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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 25 अगस्त, 2019 02:34 PM
विजय मनोहर तिवारी
विजय मनोहर तिवारी
  @vijay.m.tiwari
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कश्मीर घाटी से जुड़े नेता कह रहे हैं कि धारा 370 खत्‍म करने से कश्मीर की असली पहचान खत्‍म हो जाएगी. इसी धारा की शर्त पर हिंदुस्तान के साथ कश्‍मीर का तालमेल हुआ था. क्‍या वाकई ऐसा है? हाथ जोड़कर गुजारिश है कि एक बार फिर मुलाहिजा फरमाएं कि कश्मीरियों की असलियत उनकी जड़ों को कहां जोड़ती है-

हे कश्मीर, तुम जागो. अभी भी देर नहीं हुई है. जब जागो तब सबेरा. सोचो. ये किसने सुलगाया है खूबसूरत घाटी को? कौन यह जहर फैलाकर गया और किसने ये बम-बारूद की फसलें खड़ी की हैं? तुम्हारी असली रवायत कौन सी है? अपनी यादों पर जमी धूल को साफ करके आइने में अपनी तस्वीर देखो. जरा याद करो, तुम्हारी जड़ें कहां हैं? जहर में तुम्हारी जड़ें नहीं है. वे और थे, जो यहां जहरीला विचार लेकर आए. तुम तो भारत के माथे पर सजा एक शानदार ताज थे. इतिहास में झांको. अपने पुरखों को याद करो. अपनी परंपराओं को महसूस करो. गुमशुदा याददाश्त पर जोर दो. कुछ और ही नजर आएगा. वहां कोई पाकिस्तान नहीं है.

कभी-कभी सोचता हूं तुम्हारे गालों पर जमकर तमाचे लगाऊं. तुम्हें जोर से झिंझोड़ दूं. क्या हालत बना रखी है तुमने अपनी. आंखों में क्या वहशत उतरी हुई है. किस पर पत्थर फेंक रहे हो. पागल हो गए हो? दिल करता है तुम्हारी खोपड़ी अतीत की तरफ घुमा दूं. कुछ बीता हुआ नजर आए. घाटी में गुम किसी पुरखे की कोई पुकार शायद तुम्हें सुनाई दे. मैं चाहता हूं कि तुम्हारी आंखें केरल से आए एक शख्स के कदमों के निशान पहाड़ों की मिट्टी में खोजें. यह उसी की ताकत है कि एक बेरहम दौर के बावजूद यहां के लोगों ने अपने नामों में पुरखों के निशान अब तक रख छोड़े हैं. सलीम पंडित. मकबूल भट. जावेद मट्टू. उस शख्स का नाम था शंकर. हिंदुस्तान ने उसे आदि शंकराचार्य के नाम से अपनी यादों में सजा रखा है. जिंदगी और कायनात में कोई भेद नहीं है. इंसान और भगवान भी एक हैं. बात सिर्फ फासले की है. कुछ भी अलग नहीं है. कोई अलग नहीं है. शंकर वही बात दोहरा रहे हैं, जो उनसे पहले तमाम पहुंचे हुए महान ऋषियों ने कही कि ये धरती एक कुटुंब है. यह भारत का गहरा भरोसा है. शंकर ने चार हजार किलोमीटर दूर कालडि से आकर तुम्हें भी अद्वैत की तालीम दी ही होगी.

थोड़ा अपनी यादों को झनझनाओ तो सही. तो सलीम को भी वहीं जाना है, जहां पंडित को. इसलिए मजबूरी या लालच में सलीम भले ही हो गए हों, पंडित भी हैं. यह याद रखा जाए. सच का यह एक टुकड़ा ही शंकर की दी हुई ताकत है. याद आ रहा है कुछ. शारदा पीठ के नाम से कुछ याद करो. शारदा पीठ.... शंकर बिल्कुल यहां तक आए थे. शारदा पीठ से शंकर के श्लोक सुनो. आज की जबान में कहूं तो तब यह हिंदुस्तान का नॉलेज सेंटर था. भारत के माथे का चमकता हुआ ताज. मगर शारदा पीठ आज है कहां? उस कश्मीर में? किस कश्मीर में? क्या यहां दो कश्मीर हैं? अच्छा? दूसरा कश्मीर कहां है? उस तरफ? तो शारदा पीठ वहां है? लेकिन वहां है किस हाल में? क्या कहा? कोई आता-जाता नहीं? अच्छा कौन गया था? क्या बताया उन्होंने? सिर्फ पत्थर का एक बेजान टुकड़ा बचा है? अब भी अगर कुछ याद न आ रहा हो तो मन कर रहा है कि शंकर की यादों से रचे-बसे इस आखिरी सबूत से ही तुम्हारी खोपड़ी टकरा दूं! आओ मैं तुम्हें तुम्हारी जड़ें दिखाता हूं.

