे कि उनके इर्द गिर्द शुभेंदु अधिकारी कौन है, तो आगे की रणनीति तैयार करना काफी आसान होगा.

टीआरएस में टूट की जो खबर आ रही है, वो केसीआर के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात होनी चाहिये. हालात को बेहतर तरीके से तो वही समझ रहे होंगे, लेकिन बाहर तो बेटी की कविता के साथ ही उनके मतभेद की खबरें आ रही हैं - और अगर ये हाल अभी है तो केसीआर को मान कर चलना चाहिये कि बीजेपी तो ताक में बैठी होगी और वो चूके तो उसे झपटते देर नहीं लगने वाली है.

कविता ने एक मजबूत संकेत तो दे ही दिया है. जब केसीआर आने वाली चुनावी राजनीति की तैयारियों में जुटे हों, और कविता आस पास न हों, बल्कि घर बैठी हों तो क्या समझा जाना चाहिये? जब मुख्यमंत्री पिता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर लगाये बैठे हों - और बैटी घर बैठ जाये तो क्या समझा जाएगा? कविता घर पर ही दशहरा मनाने का फैसला क्यों किया होगा? कविता ने ट्विटर पर लिखा भी है, दशहरा के शुभ अवसर पर हमने घर पर शस्‍त्र पूजा की.

ये तो ताज्जुब की ही बात है कि टीआरएस की जिस आम सभा में राष्ट्रीय पार्टी बनाने का फैसला लिया गया, कविता नदारद रहीं. हो सकता है कविता की नाराजगी की वजह मुनुगोड़े उपचुनाव के लिए टीआरएस की प्रभारी की सूची से गायब होना भी हो. असल वजह जो भी हो, जिम्मेदारी तो सब दुरुस्त करने की केसीआर की ही बनती है. ये भी हो सकता है कि केसीआर के बेटे केटीआर और कुछ करीबी नेताओं की बढ़ती दखल की वजह से भी कविता दूरी बनाने लगी हों, लेकिन नुकसान तो केसीआर के खाते में ही दर्ज होगा.

पहले न सही, अब तो केसीआर को मालूम हो ही चुका होगा कि कविता नाराज क्यों हैं? और नाराजगी की वजह जानना भर नहीं, केसीआर को नाराजगी खत्म करने जैसे उपाय करने होंगे. वरना, क्या होगा - ये तो बताने की जरूरत है नहीं. बाहर बीजेपी सब देख रही है. और यू्ं ही नहीं देख रही, किसी चतुर शिकारी की तरह देख रही है.

बीजेपी से मुकाबले में ममता जैसे लड़ना होगा

केसीआर को मान लेना चाहिये कि राष्ट्रीय राजनीति में पांव जमाने और तीसरा मोर्चा खड़ा करने का शौक वो 2019 में पूरा कर चुके हैं. नयी पारी शुरू तो वो कर ही चुके हैं, आगे बढ़ने से पहले उनको पहले अपनी स्थिति मजबूत करने के बारे में सोचना चाहिये.

ये ठीक है कि शरद पवार और उद्धव ठाकरे से मुलाकात में केसीआर को अच्छा रिस्पॉन्स मिला. यहां तक कि अरविंद केजरीवाल ने भी दिल्ली में बड़ी गर्मजोशी स्वागत किया. बल्कि वो तो पंजाब तक साथ साथ गये भी - लेकिन नीतीश कुमार का व्यवहार?

जिस मिशन में नीतीश कुमार लगे हैं, उसकी राह में केसीआर तो एक प्रतियोगी ही हैं. भला वो क्यों केसीआर को भाव दें. मेहमान होने के नाते जितना हो सका नीतीश कुमार ने सम्मान भी दिया, लेकिन उससे ज्यादा तो उनके राजनीतिक दायरे से ही बाहर चला जाता है.

अब नीतीश कुमार ने जो लाइन पकड़ी है, केसीआर उस पर तो चलने से रहे. नीतीश कुमार फिलहाल लालू यादव से हाथ मिला कर कांग्रेस को नेतृत्व के लिए प्रेरित कर रहे हैं. नीतीश कुमार तब तक ऐसा करते रहेंगे जब तक कि कोई नयी चाल चलने के लिए उनको अच्छा मौका नहीं मिल जाता.

ठीक वैसे ही अरविंद केजरीवाल भी अपनी पॉलिटिकल लाइन पर आगे बढ़ रहे हैं - और उनकी राह में भी केसीआर साथ चलने को तैयार हों तो स्वागत है, वरना आगे तो वो बढ़ने देने से रहे. ममता बनर्जी को भी केसीआर आजमा ही चुके हैं.

जिस तरीके से केसीआर राष्ट्रीय राजनीति के लिए बीजेपी के खिलाफ विपक्षी खेमे का साथ चाह रहे हैं, ममता बनर्जी ने शरद पवार सहित तमाम नेताओं को नॉक किया था - लेकिन कोई झांकने तक नहीं गया. जो गये उनके अपने स्वार्थ रहे और जब पूरे होते नहीं दिखे तो वे भी हाथ पर हाथ रख कर बैठ गये.

फिर भी ममता बनर्जी जूझती रहीं. बीजेपी के खिलाफ उससे आगे बढ़ कर हथकंडे अपनाये. बीजेपी नेता तो उनके पैर की चोट और पहनने ओढ़ने को लेकर भी टिप्पणी करते रहे, लेकिन पूरे चुनाव वो व्हील चेयर से उठी नहीं. तभी उठीं जब चुनाव जीत चुकी थीं.

बंगाल की जीत के बाद ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय राजनीति में काफी गंभीर प्रयास किये, लेकिन कांग्रेस को किनारे कर आगे बढ़ने की उनकी कोशिश काम नहीं कर सकी. केसीआर के साथ भी बिलकुल ऐसा ही हो सकता है, लेकिन पहले केसीआर 2023 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर सत्ता में वापसी तो करें - 24 के चक्कर में 23 गवां देने से क्या फायदा?

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