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Updated: 12 फरवरी, 2022 04:51 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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कर्नाटक के स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने पर रोक (hijab row) के हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल सुनवाई से इनकार कर दिया है. चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना की बेंच ने हिजाब विवाद पर कहा है कि 'हम देखेंगे कि कब इसमें दखल देने का सही समय है.' इन सबके बीच कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुआ हिजाब विवाद अब दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तक फैलता जा रहा है. सीएए विरोधी प्रदर्शन के लिए चर्चा के केंद्र में रहे शाहीन बाग में भी हिजाब विवाद को लेकर विरोध प्रदर्शन किया गया. वहीं, इस मामले पर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के एक ट्वीट ने समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (uniform civil code) को लेकर ये बहस छेड़ दी है कि देश संविधान से चलेगा या धर्म से? वैसे, चर्चा छिड़ना लाजिमी भी है. क्योंकि, 'हम भारत के लोग' संविधान के खिलाफ नही है. और, संविधान के ही अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कही गई है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो ताजा हिजाब विवाद यूनिफॉर्म सिविल कोड को जल्द से जल्द लागू करने का माहौल बना रहा है. क्योंकि, भारत में मजहब या धर्म के आधार पर अपने हिसाब से अपनी स्वतंत्रता का पैमाना तय नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, अगर ऐसा होता है, तो यह सीधे तौर पर भारत के संविधान पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है.

Hijab Controversy Uniform Civil Codeदेशभर में चर्चा छिड़ी हुई है कि देश संविधान से चलेगा या धर्म से?

भविष्य में भयावह नजर आते हैं हालात

आज स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने (hijab controversy) को संवैधानिक अधिकार बताया जा रहा है. इसे देखकर निश्चित तौर पर ये माना जा सकता है कि भविष्य में इस्लाम और शरीयत के हिसाब से अन्य चीजों की भी मांग उठेगी ही. क्योंकि, बीते साल ही तमिलनाडु के पेरंबलूर जिले के कड़तूर गांव में निकलने वाली रथयात्रा को मुस्लिम जमात ने अपनी आबादी के लिहाज से 'शिर्क' यानी पाप बताया था. और, इस मामले सत्र न्यायालय द्वारा रथयात्रा पर रोक लगाने के फैसले पर मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि 'अगर जमात का यह तर्क मान लिया गया, तो हिंदू बहुल भारत में कोई मुस्लिम आयोजन नहीं हो सकेगा.' वैसे, हिजाब विवाद के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. लेकिन, मुस्लिम समाज में बढ़ रही कट्टरता पर शायद ही किसी के विचार सामने आते होंगे. यहां ये भी बताना जरूरी है कि कड़तूर जिले में जमात का विरोध 2014 के बाद शुरू नहीं हुआ था. बल्कि, यह वैमनस्य 2011 से ही जारी था. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अगर इस तरह के विवादों को यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करके खत्म नहीं किया गया, तो भविष्य में यह एक भयावह रूप लेता हुआ नजर आ रहा है. क्योंकि, भारत कई धर्मों और संप्रदायों का देश हैं, तो ऐसे कई मामले सामने आ सकते हैं, जिसमें हर समुदाय अपने धर्म और संप्रदाय के हिसाब से कई चीजों को अपना संवैधानिक अधिकार बता सकते हैं.

संविधान में ही हैं कई विरोधाभास

वैसे, भारत में पर्सनल लॉ बनने के साथ ही इस विघटनकारी सोच की नींव रख दी गई थी. क्योंकि, भारत के संविधान में भी कई विरोधाभास हैं. संविधान के अनुच्छेद 15 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य-सम्प्रदाय, जाति, लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक से कोई भेदभाव नहीं करेगा. लोगों के पास इन मामलों पर अदालतों का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है. ठीक वैसे ही जैसे सबरीमाला मंदिर में 10 साल से 50 साल के उम्र की महिलाओं को प्रवेश का अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने दिया था. और, मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा को असंवैधानिक बताया था. लेकिन, संविधान के ही अनुच्छेद 37 में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने जैसे अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं हैं. इतना ही नहीं, संविधान के तहत बनाए गए पर्सनल लॉ को संघ सूची के बजाए समवर्ती सूची में रखना भी एक बड़ा सवाल है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अगर सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का मन नहीं बनाती है, तो सुप्रीम कोर्ट के पास केवल इसके बारे में अपनी राय रखने का ही अधिकार है.

ज्यादातर लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में 

1985 के शाह बानो मामले इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है. शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने के लेकर संसद को निर्देशित किया था. लेकिन, संसद में अध्यादेश के जरिये सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने पलट दिया था. उसके बाद से देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति का जो उदय हुआ है, आज का हिजाब विवाद उसी का नतीजा कहा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद तीन दशक से ज्यादा समय गुजर चुका है. अब तक कई बार सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की ओर से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर सरकारों को दिशा-निर्देश दिए जाते रहे हैं. लेकिन, कोई भी सरकार इस पर कदम बढ़ाने का विचार नहीं बना सकी है. हालांकि, भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने का भी वादा किया गया है. लेकिन, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व और केंद्र सरकार की ओर से इस पर अभी तक उदासीनता ही नजर आती है. जबकि, जनवरी 2022 के ही इंडिया टुडे के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे में यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने के पक्ष में 72.7 फीसदी लोगों ने अपनी राय जाहिर की थी.

मुस्लिम तुष्टिकरण की देनी होगी तिलांजलि

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि धारा 370 जैसे कानून की वजह से ही लाखों कश्मीर पंडितों को अपने ही देश में रिफ्यूजी बनने पर मजबूर होना पड़ा था. और, इसी आधार पर ये भी कहा जा सकता है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले अधिकांश राजनीतिक दल इसका विरोध करेंगे. क्योंकि, वोट बैंक की राजनीति करने वाली ये सियासी पार्टियां देश को ऐसे ही मामलों में उलझाए रखकर अपना हित साधने में लगी रहती हैं. क्योंकि, जैसे ही केंद्र की भाजपा सरकार की ओर से इसे लेकर कदम उठाए जाएंगे. ये सभी राजनीतिक दल एक सुर में इसे मुस्लिम विरोधी साबित करने में जुट जाएंगे. जबकि, भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड के दायरे में सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, सभी समुदाय आएंगे. भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड न होने का खामियाजा अब तक कई लोग भुगत चुके हैं. लेकिन, यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध भारत में राजनीतिक हितों को साधने का एक हथियार बन चुका है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो हालिया हिजाब विवाद (karnataka hijab controversy) केंद्र की भाजपा सरकार के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने का माहौल तैयार कर रहा है. लेकिन, यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना इतना आसान नहीं होने वाला है. लेकिन, देश की एकता और अखंडता के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड अब कहीं ज्यादा जरूरी नजर आता है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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