धारा 370, कश्मीर, मोदी सरकार, अमित शाहहे मेरे कश्मीर कुछ तो याद करो! याद आया क्या थे तुम? क्या हो गए?

श्रीनगर के पास ही तो है शंकर मंदिर. पता है इसकी नींव कब रखी गई थी? याद करो. ईसा से भी दो हजार साल पहले. इतने तूफानों के गुजर जाने के बाद भी जो मंदिर आज सामने मौजूद है, वही 11 सौ साल पुराना होगा. गोपादित्य और ललितादित्य जैसे कश्मीर के महान शासकों की पीढ़ियों ने इस मंदिर का ख्याल सदियों तक रखा. ललितादित्य का समय याद है तुम्हें? वे कब हुए? वे 697 से 734 के बीच सिंहासन पर थे. कश्मीर के राजाओं के लंबे सिलसिले को राजतरंगिणी के रूप में लिखने वाले महाकवि कल्हण ने ललितादित्य के बारे में बताया है कि उन्होंने श्रीनगर के पास एक पहाड़ी इलाके में संस्कृत के विद्वान ब्राह्मणों को लाकर बसाया था. वह इलाका गोपा अग्रहार के नाम से मशहूर हुआ, जिसे आज भी गुपकर कहा जाता है. जरा अपनी बेअक्ली पर तरस खाओ कश्मीर प्यारे. जब सुलतानों के अलग-अलग नामों से लुटेरे-हमलावरों ने तुम पर कब्जा किया तो नाम कैसे बदले? गोपाद्रि नाम की पहाड़ी तख्ते-सुलेमान कहाने लगी. यह वही जगह है जहां शंकराचार्य मंदिर है. आदि गुरू शंकराचार्य यहां आए थे और यहीं उनकी लिखी सौंदर्य लहरी अब तक हवाओं में गूंज रही होगी. कभी शांत बैठकर सुनो तो सही.

मार्त्तंड मंदिर के काले पत्थरों को जाकर कभी टटोले. वे जख्मी हैं. पहाड़ों की वीरानी में सदियों से खड़े कुछ कह रहे हैं. कभी इन बेमिसाल इमारतों को देखो. उनसे बात करो. वे ललितादित्य के बनाए मंदिर हैं. तुम्हारे ही पुरखों ने अपने बेहतरीन हुनर को पत्थरों पर ढालकर दुनिया के सामने पेश किया था. फिर कोई और लोग आए, जिन्होंने तुम्हारी पहचान, तुम्हारी शक्ल-सूरत बदलने की नापाक कोशिशें शुरू कीं. फरेब था वह. जबर्दस्ती थी वह. बेइज्जती थी वह. तुम कहां इसमें फंसे रह गए?

तुम्हें तथागत बुद्ध के अनुयायियों के उस सम्मेलन की खबरें याद हैं, जब गौतम के उपदेशों और किस्सों को सबसे पहले सिलसिले से लिखा गया था? मुल्क भर से बुद्ध के नए धर्म के ताकतवर विद्वान जमा हुए थे यहां. पूरी घाटी में गौतम बुद्ध की जबर्दस्त रौनक थी. वह सन् 78 की बात है. पेशावर से तब राजा कनिष्क का राज यहां तक चलता था. उसकी देखरेख में बौद्ध विद्वानों का चौथा सम्मेलन यहां कुंडलवन में हुआ था. नामचीन बौद्ध वसुमित्र ने इसकी सदारत की थी और अश्वघोष जैसे प्रसिद्ध बौद्ध उनके सहयोगी थे. कनिष्क ने पांच सौ चुने हुए उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों को कश्मीर का न्यौता दिया था. तब श्रावस्ती से लेकर सारनाथ, सांची और अमरावती के बाद विशाखापट्टनम तक के बौद्ध विद्वानों ने इसमें शिरकत की थी. यहां एक बड़ा फैसला हुआ था. इसमें तय किया गया था कि तथागत की कही हर बात को दस्तावेज पर लाया जाए. यह काम बाद के बारह सालों तक चलता रहा. कहते हैं कि बुद्ध का विचार यहीं से हीनयान और महायान के दो रास्तों पर चल पड़ा था. कश्मीर बौद्धों के इस ऐतिहासिक मोड़ का गवाह है. इन सबकी कितनी शानदार यादें हैं तुम्हारी? क्या वाकई सब कुछ भूल गए हो तुम?

अपने असली पुरखों की तलाश तुम्हें कल्हण की राजतंरगिणी में करनी चाहिए. कल्हण कब हुए? वे महाराजा हर्षदेव के महामात्य के बेटे थे. यह 1068 से 1101 के बीच का वाकया है. यह महमूद गजनवी के नाम से आई तबाही के समय की बात है. कल्हण ने महाभारत काल से लेकर अपने समय यानी 1147 तक के राजवंशों की परंपरा को लिख डाला है. तब गुरू का अर्थ आदि गुरू शंकर से था. आज के बदकिस्मत कश्मीरियों ने आदि गुरू को भुलाकर अफजल गुरू से अपने रिश्ते जोड़ लिए. कहां से कहां आ गिरे कश्मीर! कभी तो पलटकर देखो!मैं श्रीनगर के बाशिंदों से पूछना चाहता हूं जरा अपने बुजुर्गों से बात करें. अगर कहीं बच गए हों तो किताबघरों में जाएं. कहीं से हरी चादर लाकर गूगल बाबा की मजार पर ही मुंह कर लें. शायद आदि शंकर की यादें कहीं अल्फाजों में दर्ज मिलें और बुद्ध के संघ की पुकारें भी सुनाई दें. अतीत के ये छोटे से गलियारे आपको ललितादित्य जैसे महान राजा के किस्से भी सुनाएंगे, जिसकी पीढ़ियों ने मार्त्तंड मंदिर जैसे बेमिसाल मंदिर बनवाए थे घाटी में. उस चमकदार दौर के लोग कौन थे? कभी सोचो तुम्हारा क्या रिश्ता था उनसे? तब वे कौन सी जिंदगी जी रहे थे? वे किसकी संगत में थे? हिंदुस्तान की उस तस्वीर में केरल का एक नांबूदिरी ब्राह्मण संन्यासी यहां आकर अपना परचम क्यों फहराता है?

श्रीनगर के पास ही कहीं है सिमपुर गांव. यही लल्लेश्वरी पैदा हुई थीं 1320 में. पद्मपुरा में उनका विवाह हुआ था. लल्लेश्वरी के बारे में नुंद ऋषि, जिन्हें बाद में इस्लाम कुबूल करने वालों ने शेख नूरुद्दीन नूरानी कहा, कहते हैं- उन्होंने ईश्वरीय प्रेम का अमृत पी लिया है. हे मेरे मौला, मुझे भी वैसा ही तर कर दे! नुंद ऋषि कुलगाम जिले के कैमोह गांव में लल्लेश्वरी के बाद पैदा हुए थे. वह 1378 की बात है. लल्लेश्वरी शिव की परम उपासक थी. शैव परंपरा का गढ़ रहा कश्मीर जहां लल्लेश्वरी ने कहा-शिव हर जगह हर प्राणी में हैं, वे हिंदू-मुस्लिम में भेद नहीं करते, ज्ञानी हैं तो स्वयं को जानें, अंदर टटोलने से ईश्वर मिल जाएगा.... हे कश्मीर, क्या अपना मूल सब कुछ भूल गए हो?

मई 1675 में झांककर देखो. कुछ नजर आया? मैं बताता हूं वहां क्या दिख रहा है. मुझे एक कृपाराम नाम के नेक और बहादुर शख्स नजर आ रहे हैं, जो कश्मीरी पंडितों के एक दल के साथ आनंदपुर आए हुए हैं. वे तेगबहादुर नाम के एक बहुत ही शानदार शख्स की शरण में आए हैं, जो सिखों के गुरू हैं. कृपाराम बता रहे हैं कि किस तरह कश्मीर में उन्हें अपना धर्म छोड़ने और इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उन्हें उम्मीद है तेग बहादुर कोई तजबीज बताएंगे. तेग बहादुर का एक बेटा वहीं खेलते हुए गुरू के निकट आया और उन्हें फिक्र में देखकर वजह पूछने लगा. वह कोई और नहीं गोविंदराय है, जो बाद में गुरू गोविंदसिंह के नाम से दुनिया भर में जाना-माना गया. तेग बहादुर अपने बहादुर बेटे को कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक कहानी सुनाते हैं कि इनके धर्म को बदला जा रहा है. कोई महापुरुष अपनी जिंदगी कुर्बान करके इस मुसीबत से छुटकारा दिला सकता है. गोविंद राय जवाब देते हैं- आपके बिना और कौन महापुरुष हो सकता है. गुरू अपने बेटे के जवाब से खुश होते हैं और कश्मीरियों से कहते हैं कि जाकर अपने सूबेदार को कह दो कि यदि गुरू तेग बहादुर इस्लाम कुबूल लेते हैं तो बाकी हिंदू भी ऐसा ही कर लेंगे.

तब दिल्ली में अपने बाप को कैद करके तीनों भाइयों और भतीजों को मौत के घाट उतारकर बादशाह बन बैठे बदनाम औरंगजेब की हुकूमत थी. वह कैसा था, यह आज भारतीयों का बच्चा-बच्चा जानता है. औरंगजेब ने तेग बहादुर को कैद करवाया. उन्हें दिल्ली लाया गया. लोहे के पिंजरे में कैद करके रखा गया. इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया गया. तेग बहादुर मामूली इंसान नहीं थे. दिल्ली के चांदनी चौक में 11 नवंबर 1665 की तारीख के कुछ दिल दहलाने वाले नजारे हैं. जरा झांककर देखो. गुरू का सिर कलम कर दिया गया. उनका कटा हुआ शीश आनंदपुर ले जाया गया अंतिम संस्कार के लिए. धड़ का अंतिम संस्कार किसी और ने किया. तवारीख में गुरू तेग बहादुर का नाम हिंद की चादर के रूप में दर्ज हुआ. औरंगजेब ने अकेले उन्हें नहीं पकड़ा था. भाई मतीदास, भाई दयाला और भाई सतीदास भी कश्मीरियों के धर्म की रक्षा के लिए क्रूर मुगलों के हाथों मारे गए मगर इस्लाम के नाम पर झुके नहीं. कोई भी हो, वह धर्म दो कौड़ी का, जो लालच से या तलवार के जोर से जबर्दस्ती कुबूल कराया जाए. चांदनी चौक में ही जिंदा मतीदास के शरीर के दो टुकड़े किए गए. यह सब देख रहे भाई दयाला ने इसके बावजूद इस्लाम को नहीं स्वीकारा. काजी साहब ने उन्हें अलग तरीके से मारने का हुक्म दिया. उन्हें उबलते हुए पानी में मरने तक बिठाया गया. दयाला गुरबाणी पढ़ते हुए अपने गुरू के रास्ते गए. सतीदास बचे थे और उनके सामने उनके दोनों साथियों का यह अंत हुआ था. उन्हें रुई में बांधकर आग लगाकर जिंदा जला दिया गया! हे कश्मीर, गुरू तेग बहादुर के महान बलिदान का कर्ज भूल गए तुम?अब ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद से सुनो कि जहर फैलना कब से शुरू हुआ? यह 1315 के आसपास का वाकया है. यह वाकयानवीस अपनी किताब तबकाते-अकबरी में कहता है कि यह बात छिपी नहीं रहनी चाहिए कि कश्मीर की हुकूमत सदा राजा लोगों के पास रही है. 1315 के आसपास राजा सरदेव का राज था. उसके समय एक शाहमीर नाम के शख्स तशरीफ लाते हैं. शाहमीर खुद को शाहमीर बिन ताहिर आल बिन आले शाशब बिन गर्शास्प बिन नेफरोज कहते हैं और अपने वंश को पांडवों में से एक अर्जुन तक ले जाते हैं. सरदेव की मौत के बाद उनका बेटा रंजन राजा हुआ. शाहमीर उसके वजीर हो गए. रंजन की मृत्यु हुई तो सरदेव का एक रिश्तेदार कंधार से आकर राजा बन गया. वह राजा उदन था. शाहमीर के दो बेटे जमशेद और अली शेर भी ऊंचे ओहदों पर आ टिके.

एक बार धोखे से शाहमीर ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया. 1346 में उदन की मृत्यु हो गई. उसकी रानी कोपादेवी ने सरदेव के बेटे रंजन को राजा बनाने की बात शाहमीर से की लेकिन अब तक शाहमीर इतना ताकतवर हो चुका था कि वही कश्मीर की किस्मत लिखने को आमादा था. कोपादेवी ने झुकने की बजाए उससे लड़ाई की. वह हार गई. बंदी बना ली गई. शाहमीर ने कश्मीर की इस इज्जत को अपने हरम में लाकर रखा. उसे इस्लाम कुबूल करा दिया गया. अगले ही दिन शाहमीर ने खुद को कश्मीर का सुलतान शम्सुद्दीन घोषित किया. निजामुद्दीन अहमद यहां से घाटी में इस्लाम की शुरुआत मानता है. शाहमीर के चार बेटे थे. सबने बारी-बारी से 32 साल तक राज किया. हिंदू राजघरानों की लूट और मारकाट की कहानी घाटी से चल पड़ी. इस्लाम के कदम इस भयानक फरेब के साथ तुम्हारे दामन में पड़े, तुम्हें कुछ भी याद नहीं रहा!

और आगे सुनो प्यारे. इन्हीं चार बेटों में आखिरी था हिंदाल, जो कुतुबुद्दीन के नाम से सुलतान बना. वह 15 साल तुम पर लदा रहा. उसके दो बेटे थे. तुम्हारी खून से सनी तारीख में एक नाम आता है सिकंदर बुतशिकन का, जिसने पूरे 22 साल 9 महीने और 6 दिन तक कहर बरपाया. बहरारे के एक प्राचीन शिव मंदिर को उसने इस कदर तुड़वाया कि नींव तक खोदकर उसमें पानी भरके लौटा. सियह भट्ट नाम के एक धर्मांतरित मुसलमान को अपना वजीर बनाया. अपने नाम के साथ भट्ट लिखने वाले इस वजीर ने चार सालों तक अपने ही मूल धर्म के लोगों का जीना हराम करके रखा. हजारों हिंदू घाटी छोड़ने को मजबूर हुए और कुछ ने तो खुदकुशी ही कर ली. तुमने देखा होगा कि इस सुलतान ने पुराने भव्य मंदिरों से सोने, चांदी और तांबे की अनगिनत मूर्तियों को तुड़वाकर उन्हें गलवा डाला था ताकि सिक्के ढलवाए जा सकें. और ऐसा उसने लगातार किया. उसने बड़े पैमाने पर कश्मीरियों को मुसलमान बनने पर मजबूर किया. ब्राह्मणों को माथे पर टीका लगाना बंद किया गया. खुद को बुतशिकन कहने वाले इस कम्बख्त शैतान का बेटा अगले 52 साल तक तुम्हारी छाती पर मूंग दलता रहा. हे कश्मीर, क्या तुम्हें कुछ याद नहीं कि नफरत और खूनखराबे का जहर तुम्हारी रगों में घोलने वालों ने तुम्हारे साथ क्या सुलूक किया था? यह तो बहुत पुराने किस्से भी नहीं है. कुछ सौ साल की ही बात है और यह तो शुरुआत थी तुम्हारी शक्ल बिगाड़ने की. मगर अक्ल भी बिगड़ जाएगी यह तो अजीब बात है! फिर मुगलों के आगरा-दिल्ली में काबिज होने तक ऐसे कई सुलतान आते गए. हरेक ने खूनखराबे की इबारतें लिखीं और आखिरकार शिव और बौद्ध की रवायतों वाली तुम्हारी जमीन मुगलों की ऐशगाह बन गई.

सन् 47 आते-आते पाकिस्तान नाम का एक विष कुंड पैदा हुआ. तुम्हें शम्सुद्दीन नाम के धोखेबाज तक ही अपनी रवायतें याद रहीं? वर्ना पाकिस्तान का परचम पत्थरबाजों के हाथों में क्यों नजर आता रहा? ये 370 का थेगड़ा तुम्हारे गले में कौन टांग गया? उतार फैंको इसे. तुम्हें इन सत्तर सालों में हमारे सिनेमा ने किस खूबसूरती से दुनिया को दिखाया है. और उधर सरहद पार जो तुम्हारा ही हिस्सा है वहां क्या पनपा? वहां अजहर का जहर फैला. जैशे-मोहम्मद का जहर. जहर से भरे ये घड़े शम्सुद्दीन ही लेकर आया था, जो हुर्रियत के हाथों में आए. जहर को हलक में उतारने का हुनर हिंदुस्तान को उसी शिव ने सिखाया, जिसकी शानदार परंपराओं की गवाह तुम्हारी हरी-भरी घाटियां हैं. एक हद होती है.

तुम्हें ललितादित्य में अपनी मूल रवायतें नजर नहीं आतीं? आदि शंकराचार्य की सौंदर्य लहरी का कोई श्लोक तुम्हारे कानों में नहीं गूंजता? कल्हण ने जिन राजवंशों का जिक्र किया, उनमें तुम्हारा अपना कोई नहीं था? तुम्हें लल्लेश्वरी में अपने ही लहू की कोई पुकार सुनाई नहीं देती? गुरू तेगबहादुर के सामने आनंदपुर गए अपने अपमानित पुरखों का कोई आंसू तुम्हें अपने गालों पर ढुलकता हुआ महसूस नहीं होता? हिंद की चादर का कर्ज कौन चुकाएगा, सोचा कभी तुमने? जिन अल्लामा इकबाल के कलाम गा-गाकर सुनाए जाते हैं, वे भी कश्मीर के थे. उन्हें अपने सप्रू गोत्र के ब्राह्मण पुरखों पर नाज था. मगर आखिरकार जहर का ही असर रहा, जो पाकिस्तान के फरेब में वे भी आ गए. ये धोखेबाज शेख, गिलानी, बट, डार भी अपनी गिरेबां में झांकें तो चार-छह सौ साल पहले कोई मजबूर ब्राह्मण पुरखा सिकंदर बुतशिकन या औरंगजेब के टुकड़खोरों के सामने रहम की भीख मांगता हुआ नजर आएगा. अपनी ही किसी मां-बहन की चीख किसी हरम से सुनाई देगी, जिसकी कोख से फिर इनकी ही सूरतें नजर आएंगी, जो आज भारत के माथे पर पत्थर फैंक रहे हैं, पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलकर अपने ही मुल्क से दगाबाजी कर रहे हैं. कोई अब्दुल्ला, कोई महबूबा, कोई मुफ्ती, कोई गिलानी, कोई भट. सिर्फ सात सौ सालों में ही इनकी अक्ल और शक्ल दोनों ही कश्‍मीर घाटी में घास चरने चली गईं. शिव का अमृत तुम्हारी विरासत है, जहर या अजहर नहीं.

हे मेरे कश्मीर कुछ तो याद करो! याद आया क्या थे तुम? क्या हो गए? ये क्या हुआ कि पुलवामा में एक आदिल बम बांधकर चालीस अपने ही भाइयों को ले मरा? किसने किसको मारा? कौन मरा? कौन बचा? कुछ तो बोलो...

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लेखक

विजय मनोहर तिवारी विजय मनोहर तिवारी @vijay.m.tiwari

लेखक मध्यप्रदेश के स्टेट इन्फॉर्मेशन कमिश्नर हैं. और 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' सहित छह किताबें लिख चुक हैं.

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